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Read this article in Hindi to learn about:- 1. Stars 2. Constellation 3. Sun 4. Planets 5. Asteroids 6. Meteorites 7. Comets 8. Moon 9. Artificial Satellites.
Contents:
- तारे (Stars)
- तारामण्डल (Constellation)
- सूर्य (Sun)
- ग्रह (Planets)
- ग्रहिकाएँ (Asteroids)
- उल्काएँ तथा उल्का पिण्ड (Meteorites)
- पुच्छल तारे या धूमकेतु (Comets)
- चन्द्रमा (Moon)
- कृत्रिम उपग्रह (Artificial Satellites)
प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने चारों ओर स्थित वातावरण के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने के लिए उत्सुक रहा है । पृथ्वी के चारों ओर अनन्त सीमा में फैले वृहत्तर पर्यावरण को ब्रह्माण्ड कहते हैं । अवलोकनों तथा प्रेक्षणों पर आधारित ब्रह्मांड के अध्ययन करने वाले विज्ञान को खगोलशास्त्र कहते हैं । ब्रह्माण्ड के तीन प्रमुख अवयव- मंदाकिनियाँ, तारे व सौरमण्डल हैं ।
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ब्रह्माण्ड में असंख्य तारे होते हैं । ये तारे चारों ओर एक समान रूप से वितरित न होकर बड़े-बड़े गुच्छों अथवा समूहों में पाए जाते हैं । तारों के किसी ऐसे समूह को मंदाकिनी या निहारिका या गैलेक्सी (Galaxy) कहते हैं । हमारा सूर्य जिस मंदाकिनी में स्थित है उसे आकाशगंगा कहते हैं ।
खगोलज्ञों की अनुमानित गणना के अनुसार ब्रह्माण्ड में लगभग दस अरब (1011) मंदाकिनियाँ हैं । प्रत्येक मंदाकिनी में औसतन कई अरब तारे होते हैं । हमारा सूर्य ऐसा ही एक तारा है जिसके चारों ओर नौ ग्रह परिक्रमा लगाते रहते हैं । पृथ्वी इन ग्रहों में से एक ग्रह है जो सूर्य के चारों ओर परिक्रमा लगाती है । सूर्य की परिक्रमा करते ग्रह तथा उनके उपग्रह आदि को मिलाकर हमारा सौरमण्डल बनता है ।
हमारा सौरमण्डल हमारी निहारिका आकाशगंगा के बाहरी छोर पर स्थित है । चित्र 1.1 में दर्शाए अनुसार आकाशगंगा सर्पिल आकार की है और यह धीरे-धीरे दक्षिणवर्त घूम रही है ।
1. तारे (Stars):
तारे ऐसे खगोलीय पिण्ड हैं जो लगातार प्रकाश एवं ऊष्मा उत्सर्जित करते हैं । इसीलिए रात में आकाश में झिलमिलाते तारे पहचाने जा सकते हैं । ग्रह, सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं । इसलिए उनकी चमक स्थिर होती है । सूर्य भी एक तारा है । अन्य तारों की तुलना में पृथ्वी के निकट होने के कारण सूर्य बड़ा दिखाई देता है ।
अन्य तारे बिन्दु जैसे इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि वे पृथ्वी से अत्याधिक दूरी पर हैं जबकि उनमें से कुछ तारे तो सूर्य की तुलना में अत्याधिक बडे हैं । हमें ऐसा लगता है कि तारे केवल रात्रि में ही आकाश में प्रकट होते हैं परन्तु ऐसा नहीं है । दिन के समय आकाश में सूर्य के प्रकाश की चमक के कारण तारे हमें दिखाई नहीं देते हैं ।
