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Read this article in Hindi to learn about the top ten Russian scholars and their contribution to geography.
1. एम. वी. लोमोनोसोव (MV Lomonosova, 1711-1765):
वह रूसी भू-विज्ञान का जन्मदाता माना जाता है । वह विश्व का प्रथम भू-आकृति वैज्ञानिक (Geomorphologist) था । जर्मनी में शिक्षा प्राप्त करने के कारण उस पर जर्मन भूगोलवेत्ताओं का गहरा प्रभाव पड़ा था । 1755 में उसने मास्को स्टेट विश्वविद्यालय की स्थापना की ।
1758 में रूसी विज्ञान अकादमी के अन्तगर्त स्थापित भूगोल विभाग के प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए । उनको सोवियत रूस के चिरसम्मत काल का विद्वान माना जाता है । उनके विचारों का अनुसरण जर्मन विद्वान हम्बोल्ट ने किया जिसका जन्म इनकी मृत्यु के बाद हुआ था ।
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उसकी भौगोलिक देन को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है:
i. उसने भौगोलिक अध्ययन के लिए क्षेत्रीय सर्वेक्षण व यात्राओं पर जोर दिया । वह प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर ही किसी स्थान का वर्णन करने पर जोर देता था । उसने स्वंय भी ओज यात्राएँ की ।
ii. 1763 में ‘On the Strata of the Earth’ नामक पुस्तक का प्रकाशनकराया । इसके साथ-साथ आर्कटिक अन्वेषण (Arctic Exploration) का भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत किया ।
iii. भौतिक भूगोल पर उसके विचार अत्यन्त उपयोगी थे । उसने बताया कि भू-आकृतियों के निर्माण में बाह्य एवं आन्तरिक दोनों शक्तियों का सम्मिलित योगदान होता है । बाह्य शक्तियाँ अपक्षय व अपरदन के लिए जिम्मेदार होती है, जबकि आंतरिक शक्तियाँ दबाब व ताप के कारण अपना प्रभाव दिखाती है ।
iv. पृथ्वी तल पर होने वाली घटनाएं व उनके स्वरूप परिवर्तन में क्रियाशील प्रक्रियाएं सार्वभौमिक (Universal) होती है ।
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v. उसने प्राकृतिक घटनाओं में कार्य-कारण सम्बन्ध (Casual Relations) की विवेचना को भौगोलिक ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण बताया ।
vi. उसका कहना था कि कोई भी भूदृश्य एक लम्बे समय में घटित होने वाली घटनाओं का परिणाम होता है । हिम पर्वतों की उत्पत्ति के बारे में बताते हुए स्पष्ट किया कि हिम प्लावों (Ice Berge’s) की उत्पत्ति स्थल पर होती है । आंतरिक शक्तियों का प्रभाव थल क्षेत्रों पर अधिक होता है ।
vii. भूगोल के अध्ययन को उपयोगी बताया, तथा यह निर्धारित किया कि भूगोल मानव समस्याओं के हल में विशेष भूमिका निभा सकता है । उसने व्यवहारिक भूगोल को भी विकसित किया । भूगोल प्राकृतिक तत्वों में विभिन्नता स्थापित करता है, तथा उनके परिवर्तनशील स्वरूप का विशलेषण करता है ।
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viii. उसने मानचित्रकला, आर्थिक भूगोल, प्राकृतिक वातावरण व संसाधन के अध्ययनों पर जोर दिया । उसने रूस की मानचित्रावली भी तैयार कराई ।
