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Read this article in Hindi to learn about our solar system.
सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों तथा तारों आदि को खगोलीय पिंड कहतें है । सूर्य वास्तव में एक तारा ही है । पृथ्वी सहित आठ ग्रह सूर्य के परित: विभिन्न कक्षाओं में पीरभ्रमण करते रहते हैं ।
चंद्रमा:
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चंद्रमा पृथ्वी के परित: परिभ्रमण करता है । इसलिए इसे पृथ्वी का उपग्रह कहते हैं । चंद्रमा, पृथ्वी का प्राकृतिक उपग्रह है । यह पृथ्वी का सबसे समीपवाला खगोलीय पिंड है । पृथ्वी से चंद्रमा लगभग ३,८४,४०० कि॰मी॰ के बराबर की दूरी पर है ।
करो और देखो:
एक तालिका बनाकर उसमें चंद्रमा के प्रतिदिन उदय तथा अस्त होने के समय को अंक्ति करो । किसी एक पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा तक का समय इस में अंकित करो । चंद्रमा के प्रतिदिन के उदय का समय अलग-अलग है । तुम्हें ज्ञात होगा कि प्रतिदिन चंद्रमा का उदय पिछले दिन की अपेक्षा लगभग ५० मिनट देरी से होता है ।
पृथ्वी के परित: परिभ्रमण करते समय चंद्रमा अपने चारों ओर भी घूमता रहता है । चंद्रमा को पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर लगाने में २७.३ दिन लगते है तथा चंद्रमा को स्वयं के परिवलन के लिए भी उतना ही समय लगता है ।
करो और देखो:
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किसी खुले मैदान पर २ मीटर त्रिज्यावाला एक वृत्त खींची । अपने किसी एक साथी को इस वृत्त के केंद्र पर खड़ा होने के लिए कहो । अब तुम उस वृत्त की परिधि पर इस प्रकार चलो कि तुम्हारा चेहरा तुम्हारे साथी की ओर ही हो ।
जैसे ही तुम इस वृत्त का एक चक्कर पूरा करते हो, उसी समय तुम स्वयं अपने चारों ओर भी एक चक्कर पूरा कर लेते हो और तुम्हारा साथी तुम्हारी पीठ को कभी भी देख नहीं पाता । अत: हम चंद्रमा का केवल एक भाग देख सकते हैं ।
पुर्णिमा के दिन पूर्ण चंद्रमा (पूर्णत: गोलाकार) दिखाई देता है । इसके बाद चंद्रमा का प्रकाशित भाग धीरे-धीरे छोटा होता जाता है और अंत में अमावस्या के दिन आकाश में दिखाई नहीं देता । अमावस्या के बाद चंद्रमा का यह प्रकाशित भाग पुन: प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा बढ़ता है ।
चंद्रमा के इस प्रकार छोटा-बड़ा दिखाई देने को चंद्रमा की कला कहते हैं । बचपन में तुम्हारी दादी जी ने तुम्हें चंद्रमा की कमीज की कहानी सुनाई होगी ।
करो और देखो:
एक बड़ा गेंद लो और सूर्यास्त के डेढ़-दो घंटे पहले किसी मैदान अथवा इमारत की छत पर जाओ । हाथ को लंबा करके इस गेंद को हाथ में रखी । इस बात की सावधानी रखो कि तुम्हारा चेहरा अथवा तुम्हारे शरीर का कोई भाग, गेंद पर पड़नेवाले सूर्य के प्रकाश के मध्य न आए ।
इस गेंद को चंद्रमा और अपने सिर को पृथ्वी मानो । चंद्रमा का जो भाग तुम्हारी ओर हो, उसपर निशान बनाओ । तुम इस प्रकार खड़े हो जाओ कि तुम्हारा चेहरा सूर्य के सामने हो । चंद्रमारूपी गेंद पर पड़नेवाले सूर्य के प्रकाश की ओर ध्यान दो ।
अब तुम धीरे-धीरे स्वयं के चारों ओर चक्कर लगाओ । ऐसा करते समय अब अंकित करो कि एक परिवलन में गेंद का कौन-कैन-सा भाग तुम्हें प्रकाशित दिखाई देता है । इसके आधार पर गेंद की अर्थात चंद्रमा की कला की तुम्हें कल्पना होगी ।