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सूर्य सहित सभी तारे, किसी न किसी खगोलीय पिंड समूह की तीव्र गति से परिक्रमा कर रहे हैं । परन्तु उच्च चाल से गतिशील होने पर भी पृथ्वी से देखने पर हमें किन्हीं दो तारों के बीच की दूरी परिवर्तित होती प्रतीत नहीं होती है । इसका कारण यह है कि तारे हमसे इतनी अधिक दूरी पर हैं कि उनके बीच की दूरी में होने वाले परिवर्तनों का आभास हमें कुछ वर्षों में, यहाँ तक कि पूरे जीवन काल में भी नहीं हो पाता है ।
पृथ्वी से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सूर्य अथवा तारे पूर्व से पश्चिम की ओर गति कर रहे हैं । इसका कारण यह है कि पृथ्वी अपने केन्द्र से गुजरने वाले एक काल्पनिक अक्ष के परिधि में पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन कर रही है ।
परन्तु फिर भी एक तारा ऐसा है जो हमें स्थिर प्रतीत होता है क्योंकि यह पृथ्वी के घूर्णन अक्ष के समीप स्थित है जैसा चित्र (1.2) में प्रदर्शित है । यह तारा उत्तर दिशा में स्थित है और इसे हम ध्रुव तारा या पोलस्टार कहते हैं । हमारे पूर्वज यात्रा करते समय दिशा ज्ञात करने के लिए ध्रुव तारे का सर्वाधिक उपयोग करते रहे हैं ।
2. तारामण्डल (Constellation):
आकाश में कुछ तारे समूह के रूप में एकत्रित होकर सुन्दर आकृतियाँ बनाते हैं जिन्हें तारामण्डल कहते हैं । हमारे पूर्वजों ने इन तारामण्डलों का नाम उन वस्तुओं के नाम पर रखा जिससे वे मिलते-जुलते हैं जैसे कि सिंह, मेष, मीन, कुम्भ, सप्तर्षि आदि । चित्र 1.3 में दर्शाए अनुसार वृहत-सप्तर्षि या उर्सा मेजर एक महत्वपूर्ण तारामण्डल है ।
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इसमें अनेक तारे हैं जिसमें सात सर्वाधिक चमकदार तारे आसानी से दिखाई देते हैं जो प्रश्न-चिन्ह जैसी आकृति बनाते प्रतीत होते हैं । इसके शीर्ष भाग पर स्थित दो तारे संकेतक तारे कहलाते हैं क्योंकि इनको मिलाने वाली रेखा ध्रव तारे की ओर संकेत करती है ।
इसी प्रकार लघु-सप्तर्षि या उर्सा माइनर तारामण्डल में भी अधिक चमक वाले सात प्रमुख तारे हैं । पृथ्वी के उतरी गोलार्ध में इस तारामण्डल को प्राय: बसन्त ऋत में देखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त चित्र 1.4 में दर्शाए अनुसार मृग या ओरायन एक अन्य तारामण्डल है जो अत्यधिक चमकीला होता है । इसे शीत ऋतु में देखा जा सकता है । इसमें भी सात चमकीले तारे हैं जिनमें से चार किसी चतुर्भुज की आकृति बनाते प्रतीत होते हैं । भारत में यह काल-पुरुष के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
सौरमण्डल या सौर परिवार:
आकाशगंगा का वह भाग जिसमें हम लोग रहते हैं । सौर परिवार में सूर्य के अतिरिक्त नौ ग्रह, कुछ उपग्रह, लघु ग्रह तथा बड़ी संख्या में धूमकेतु शामिल हैं । इन्हें सौरमण्डल भी कहते हैं ।
3. सूर्य (Sun):
सूर्य हमारे सबसे नजदीक का तारा है । यह लगभग 500 करोड़ वर्ष पहले बना है । तभी से यह लगातार ढेर सारा-प्रकाश तथा ऊष्मा उत्सर्जित कर रहा है । अगर इसी तरह यह अपनी ऊष्मा का उत्सर्जन करता रहा तो यह लगभग 500 करोड़ वर्ष और अस्तित्व में रहेगा । इसके चारों ओर परिक्रमा करने वाले सभी ग्रहों की ऊष्मा तथा प्रकाश का स्रोत सूर्य ही है ।