2. के.आई. अरसीन्येव (K. I. Arsenyev, 1789-1865):
वह हम्बोल्ट व रिटर का समकालीन था । उसने इम्पीरियल रूसी भौगोलिक परिषद की स्थापना भौगोलिक अध्ययनों के उद्देश्य से की ।
उसके द्वारा दिए गए विचार इस प्रकार हैं:
i. प्रोदशिक भूगोल के अध्ययन पर जोर दिया । उसने यूरोपीय रूस को 15 विभिन्न राज्यों में बांटा । प्रादेशिक आधार पर कृषकों की जीवन दशा व आर्थिक क्रियाओं का वर्णन प्रस्तुत किया ।
ii. नगरीय भूगोल का अध्ययन किया । नगरों का कार्यों के आधार पर वर्गीकरण प्रस्तुत किया ।
iii. उसने प्रमुख रूप से दो पुस्तकों की रचना की- एक-लघु विश्व भूगोल 1818 में, तथा दूसरी-रूसी नगरों का ऐतिहासिक भूगोल 1832 में प्रकाशित कराई । लघु विश्व भूगोल में प्रदेशो के आधार पर भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत किया और 1848 तक इसके बीस संस्करण प्रकाशित हुए ।
iv. रूस के आर्थिक प्रदेशों का सीमांकन किया ।
3. पी.पी. सेमोनोव (P.P. Semonov, 1827-1914):
सेमोनोव की शिक्षा जर्मनी में होने के कारण उस पर जर्मन विद्वानों विशेष रूप से रिटर का प्रभाव पड़ा था । उसके विचार भूगोल विषय में खोज यात्राओं को महत्व देते है । उसने भूगोल की सेवा सेंटपीटर्सवर्ग की भौगोलिक परिषद के निर्देशक पद पर रहते हुए की ।
उसके प्रकाशन व विचार इस प्रकार हैं:
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i. प्रकाशन-प्रमुख रचना ‘रूसी साम्राज्य की भौगोलिक एवं सांख्यिकीय शब्द कोष’ है । इसमें रूस की प्राकृतिक दशा ऐतिहासिक व आर्थिक तत्वों का वर्णन किया गया । 1817 में उसने रूसी अधिवास का ऐतिहासिक भूगोल पुस्तक का प्रकाशन कराया ।
ii. वह प्रादेशिक भूगोल का समर्थक था । रूस की विशालता के कारण जो भौतिक विभिन्नताएं थी, उनका अध्ययन प्रदेश स्तर पर किया जाना सम्भव बताया ।
iii. उसने अनेक क्षेत्रों की खोज यात्राएँ की । इनमें जुंगेरियन बेसिन, समीपवर्ती मध्य एशियाई पर्वत श्रेणियां अल्टाई, टिएनशान, कैस्पियन सागर के पूर्व में स्थित तुर्किस्तान मरूस्थलीय क्षेत्र शामिल है । उसकी यात्राएँ साहसिक थी, व दुर्गम क्षेत्रों से जुड़ी थी ।
iv. भूगोल को पिछड़े ग्रामीणों व किसानों की गरीबी दूर करने का माध्यम माना । इस प्रकार भूगोल को व्यवहारिक विषय के रूप में विकसित किया ।
4. ए.आई. वाइकोव (A.I. Voeikov, 1842-1916):
वाइकोव की भी शिक्षा जर्मनी के विश्वविद्यालयों में हुई थी । 1864 में वह सैण्टपीटर्सवर्ग में भूगोल का शिक्षक बना बाद में वह यहां प्रोफेसर बन गया । वह महान यात्री, जलवायु विशेषज्ञ था । उसके विचारों ने रूस की कृषि में क्रांतिकारी परिवर्तन किए ।
उसकी भौगोलिक देन इस प्रकार रखी जा सकती है:
I. रचित ग्रन्थ:
(i) सर्वप्रथम उसने 1886 में जेम्स काफेन की पुस्तक ‘ग्लोव की पवनों’ का समीक्षात्मक लेख लिखा ।
(ii) 1887 में विश्व की जलवायु पुस्तक की रचना की, 1887 में जर्मन भाषा में अनुवाद कराया ।