इसी प्रकार गेंद रूपी चंद्रमा द्वारा एक परिवलन पूर्ण किया जाता है, तो भी निशल का वह भाग तुम्हें सदैव दिखाई देता रहेगा । यही चंद्रमा के संबंध में भी होता है । जब तुम अपना चेहरा सूर्य की ओर करके खड़े होते हो, तब गेंद रूपी चंद्रमा के निशानवाले भाग पर अंधेरा था ।
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इसलिए आकाश में चंद्रमा भी दिखाई नहीं देता । यही अमावस्या है । पृथ्वी तथा चंद्रमा के परिवलन के कारण इसके बाद धीरे-धीरे प्रतिपदा, दवितीया से पूर्णिमा तक क्रम से चंद्रमा की कलाएँ दिखाई देने लगती है । जब तुम्हारी पीठ सूर्य की ओर होती है, तब तुम्हारे हाथ के चंद्रमा पर अर्थात गेंद पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है, यही पूर्णिमा है ।
एक अमावस्या से उसके बादवाली दूसरी अमावस्या तक का समय २९॰५ दिनोंवाला होता है । इसी प्रकार अमावस्या से पुर्णिमा तक की परिघटना आकाश में बार-बार घटित होती रहती है ।
तारामंडल:
आकाश में हमें अनेक तारे और तारों का समूह (तारामंडल) दिखाई देते हैं । कुछ तारामंडलों के तारों के मेल से किसी प्राणी, वस्तु अथवा व्यक्ति की आकृति निर्मित होती है ।
उन कालों के अनुसार ही तब की प्रचलित परिघटना के अनुसार अथवा संकल्पना के अनुसार इन आकृतियों को नाम दिए गए हैं । गरमी की ऋतु में आकाश में सात तारों का एक विशिष्ट संयोजन दिखाई देता है । इन्हें हम ‘सप्तर्षि कहते हैं ।
आकाश में हमें मृग नक्षत्र नामक एक अत्यंत चमकार तारामंडल दिखाई देता है । सर्दी की रात में यही नक्षत्र पर्याप्त कम समय में दिखाई देता है । इसमें ७-८ तारे होते है । इनमें से चार तारे एक चतुर्भुज के चार शीर्षबिंदु होते हैं । इस तारामंड़ल से कुछ दूरी पर व्याध नामक तारा दिखाई देता है ।
मृग नक्षत्र के मध्यवाले तीन तारों से होकर जानेवाली एक सरल रेखा खींचने पर वह एक चमकार तारे से मिलती है । यही व्याध तारा है । वृश्चिक नामक तारामंडल में १०-१२ तारे दिखाई देते हैं परंतु इसमें समाविष्ट ज्येष्ठा नामक तारा सबसे अधिक तेजस्वी होता है । वृश्चिक तारामंडल दक्षिणी गोलार्ध के खगोल में विषुवत वृत्त के नीचे होता है ।
ऐसा नहीं है कि, किसी भी तारामंडल में केवल ५-१० तारे ही हों । उसमें अनेक तारे हो सकते हैं । कुछ तारे तो हमें अपनी आँखों से दिखाई भी नहीं देते । ऐसा भी नहीं है कि ये तारे पृथ्वी से एक निश्चित दूरी पर ही है । ये केवल समूह में जुड़े हुए दिखाई देते हैं ।
खगोल के ८८ भाग किए गए हैं । प्रत्येक भाग उसमें समाविष्ट एक तारामंडल के आधार पर इसे पहचाना जाता है । इसका अर्थ यह है कि कुल ८८ तारामंडल माने जाते हैं । उनमें से ३७ तारामंडल उत्तरी गोलार्ध के आकाश में और ५१ तारामंडल दक्षिणी गोलार्ध के आकाश में है । प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने २७ नक्षत्रों की कल्पना की है ।
हमारा सौरमंडल:
सूर्य तथा उसके परित: परिभ्रमण करनेवाले ८ ग्रह, उन ग्रहों के उपग्रह, लघुग्रह, धूमकेतु इन सभी के मेल से हमारा सौरमंडल निर्मित होता है । यह विश्व अत्यधिक विस्तृत है । हमारे वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उसमें हमारे सूर्य जैसे अनेक सूर्य और उनके सौरमंडल समाविष्ट हैं ।
सूर्य:
हमारे सौरमंडल के केंद्रीय स्थान पर सूर्य एक मध्यम आकारवाला तारा हैं । उसके पृष्ठभाग का तापमान लगभग ६००० अंश से. के बराबर है । उसका आकार इतना बड़ा है कि वह अपनी पृथ्वी जैसी अन्य १३ लाख पृथ्वियों को अपने में आसानी से समाविष्ट कर सकता है । सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा ही अन्य खगोलीय पिंड उसके परित: चक्कर लगाते रहते है ।
ग्रह:
सूर्य के परित: बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु, शनि, यूरेनस और नेपच्यून नामक कुल ८ ग्रह अलग-अलग कक्षाओं में परिभ्रमण करते हैं । किसी ग्रह को सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में जितना समय लगता है, उसे उस ग्रह का परिभ्रमण काल कहते हैं ।
करो और देखो:
अपने कुछ साथियों के साथ किसी मैदान में जाओ । चित्र में दिखाए अनुसार आठ एककेंद्रीय दीर्घवृत्त खींचो । किसी एक साथी को बीच में खड़ा होने के लिए कहो । यही तुम्हारा सूर्य है ।
अब बुध, शुक्र, पृथ्वी आदि आठ ग्रहों के कार्ड (गत्ते) एक-एक साथी को दो और सौरमंडल के ग्रहों के अनुक्रम के अनुसार उन्हें अपनी कक्षा में दौड़ने के लिए कहो । यह नियम निर्धारित करो कि कोई साथी अपने दौड़ने की कक्षा छोड़े नहीं ।
प्रत्येक ग्रह का परिभ्रमण काल अलग-अलग होता है । जैसे-जैसे हम सूर्य से दूर जाते हैं, वैसे-वैसे वह बढ़ता जाता है । बुध का परिभ्रमण काल केवल ८८ दिन है, जबकि नेपच्यून का लगभग १६५ वर्ष के बराबर है । सूर्य के परित: परिभ्रमण करने के साथ-साथ सभी ग्रह अपने चारों ओर भी घूमते रहते हैं ।
इसे ग्रहों का ‘परिवलन’ कहते हैं । किसी ग्रह को अपने ही परित: एक चक्कर लगाने में लगे समय को उस ग्रह का ‘परिवलन काल’ कहते हैं । कुछ ग्रहों के चारों ओर छोटे-छोटे खगोलीय पिंड परिभ्रमण करते हैं । उन्हें उन ग्रहों का ‘उपग्रह’ अथवा ‘चंद्रमा’ कहते हैं । तुम जानते हो कि चंद्रमा पृथ्वी का एक उपग्रह (चंद्रमा) है । मंगल ग्रह के दो उपग्रह हैं । शनि ग्रह को कितने उपग्रह हैं ? पूरी तरह ६० से भी अधिक ।
बुध:
यह सूर्य के सबसे समीपवाला और सबसे छोटा ग्रह है । सूर्य के अत्यधिक समीप होने के कारण इसे आसानी से देख पाना संभव नहीं है परंतु सूर्यास्त अथवा सूर्योदय के समय इसे क्षितिज पर देखा जा सकता
है । बुध का कोई उपग्रह नहीं है ।
शुक्र:
पृथ्वी के सबसे समीपवाला ग्रह शुक्र है । शुक्र ग्रह को ‘भोर का तारा’ भी कहते हैं । भोर के समय अथवा सायंकाल में यह अत्यधिक चमकदार दिखाई देता है । शुक्र ग्रह का कोई उपग्रह नहीं है । शुक्र की विशेषता है, कि यह अपने परित: पूर्व से पश्चिम की ओर परीवलन करता है, जबकि अन्य सभी ग्रह अपने परित: पश्चिम से पूर्व की ओर परिवलन करते हैं । जिस प्रकार हमारे चंद्रमा की कलाएँ होती हैं, उसी प्रकार शुक्र की भी कलाएँ होती हैं ।
पृथ्वी:
पृथ्वी एक्सात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन के लिए आवश्यक सही तापमान, पानी, हवा, वायुमंडल, ओजोन का संरक्षण आदि पाया जाता है । सौरमंडल के ग्रहों में से केवल पृथ्वी ऐसा ग्रह है जिस पर सजीव सृष्टि
हैं ।
पृथ्वी जिस अक्ष के परित: अपना परिवलन करती है, वह पीरभ्रमण कक्षा के साथ लंबवत न होकर थोड़ा झुका हुआ है । यही कारण है कि पृथ्वी पर सर्दी तथा गरमी जैसी ऋतुएँ होती हैं ।
क्षितिज के समीप होने पर बुध ग्रह को देखने में कठिनाई क्यों होती है ?
