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Read this article to learn about decay of the soil in Hindi language.
चट्टानों का स्वरूप सदैव एक जैसा नहीं रहता । उसमें निरंतर परिवर्तन होता रहता है । यह परिवर्तन अपक्षय और अपक्षरण प्रक्रियाओं दवारा होता रहता है । ये प्रक्रियाएँ मुख्यत: संबधित प्रदेशों की जलवायु पर निर्भर होती है ।
ये प्रक्रियाएँ पृथ्वी के भूपृष्ठ पर कार्य करती हैं । इसलिए इन प्रक्रियाओं को बाह्य प्रक्रियाएँ कहते हैं । इस प्रकरण में हम देखेंगे कि अपक्षय प्रक्रिया के कारण चट्टानों का विघटन कैसे होता है और किस तरह उससे मृदा तैयार होती है ।
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अपक्षय:
भूपृष्ठ की चट्टानों पर जलवायु का प्रभाव पड़ने से वे टूटती हैं तथा उनका चूर्ण बन जाता है अर्थात चट्टानों के कणों का पृथक्करण होता है । चट्टानों का कुछ अंश जल में धुल जाने से अथवा हवा की नमी से चट्टानों में स्थित खनिजों पर रासायनिक प्रक्रिया होने से चट्टानें छीज जाती है और कालांतर में वे टूट जाती हैं अर्थात चट्टानों का विघटन हो जाता है । इस तरह मूल चट्टानों का पृथक्करण अथवा बिघटन होने की प्रक्रिया को अपक्षय कहते हैं । अपक्षय प्रक्रिया चट्टानों के गुणधर्म पर भी निर्भर होती है ।
अपक्षय प्रक्रिया की तीब्रता चट्टानों में पाए जानेवाले मिन्न-भिन्न खनिजों, चट्टानों की अखंडता, सच्छिद्रता और उनके जोड़ों पर निर्भर होती है । इसी भांति इस प्रक्रिया पर जलवायु का प्रभाव भी बहुत बड़ी मात्रा में होता है । अपक्षय प्रक्रिया के दो प्रमुख प्रकार-भौतिक और रासायनिक हैं । भौतिक प्रक्रिया में मुख्यत: चट्टानों का पृथक्करण होता है तो रासायनिक प्रक्रिया से चट्टानों का विघटन होता है ।
भौतिक अपक्षय:
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संपूर्ण दिन में बढ़ते तापमान का चट्टानों के खनिजों पर प्रभाव पड़ता है । इससे चट्टानों में निहित खनिजों का प्रसरण होता है और रात में तापमान कम होने से वे सिकुड़ जाते हैं । यह क्रिया निरंतर घटित होने से चट्टानों में तनाव निर्माण होकर कण अलग हो जाते हैं और चट्टानें टूट जाती हैं । आकृति ८.१ देखो ।
चट्टान के भागों का पृथक्करण होने को भौतिक अपक्षय कहते हैं । अधिक दैनिक तापमान कक्षावाले उष्ण मरुस्थ्यलीय प्रदेशों में यह प्रक्रिया तीब्र गति से होती है और कई बार चट्टानों के टूटते समय बड़े विस्फोट भी होते हैं ।
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बरसाती पानी चट्टानों की दरारों में से रिसता है । जिस प्रदेश में कुछ समय के लिए तापमान शून्य अंश सेल्सियस से कम होता है, उस प्रदेश में चट्टानों में रिसे हुए अथवा दरारों में रिसे हुए जल का रूपांतर वर्फ में हो जाता है । वर्फ पानी से अधिक जगह व्याप्त करती है । यह जगह प्राप्त करने के लिए चट्टानों में दबाव निर्मित होता है और उनका पृथक्करण होता है । आकृति ८.२ देखो ।