4. ग्रह (Planets):
जब हम रात के समय आकाश में देखते हैं तो कुछ पिण्ड तारों के समान दिखाई देते हैं इनमें से कुछ तो तारों की तुलना में अधिक चमकदार एवं बड़े दिखाई पड़ते हैं । समय के साथ तारों के सापेक्ष, इनकी स्थितियों में परिवर्तन होता रहता है । ये खगोलीय पिण्ड ग्रह कहलाते हैं । ग्रह ऐसे खगोलीय पिण्ड हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं । ये स्वयं प्रकाश उत्सर्जित नहीं करते । ग्रह हमें तारों की भाँति चमकीले इसलिए दिखाई पड़ते हैं क्योंकि ये अपने ऊपर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं ।
तारों तथा ग्रह में अन्तर:
तारे:
i. ये अपनी स्वयं की ऊष्मा तथा प्रकाश उत्सर्जित करते हैं ।
ii. ये टिमटिमाते दिखते हैं ।
iii. ये अत्यधिक दूरी के कारण बिन्दु के समान प्रतीत होते हैं ।
ग्रह:
i. ये अपने ऊपर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करते हैं ।
ii. ये टिमटिमाते नहीं हैं ।
iii. ये डिस्क (चकती) के समान प्रतीत होते हैं ।
हमारे सौरमण्डल में नौ ग्रह ज्ञात हैं जिनमें प्रत्येक अपने निश्चित पथ पर सूर्य की परिक्रमा करता है जिसे उसकी कक्षा कहते हैं । किसी ग्रह द्वारा सूर्य के चारों ओर एक परिक्रमा पूरी करने में लगे समय को उस ग्रह का परिक्रमण काल (Orbital Period) कहते हैं । प्रत्येक ग्रह का सूर्य के परित: परिक्रमण काल भिन्न-भिन्न होता है ।
चित्र 1.5 में सूर्य से बढ़ती हुई दूरी के क्रम में नौ ग्रह- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, वृहस्पति, शनि, अरुण (यूरेनस), वरुण (नेप्च्युन), तथा यम (प्लूटो) दर्शाए गए हैं । इस प्रकार सौरमण्डल में बुध ग्रह सूर्य के सबसे नजदीक तथा यम (प्लूटो) ग्रह सूर्य से सबसे दूर स्थित है । अपनी-अपनी कक्षाओं में विभित्र ग्रहों की गति, उन पर सूर्य के गुरूत्वाकर्षण बल के कारण है ।
5. ग्रहिकाएँ (Asteroids):
मंगल तथा वृहस्पति के बीच की दूरी अत्यधिक (लगभग 55 करोड़ किलोमीटर) है । इस क्षेत्र में हजारों लोटे-बड़े पिण्ड हैं जो सूर्य का चक्कर लगाते हैं । इन्हें लघुग्रह अथवा ग्राहिकाएँ कहते हैं । ये चट्टानों और धातुओं से बने हैं । इनका आकार सूक्ष्म कण से लेकर कई किलोमीटर व्यास वाले गोले तक का है ।
इनकी कक्षाएँ अलग-अलग होती हैं तथा अत्यधिक लम्बी दूरी तक फैली रहती हैं और एक झुण्ड का निर्माण करती हैं । यह माना जाता है कि ये लघुग्रह वे पिण्ड होते हैं जो एक ग्रह के रूप में एकत्रित नहीं हो पाए । इन्हें उच्च कोटि के दूरदर्शी से आसानी से देखा जा सकता है ।
6. उल्काएँ तथा उल्का पिण्ड (Meteorites):
आपने कुछ पिण्ड देखे होगे जो आकाश से गिरते समय चमक पैदा करते हैं । इन्हें टूटता हुआ तारा कहते हैं । यह एक गलत शब्द है, क्योंकि न तो ये तारे होते हैं और न ही तारों से किसी प्रकार से संबंधित होते हैं । ये ग्राहिकाओं के टुकड़े होते हैं । ग्राहिकाओं के कई टुकड़े अपनी कक्षा से भटक कर पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं ।