(iii) 1906 में ‘पृथ्वी पर जनसंख्या का वितरण’ पुस्तक लिखी, जिसमें जनसंख्या के वितरण पर प्राकृतिक दशाओं के प्रभाव का आंकलन प्रस्तुत किया ।
(iv) 1909 में रूस में ग्रामीण जनसंख्या के समूहन पर एक लेख लिखा ।
(v) 1914 में रूसी तुर्किस्तान पुस्तक में वातावरण व मानव क्रियाओं के मध्य पारस्परिक सम्बन्धों का विशलेषण प्रस्तुत किया ।
II. जलवायु सम्बन्धी तत्वों के प्रभाव का अध्ययन किया । उसने रूस की कृषि पर जलवायु के विभिन्न तत्वों वर्षा, तापमान, हिमाच्छादन के प्रभाव को आँकने का प्रयास किया । उसने बताया कि रूस में कृषि फसलों के उत्पादन के लिए कौन सा समय अनुकूल होगा । उसने ग्रीष्म कालीन फसलों के उत्पादन पर हिम के आवरण का प्रभाव आंकने का प्रयास किया । उसने काला सागर के पूरब में स्थित जार्जिया में चाय, रूसी तुर्किस्तान में कपास तथा यूक्रेन में गेहूँ की खेती के उत्पादन किए जाने पर जोर दिया ।
III. हिम की गहराई मापने की विधि प्रतिपादित की । इसी कारण उसे हिम विज्ञान (Snow Science) का जन्मदाता माना जाता है ।
IV. उसने एशिया तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में अनेक नये क्षेत्रों की खोज यात्राएँ की ।
V. उसने मानव और वातावरण के बीच सम्बन्धों का भी अध्ययन किया । उसने देखा कि किस प्रकार मानव ने प्रकृति का शोषण किया है । रूस के स्टेपी प्रदेश में अनियत्रिंत पशुचारण के कारण भूमि का कटाव होना, उत्तर में टैगा वनों के काटे जाने का जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ना, आदि के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट किया ।
VI. उसने कृषि के विकास के लिए सिंचाई सुविधाओं के विस्तार को आवश्यक बताया विशेष रूप से शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि उत्पादन बढ़ाने का यही एक प्रमुख उपाय
5. पी॰पी॰ क्रोपोटकिन (P.P. Kropotkin, 1842-1902):
उसका जन्म राजघराने में हुआ था । उसकी शिक्षा सैन्य विद्यालय में हुई थी । वह रूसी क्रांति का सक्रिय सदस्य था । जर्मन भूगोलवेत्ता हेटनर का समकालीन था । उसने जार शासक के सहायक के रूप में कार्य किया, लेकिन बाद में उसका इस शासक से मतभेद हो गया ।
जब वह रूस के साईबेरिया क्षेत्र में गया, तो उसने कृषक समुदाय को अनेक संघर्ष करते हुए देखा । यह किसान प्रकृति की मार से तो प्रभावित थे, लेकिन साथ-साथ शासन भी उनकी जीवन दशा सुधारने में कोई सहायता नहीं कर रहा था । इस प्रकार की सामाजिक समस्याओं को उसने लोगों के सामने रखा व उनका भौगोलिक अध्ययन किया ।
1872 में जब वह जुरा पर्वत की यात्रा पर गया, जो उस समय यह अराजक गतिविधियों का केन्द्र था तो उसने भी इन गतिविधियों में भाग लिया, जिसके कारण जार शासन ने उसको देश से निष्काषित कर दिया, और उसको फ्रांस की जेल भेज दिया ।
1886 में जेल से छूटने के बाद वह इंगलैण्ड चला गया, जहाँ वह रूस में 1917 में वोलशेविक क्रांति होने तक रहा उसके बाद वह अपने देश वापस लौटा । फ्रांस की जेल में रहते हुए उसने भूगोल विषय पर एक पुस्तक लिखी तथा लन्दन में रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी की सेवा की ।