कई चट्टानों में तापमान, चट्टानों में रिसे हुए जल और नमी के कारण चट्टानों की भिन्न-भिन्न परतों में सिकुड़ने और फैलने की क्रिया न्यूनाधिक तीव्रता से होती जाती है । इससे चट्टानों की बाह्य परत की पपड़ियाँ अलग होती जाती है । इस तरह होनेवाले अपक्षय को अपपर्णन कहते हैं ।
रासायनिक अपक्षय:
चट्टानों में स्थित खनिजों का विघटन होना ही रासायनिक अपक्षय है । रासायनिक प्रक्रिया जल के माध्यम से होती है । अत: अधिक वर्षावाले प्रदेश में रासायनिक अपक्षय की प्रक्रिया शीघ्रगति से होती है । उसकी तुलना में अति उष्ण और शुष्क जलवायु तथा हिमाच्छादित प्रदेशों में रासायनिक अपक्षय कम मात्रा में होता है ।
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रासायनिक अपक्षय की प्रक्रिया चट्टानों के गुणधर्मों पर भी निर्भर रहती है । चट्टानों में पाए जानेवाले कुछ खनिजों की जल के साथ रासायनिक प्रक्रिया होकर उनमें परिवर्तन होता है अर्थात चट्टानों का विघटन होता है और चट्टानों के गुणधर्मों परिवर्तित होते हैं । उदा., कार्बनडाइ-आक्साइड गैस और जल के संयोग से सौम्य कार्बाम्ल तैयार होता है ।
इस कार्बाम्ल में चूने के पत्थर में स्थित कैल्शियम कारबोनेट जैसे क्षार सरलता से घुल जाते हैं और चट्टानों का विघटन होता है । चट्टानों में पाए जानेवाले लौह खनिज पर जल अथवा हवा में स्थित वाष्प की रासायनिक प्रक्रिया घटित होती है । इससे लोहे में जंग लग जाता है ओर लौहयुक्त चट्टानों का विघटन होता है ।
जैविक अपक्षय:
पेड़ों की जड़ें चट्टानों की दरारों में बढ़ती हैं । इन बढ़ती जड़ों का दबाव चट्टानों पर पड़ने से दरारें चौड़ी हो जाती हैं । इसी भांति अनेक प्राणी, कीट भूमि खोदकर उसमें बिल और ढूहों का निर्माण करते हैं । मनुष्य भी अपक्षय प्रक्रिया का कारण बनता रहता है ।
यातायात के मार्ग तैयार करते समय, कुआँ खोदते समय, खदान में से खनिज निकालते समय विस्फोटकों का उपयोग किया जाता है । इससे भी चट्टानों का अपक्षय होता है । वनस्पति, मानव, प्राणी आदि से होनेवाले अपक्षय को जैविक अपक्षय कहते हैं । आकृति ८.४ देखो ।
मृदा और उसके प्रकार:
चट्टानों के अपक्षय से निर्मित और जैविक घटकों से युक्त भूपटल की ऊपरी परत को मृदा करते हैं । मृदा महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है । वनस्पति के पोषण के लिए मृदा आवश्यक माध्यम है । मृदा में पाए जानेवाले खनिजों और सेंद्रिय पदार्थों में प्रदेश के अनुसार अंतर पाया जाता है ।
मृदा की गहराई, उपजाऊपन, जल निकास की क्षमता मृदा के महत्वपूर्ण गुणधर्म हैं । इन गुणधर्मों पर वनस्पति की वृद्धि निर्भर करती है । जलवायु, चट्टानों का स्वरूप, प्राकृतिक वनस्पतियों का आवरण, सेंद्रिय पदार्थ, भूमि की ढलान और निर्मिति की कालावधि जैसे घटकों पर मृदा की निर्मिति और उसके प्रकार निर्भर होते हैं ।
भूपृष्ठ से गहराई तक; जहाँ कठोर चट्टान होती है, मृदा का विच्छेद देखें तो उसमें भिन्न-भिन्न परतें दिखाई देंगी । एकदम ऊपर की परत में पेड़ की पत्तियाँ-कूड़ा, वनस्पतियों की जड़ें दिखाई देती हैं । उसके नीचेवाली परत में आधे अथवा पूरी तरह सड़े हुए जैविक पदार्थ दिखाई देते हैं ।