वायु और धूल के कणों से घर्षण के कारण उत्पत्र अत्यधिक ऊष्मा से यह चमकते हुए दिखाई देते हैं जिसे उल्का (Meteor) कहते हैं । इनमें से अधिकांश छोटे पिण्ड तो वायुमण्डल में ही नष्ट हो जाते हैं परन्तु कुछ बड़े पिण्ड पृथ्वी की सतह तक पहुँच जाते हैं और वहाँ टकराकर बहुत बड़ा गड़ा बना सकते हैं । ऐसे बड़े पिण्डों को उल्का-पिण्ड (Meteorites) कहा जाता है । इनके रासायनिक विश्लेषण से सौरमण्डल के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है ।
7. पुच्छल तारे या धूमकेतु (Comets):
वे खगोलीय पिण्ड जो अत्यधिक दीर्घवृत्तीय कक्षाओं में सूर्य की परिक्रमा करते हैं, धूमकेतु कहलाते हैं । वे पृथ्वी से केवल तभी दिखाई पड़ते हैं जब वे सूर्य के बहुत निकट आ जाते हैं । ये आकाश में एक ऐसे चमकते हुए गोले के रूप में दिखाई देते हैं जिसकी एक लम्बी पूँछ होती है ।
जैसे-जैसे कोई धूमकेतु सूर्य के निकट पहुँचता है इसकी पूँछ की लम्बाई बढ़ती जाती है ओर फिर सूर्य से दूर होते समय इसकी पूँछ की लम्बाई घटती जाती है और अन्त में अदृश्य हो जाती है । धूमकेतु की पूँछ सदैव सूर्य के विपरीत दिशा में ही रहती है जैसा चित्र 1.9 में दर्शाया गया है ।
कुछ धूमकेतु एक निश्चित समय के बाद बार-बार प्रकट होते रहते हैं । चित्र 1.9 में प्रदर्शित ‘हेली’ नामक धूमकेतु एक ऐसा ही धूमकेतु है । यह लगभग 76 वर्ष के बाद पृथ्वी से दिखाई देता है । अंतिम बार हेली धूमकेतु 1986 ई॰ में दिखाई दिया था । अत: यह पुन: 1986+76 = 2062 ई॰ में दिखाई देगा ।
8. चन्द्रमा (Moon):
पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चन्द्रमा है जो निरंतर पृथ्वी की परिक्रमा करता है । चन्द्रमा पर न तो कोई वायुमण्डल है और न ही जल है । आकाश में सूर्य को छोड़कर अन्य सभी खगोलीय पिण्डों की तुलना में चन्द्रमा सबसे अधिक चमकदार दिखाई देता है ।
यह तो जानते ही हैं कि सूर्य एवं अन्य तारे अपना प्रकाश उत्सर्जित करते हैं जबकि चन्द्रमा ऐसा नहीं करता है । हम चन्द्रमा को इसलिए देख पाते हैं क्योंकि यह अपने ऊपर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश को हमारी ओर परावर्तित कर देता है । अत: हम चन्द्रमा का केवल वह भाग देख पाते हैं जो सूर्य प्रकाश द्वारा प्रकाशित है एवं हमारी ओर है ।
चन्द्रकलाएँ:
चन्द्रमा पृथ्वी की परिक्रमा और पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है । अत: सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी एवं चन्द्रमा की स्थिति प्रतिदिन बदलती रहती है जिससे प्रतिदिन पृथ्वी से देखने पर चन्द्रमा का आकार एवं आकृति बदलती प्रतीत होती है ।
पूर्णिमा की रात में आप पूर्ण चन्द्र देखते हैं । इसके बाद चन्द्रमा के चमकदार भाग की आकृति प्रतिदिन घटती जाती है तथा पन्द्रहवें दिन हमें चंद्रमा नहीं दिखाई देता है । इसे अमावस्या की रात कहते हैं । इससे अगली रात्रि में आकाश में नवचंद्र प्रकट होता है ।