इस दौरान उसने भूगोल के लिए निम्न कार्य किए:
I. भौगोलिक रचनाएँ:
यह इस प्रकार हैं:
भूगोल को क्या होना चाहिए (What Geography Ought to be (1885) भूआकृति का अध्ययन (1893) खेत, फैक्ट्री एवं कार्यशाला (1898) पारस्परिक सहायता (Mutual Aid) जैविक उद्भव का एक तत्व (1902) अराजकतावाद व क्रांति पर एक लेख, राज्य एवं इसका ऐतिहासिक उत्तरदायित्व ।
II. भूगोल एक सामाजिक पारिस्थितिकी विज्ञान है । यह मानव समुदाय में मेल-जोल की भावना बढ़ाना सिखाता है । वह मानव के कल्याण के लिए कार्य करता है । का उद्देश्य विद्यार्थियों में प्राकृतिक तत्वों के अध्ययन में रूचि जाग्रत करना है ।
III. प्रकृति जैविक व ऐतिहासिक है । यह स्वनिर्मित है । उसने मानव व जीव जन्तुओं के परस्पर सहयोग की भावना पर जोर दिया । जिस प्रकार प्रकृति जीव जन्तुओं को प्रभावित करती है, उसी प्रकार मानव भी प्रभावित होता है । मानव प्रकृति में अपवाद नहीं है । प्रकृति का संरक्षण करना भी मानव का कर्तव्य है ।
IV. वह मानव समाज का उसकी क्षमता के अनुसार विकास करने का पक्षधर था । वह समाजवाद व साम्यवाद का समर्थक था । वह विविधता में एकता का समर्थक था ।
6. डी. एन. अनुचिन (D.N. Anuchin, 1843-1923):
वह मानव भूगोलवेत्ता था । 1887 में उसने मास्को स्टेट विश्वविद्यालय में भूगोल एवं मानवशास्त्र विभाग की स्थापना की । 1919 में अलग से भूगोल विभाग की स्थापना की । उन्होंने मानव एवं भूमि के सम्बन्धों का विशलेषण रूसी मैदान के भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन के संदर्भ में किया । 1928 में सोवियत जनगणना पर एक लेख Geographical Review पत्रिका में प्रकाशित कराया । 1899-1914 की अवधि में मध्य रूस के प्रादेशिक भूगोल पर 19 अंकों मे एक पुस्तक प्रकाशित की ।
7. वी.वी. डोकुचायेव (V.V. Dokuchaiev, 1846-1903):
वह मृदाशास्त्री था । 1883 में उसे रूस की शरनोजम मिट्टी पर अपना शोधग्रन्थ प्रस्तुत किया । 1885 में उसकी नियुक्ति सेण्टपीटर्स विश्वविद्यालय में भूगोल के प्रोफेसर पद पर हो गई । 1864 से 1873 के मध्य उसने रूस की विज्ञान अकादमी के भूगोल संस्थान में आर्थिक भूगोल के अध्यक्ष पद पर कार्य किया ।
उसके द्वारा प्रतिपादित विचार इस प्रकार हैं:
I. मिट्टियों का निर्माण व वर्गीकरण:
उसने बताया कि मिट्टियों में भिन्नता केवल मूल चट्टानों की भिन्नता का परिणाम नहीं है, जिनसे उनको निर्माण सामग्री मिली है, बल्कि यह भिन्नता अनेक बाह्य शक्तियों का परिणाम होती है । मिट्टी की रचना में वर्षा जल का प्रभाव महत्वपूर्ण होता है ।
इस जल में अनेक खनिज तत्व पुल जाते है, जो अलग-अलग प्रकार की मिट्टियों को जन्म देते हैं । स्पष्ट है कि मिट्टियों के प्रकार बनाने में विभिन्न खनिज तत्वों का योग होता है । उसने बताया कि मिट्टी की रचना जलवायु, वनस्पति, पशु एवं मिट्टी के मूल चट्टान (पदार्थ) के संशलेषण व उनकी अन्तर्प्रक्रिया से होता है ।