उसकी निचली परत में मूल चट्टान के छोटे-बड़े पत्थर होते हैं । एकदम निचली परत में अपक्षयरहित मूल चट्टानें होती हैं । ऐसी विभिन्न परतों से युक्त मृदाओं को परिपक्व मृदा कहते हैं । उनकी निर्मिति में बहुत समय लगता है । आकृति ८.५ देखो ।
पर्वत के तलहटी क्षेत्र में संचित पदार्थ निरंतर बहते रहते हैं । अत: मृदा निर्मिति के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध नहीं होता है । इसी भांति नदियों के मैदानों में निरंतर काँप की नई मिट्टी आने से भी मृदा निर्मित के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता । फलत: मृदा में रंध्र निर्माण नहीं हो पाते । ऐसी मृदा को अपरिपक्व या बाल्यावस्था की मृदा कहते हैं ।
मृदा के प्रकार:
गुणधर्म और निर्मिति प्रक्रिया के अनुसार मृदा के तीन प्रकार किए जाते हैं :
(i) प्रादेशिक मृदा:
इस मृदा की निर्मिति में जलवायु का अधिक प्रभाव रहता है । यद्यपि प्रदेश की चट्टानों के प्रकारों में विविधता पाई जाती है फिर भी विशिष्ट प्रकार की मृदा तैयार होती है । प्रादेशिक मृदा के प्रदेश प्राय: अक्षांशों के समांतर होते हैं । आकृति ८.५ देखो । शीत कटिबंध की चट्टानों में वैविध्य होते हुए भी टुंड्रा मृदा बनी हुई दिखाई देती है । इस आकृति का और साथवाली तालिका का संयुक्त रूप में अध्ययन करो और प्रादेशिक मृदाओं का वितरण समझो ।
(ii) अंतर्प्रदेशीय मृदा:
शुष्क जलवायु के प्रदेश में चट्टानों के प्रकारों के अनुसार स्थानीय स्तर पर वैशिष्ट्यपूर्ण मृदा की निर्मिति होती है । महाराष्ट्र के बेसाल्ट चट्टान पर तैयार हुई मृदा और द. भारत की ग्रेनाइट तथा नीस चट्टानों पर तैयार होनेवाली ताम्रवर्णी मृदा अंतर्प्रदेशीय मृदाओं के उदाहरण हैं ।
जिन मृदाओं में जल की निकासी नहीं होती; वह मृदा जलसंपृक्त बन बाती है । ऐसे प्रदेश में वनस्पतिजन्य पीट मृदा की निर्मिति होती है । कश्मीर घाटी अथवा उदगमंडल में पाई जानेवाली मृदा का इस प्रकार में समावेश होता है । अंतर्प्रदेशीय मृदा स्थानीय स्तर पर तैयार होने के कारण कम क्षेत्र में पाई जाती है । इसलिए प्राय: उसका वितरण वैश्विक मानचित्र में दिखाया नहीं जाता ।
(iii) अप्रादेशिक मृदा:
पर्वतीय प्रदेश में अपक्षय से निर्मित होनेवाली चट्टानों के छोटे-छोटे कणों से इस प्रकार की मृदा का निर्माण होता है । विविध कारणों से चट्टानों के कण ढलान की दिशा में निरंतर बहते जाते हैं । इसलिए मृदा निर्मिति के लिए आवश्यक समय नहीं मिलता । अत: वे अपरिपक्व रहती हैं । उदा., हिमालय पर्वत की ढलान की मृदा । नदियों के मैदानों में विशेषत: बाढ़वाले मैदानों में प्रतिवर्ष नई काँप की मिट्टी संचित होती रहती है ।
यहाँ मृदा की निर्मिति प्रक्रिया को समय कम मिलता है । इसलिए यह मृदा सदैव अपरिपक्व रहती है । नदियों के मैदानी क्षेत्र में काँप की मिट्टी और जल उपलब्ध होने के कारण कृषि भूमि उपजाऊ बनती है परंतु मृदा अपीरपक्व रह जाती है । आकृति ८.५ में पर्वतीय मृदा दिखाई गई है इसके आधार पर ढूँढ़ो कि ये प्रदेश किन बड़े पर्वतों के निकट हैं ।