इसके बाद के दिनों में चन्द्रमा का चमकदार भाग बढ़ता जाता है और पन्द्रहवें दिन उसका चमकदार भाग पुन: पूर्ण चन्द्र के रूप में दिखाई देने लगता है । चन्द्रमा में चमकदार भाग के घटने बढने के क्रम को चन्द्रमा की कलाएँ कहते हैं ।
चित्र 1.10 में पृथ्वी के परित: परिक्रमा करते हुए चन्द्रमा की विभिन्न स्थितियों को दर्शाया गया है । पूर्णिमा के दिन पृथ्वी चन्द्रमा और सूर्य के मध्य होती है अत: इस दिन हमें पूर्ण चन्द्रमा दिखाई देता है । अमावस्या के दिन चन्द्रमा पृथ्वी और सूर्य के मध्य होता है अत: सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा के उस भाग पर पड़ता है जो हमारी ओर नहीं है ।
अत: हम चन्द्रमा को नहीं देख पाते हैं यद्यपि उसका आधा पृष्ठ सूर्य के प्रकाश द्वारा प्रकाशित होता है । अमावस्या से ठीक अगले दिन पृथ्वी के जिस भाग पर हम हैं उससे चन्द्रमा का केवल चाप के आकार का (नवचन्द्र) भाग ही प्रकाशित दिखाई पड़ता है । सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित चन्द्रमा का यह दृश्य भाग प्रतिदिन आकार में बढ़ता जाता है और पूर्णिमा को हमें पूर्ण चन्द्रमा पुन: दिखाई देने लगता है ।
चन्द्रमा पृथ्वी के परित: अपनी एक परिक्रमा 27.3 दिन में पूरी करता है । परन्तु उसी काल में, पृथ्वी अपनी कक्षा में थोड़ी आगे बढ़ जाती है । इसलिए पृथ्वी से देखने पर, किसी अमावस्या की रात से अगली अमावस्या की रात के बीच चन्द्रमा पृथ्वी के परित: एक परिक्रमा पूरी करने में 29 दिन का समय लेता हुआ दिखाई पड़ता है । चन्द्र कलेण्डरों का निर्माण इसी आधार पर होता है ।
9. कृत्रिम उपग्रह (Artificial Satellites):
चन्द्रमा, पृथ्वी का प्राकृतिक उपग्रह है । परन्तु आपने टेलीविजन पर कार्यक्रम देखते समय इन्सेट-3B एवं कल्पना चावला-I जैसे उपग्रहों के नाम सुने होगे, ये कृत्रिम अथवा मानव निर्मित उपग्रहों के उदाहरण हैं ।
मानव निर्मित कृत्रिम उपग्रह भी पृथ्वी के प्राकृतिक उपग्रह चन्द्रमा की भाँति ही पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं । परन्तु यह चन्द्रमा की तुलना में पृथ्वी के बहुत निकट होते हैं । उपयोग के आधार पर इन ग्रहों की परिक्रमण कक्षा की पृथ्वी सतह से दूरियों भिन्न-भिन्न हो सकती हैं ।
पहला सफल कृत्रिम उपग्रह रूस द्वारा 1957 में भेजा गया स्पूतनिक-I था । भारत ने अपना पहला कृत्रिम उपग्रह (आर्यभट्ट) 19 अप्रैल 1975 को अंतरिक्ष में भेजा था । संसार में केवल छ: ऐसे देश हैं, जिनके पास मानव निर्मित कृत्रिम उपग्रहों को विकसित करने और अंतरिक्ष में पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमण हेतु निर्धारित कक्षा में भेजने की तकनीक उपलब्ध है । भारत भी इन छ: देशों में एक है ।
कृत्रिम उपग्रहों के उपयोग:
i. टेलीविजन तथा रेडियो कार्यक्रमों के प्रसारण में ।
ii. मौसम की भविष्यवाणी करने में ।
iii. लम्बी दूरी के लिए टेलीफोन, इंटरनेट तथा फेक्स आदि में ।
iv. समुद्र में होने वाले परिवर्तनों के अध्ययन में ।
v. छिपी हुई खनिज-सम्पदा को ढूँढने में ।
vi. बाह्य अंतरिक्ष के बारे में जानकारी प्राप्त करने में ।
vii. रक्षा के क्षेत्र में ।