मिट्टियों के दो प्रकार प्रमुख है- एक तो वह जिनके निर्माण में मूल चट्टान का विशेष योग होता है । इसकी निर्माण अवधि कम होने के कारण जलवायु व वनस्पति का प्रभाव कम होता है। दूसरी, वह जिनके निर्माण में मूल चट्टान का प्रभाव कम हो जाता है । रूस की शरनोजम मिट्टी इसका उत्तम उदाहरण है ।
II. मानव व वातावरण:
मानव को वातावरण में परिवर्तन करने वाला प्रमुख कारक माना । मानव ने अपने प्रयासों से प्राकृतिक प्रदेशों को कृषि प्रदेशों में परिवर्तित किया है।
III. उसके द्वारा रचित पुस्तकें व लेख इस प्रकार है:
(i) सोवियत रूस की मिट्टियां
(ii) सोवियत रूस की वनस्पति
(iii) प्राकृतिक संसाधनों का आर्थिक मूल्याकंन ।
IV. उसने देश और काल की पेटियों (Zones in Space and Time) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था । उसने समन्वित प्राकृतिक समिश्रयों के कटिबंधीय वितरण का नियम (Law of the Zonal Distribution of Integrated Natural Complexes) का प्रतिपादन करते हुए बताया कि पृथ्वी पर प्रकृति के विभिन्न तत्व परस्पर सदैव प्रतिक्रियाएं करते रहते हैं, जिनके कारण प्राकृतिक घटनाओं का परिवर्तन समय व स्थान के अनुसार भिन्नता स्थापित करता है, और प्रकृति की विभित्र पेटियों के निर्माण में सहायक होता है, वास्तव में इसी के आधार पर भौतिक भूगोल की स्थापना हुई है ।
V. डोकुचायेव के मिट्टी सम्बन्धी विचारों को अमेरिका में पसन्द किया गया, क्योंकि अमेरिका में भी यूरोप की भांति विस्तृत मैदान पाए जाते है ।
रूसी क्रांति के पश्चात के प्रमुख भूगोलवेत्ता:
1917 की अकबर क्रांति के पश्चात रूस में भूगोल का काफी विकास हुआ है । लेनिन ने भूगोल विषय के महत्व को समझा, तथा इसको देश के विकास में उपयोगी माना । 1918 में रूस में विज्ञान अकादमी की स्थापना की गई, जिसके द्वारा भौगोलिक अध्ययन को बढ़ावा मिला । लेनिन ने अपने मित्र प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एन. निकोलोई बारान्सकी को इस कार्य के लिए प्रेरित किया ।
8. एन.एन. बारान्सकी (N.N Baranskiy, 1881-1963):
बारान्सकी सोवियत रूस में आर्थिक भूगोल का संस्थापक माना जाता है । उसने सोवियत क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लिया था । वह सफल राजनीतिज्ञ, क्रांतिकारी, अर्थशास्त्री एवं प्रतिबद्ध भूगोलवेत्ता था । 1921 में वह सवेर्दलोवस्क साम्यवादी विश्वविद्यालय में आर्थिक भूगोल का शिक्षक नियुक्त हुआ ।
बाद में उसे यहाँ का रेक्टर बना दिया गया । वह मास्को विश्वविद्यालय में अनेक बार व्याख्यान देने के लिए गया और उसने आर्थिक साम्यवादी भूगोल की वकालत की । लेनिन उसके विचारों से काफी प्रभावित था । उसने बारान्सकी को देश के आर्थिक विकास की योजना बनाने, विद्युत लाइनों का विस्तार के लिए भौगोलिक अध्ययन हेतु प्रेरित किया ।
उसकी भौगोलिक देन इस प्रकार हैं:
I. प्रमुख रचनाएँ:
(i) सोवियत संघ का आर्थिक भूगोल (1926),