मंगल:
पृथ्वी की कक्षा के आंतरिक भाग में स्थित बुध तथा शुक्र ग्रहों को ‘आंतरिक ग्रह’ और उसकी कक्षा के बाहरवाले ग्रहों को बाह्यग्रह’ कहते हैं । मंगल पहला बाह्यग्रह है । इस ग्रह की मिट्टी में लोहा होने के कारण उसका रंग लाल दिखाई देता है । इसलिए इसे ‘लाल ग्रह’ भी कहते है । मंगल को दो उपग्रह हैं ।
गुरु:
सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह गुरु है । गुरु ग्रह का आकार इतना बड़ा है कि, उसमें पृथ्वी जैसे १३९७ गोले समा सकते हैं परंतु गुरु का द्रव्यमान पृथ्वी के द्रव्यमान का केवल ३१८ गुना है । अत्यंत बड़ा होने पर भी गुरु अपने परित: बहुत तीव्र वेग से घूमता रहता है । उसका एक परिवलन केवल १० घंटे में पूरा होता है । गुरु के ६३ उपग्रह हैं परंतु दूरदर्शी द्वारा हम उसके केवल चार ही उपग्रहों को देख सकते हैं ।
शनि:
गुरु के बाद का ग्रह शनि है । शनि वास्तव में एक विशिष्ट ग्रह है । उसके चारों ओर वलय (छल्ला) होता है । यह हमें निरी आँखों से दिखाई नहीं देता । इस ग्रह की एक अन्य विशेषता उसका घनत्व है । इसका धनत्व पानी के घनत्व से कम है । ऐसा मानो कि यह विशाल ग्रह अपने जैसे ही किसी विशाल समुद्र में तैर रहा है ।
यूरेनस तथा नेपच्यून:
ये दोनों सौरमंडल के बाहरी सिरे के ग्रह हैं । इसलिए इन्हें बिना दूरदर्शी के देख पाना संभव नहीं है । शुक्र ग्रह की तरह यूरेनस भी पूर्व से पश्चिम की ओर अपने परित: परिवलन करता है । इसके अतिरिक्त इसका परिवलन अक्ष पर्याप्त झुका हुआ है । इसलिए सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करते समय यह गेंद की तरह लुढ़कता हुआ दिखाई देता है ।
लघुग्रह:
बाह्यग्रह मंगल तथा गुरु के बीच की दूरी बहुत अधिक है । इनके मध्य कई छोटे-छोटे खगोलीय अवशेष घूमते हुए दिखाई देते हैं । इन्हें ‘लघुग्रह’ कहते हैं । ये इतने छोटे होते हैं कि, केवल दूरदर्शी द्वारा ही देखे जा सकते हैं ।
धूमकेतु:
घूमकेतू भी एक खगोलीय पिंड है । यह सूर्य के परित: दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में घूमता रहता है । इसका परिभ्रमण काल बहुत अधिक होता है । धूमकेतु के शीर्ष पर एक चमकदार गोला होता है, जिसकी एक लंबी पूंछ होती है ।
यह पूंछ सूर्य की विपरीत दिशा में होती है । जैसे-जैसे धूमकेतु सूर्य के समीप जाता है, वैसे-वैसे यह पूंछ बड़ी होती जाती है । हैली नामक धूमकेतु ७६ वर्षो में एक बार दिखाई देता है । ऐसी आशा है कि वह अब २०६२ ई॰ में दिखाई देगा ।
उल्का:
जब कोई खगोलीय पिंड पृथ्वी के समीप आता है, तो पृथ्वी उसे अपनी ओर खींच लेती है । ऐसी दशा में वह पिंड अत्यधिक वेग से पृथ्वी के वायुमंडल में से होकर नीचे आता है । नीचे आते समय वायुमंडल के घटकों से घर्षण होने के कारण तापमान बढ़ता है और वह पिंड प्रज्वलित होता है । यही उल्का है । तारों के टूटने का अर्थ उल्कापात ही होता है ।
कृत्रिम उपग्रह:
मानव के कल्याण तथा उत्कर्ष के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की कक्षा में कई उपग्रहों का प्रमोचन किया है । ऐसे उपग्रहों को मानवनिर्मित अथवा कृत्रिम उपग्रह कहते हैं । ये उपग्रह चंद्रमा की अपेक्षा कम दूरी पर पृथ्वी के परित: परिभ्रमण करते है ।
भारत का प्रथम उपग्रह आर्यभट्ट १९ अप्रैल १९७५ को प्रमोचित किया गया था । उसके बाद इनसैट आय आर एस, कल्पना-१, एजूसैट, भास्कर आदि उपग्रहों को हमारे देश ने अंतरिक्ष में प्रमोचित किया है । भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में बहुत बड़ी मंजिल पर कर ली है । अधिक क्या कहें, हमने तो अन्य और दस उपग्रह भी एक ही समय में अंतरिक्ष में प्रमोचित किए हैं ।
‘इसरो’ (ISRO) नामक संस्थान द्वारा उपग्रह प्रमोचित किए जाते हैं । ये उपग्रह पृथ्वी के पृष्ठभाग पर स्थित विभिन्न स्थानों की जानकारी हम तक पहुँचाते रहते हैं । जैसे विश्व के किसी भी कोने में होनेवाली क्रिकेट स्पर्धा को हम उसी समय घर बैठे-बैठे टी॰बी॰ सेट पर देख सकते हैं । कृत्रिम उपग्रह हमारे लिए विभिन्न प्रकार से उपयोगी है ।
उनमें से कुछ उपयोग निम्नलिखित हैं:
(i) पृथ्वी पर से अंतरिक्ष में संपर्क साधना, संदेश का लेन-देन बना ।
(ii) जलवायु का अनुमान लगाना ।
(iii) दूरसंचार, रेडियो तथा दूरदर्शन का प्रक्षेपण करना ।
(iv) अंतीरक्ष से संबंधित शोध में सहायता करना ।
(v) शैक्षणिक कार्यक्रमों का संचालन करना ।
(vi) निर्दोष एवं अचूक भौगोलिक मानचित्र तैयार करना ।
अंतरिक्ष में अंतरिक्ष यात्रियों का भोजन :
अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में बहुत दिनों तक रहना पड़ता है । इसके अतिरिक्त हम में से बहुत से लोगों के लिए यह कौतूहल का विषय है कि, भारहीन अवस्था में वे कैसे खाते होंगे । अंतरिक्ष यात्री हमारी तरह ही ठोस तथा द्रव अंवस्थावाले भोजन ग्रहण कर सकते हैं । उनका भोजन पैकेट में संवेष्टित किया रहता है, जिससे अंतरिक्ष यात्री इसे आसानी से खा सकें । इस भोजन द्वारा उन्हें भोजन के सभी आवश्यक घटक तथा जीवनसत्व मिल सकते हैं ।