(ii) अमेरिकी भूगोल की भूमिका (1957) ।
II. मानव एवं प्रकृति:
उसके अनुसार प्रकृति व मानव अलग-अलग नहीं है । यह एक दूसरे से सम्बन्धित है । प्रकृति का सामाजिक विकास पर प्रभाव, प्रकृति एवं मानव के बीच सम्बन्धों का एक पक्ष है । जबकि प्राकृतिक वातावरण की भिन्नता का आर्थिक उत्पादन की प्रक्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है, जो स्थानिक विभिन्नता के लिए उत्तरदायी है ।
III. आर्थिक भूगोल के अध्ययन को देश के विकास की योजनाएँ बनाने के लिए उपयोगी बताया । उसने आर्थिक भूगोल के प्रादेशिक उपागम (Regional Approach in Economic Geography) पर एक नई विचारधारा का प्रतिपादन किया । उसके द्वारा आर्थिक प्रदेशों का सीमांकन औद्योगिक उत्पादन क्षेत्रों के निर्धारण में सहायक सिद्ध हुआ ।
IV. उसने प्रकृति की अपेक्षा मानव को अधिक महत्व दिया । लेनिन ने यह भी स्वीकार किया कि प्रकृति एवं मानव दोनों का ही महत्व सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिदृश्यों के निर्माण में बराबर का होता है । वास्तव में प्रकृति और मानव एक दूसरे के पूरक है, और इनके मध्य अनन्योश्रित सम्बन्ध है ।
V. साम्यवाद की इस उक्ति ‘कि साम्यवाद ही विद्युतीकरण है’, को उसने ही चरितार्थ किया । उसने देश के आर्थिक विकास में विद्युत के महत्व का निर्धारण किया ।
9. एन. वी. (N.B. Kolosovskiy, 1891-1954):
वह बारान्सकी का शिष्य था । उसे सोवियत संघ में व्यवहारिक भूगोल के विकास का श्रेय जाता है । उन्होंने मास्को में स्थापित भूगोल के वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान (Scientific Research Institute in Geography) के अध्यक्ष पद पर कार्य किया । उन्होंने देश के विकास में भूगोल के महत्व को स्वीकार कराया ।
उसके विचार इस प्रकार हैं:
I. विभिन्न उद्योगों के स्थापन पर दिए गए विचार महत्वपूर्ण हैं । उसने कुजवास के कोयला क्षेत्र व यूराल के लौहा क्षेत्र के बीच सम्बन्ध स्थापित किए जाने पर जोर दिया । दोनों क्षेत्रों में लौहा व कोग्नरना का आदान प्रदान करके लौह-इस्पात उद्योग के स्थापन की, उसी ने सिफारिश की । यह औद्योगिक स्थापन न्यूनतम परिवहन व्यय की विचारधारा पर आधारित था । इसी विचारधारा का क्रियान्वन वर्तमाग् में सर्वत्र किया जाता है ।
II. उसने औद्योगिक उत्पादन की विशेषता के आधार पर आठ प्रादेशिक औद्योगिक उत्पादन सम्मिश्र प्रदेश (Industrial Production Combination Region) निर्धारित किए ।
III. 1953 में ‘भूगोल की वैज्ञानिक समस्याएँ’ पुस्तक का प्रकाशन कराया ।
IV. उसके विचार औद्योगिक स्थापन में भूगोल की व्यवहारिक उपयोगिता को सिद्ध करते हैं ।
10. आई.पी. गेरासिमोव (I P Gerasimov, 1905-1985):
उन्हें सोवियत संघ के वर्तमान भूगोलवेत्ताओं में सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है । उन्होंने विज्ञान अकादमी के तत्वाधान में स्थापित भौगोलिक संस्थान (Institute of Geography) के निर्देशक पद पर निरन्तर चालीस वर्षों तक कार्य किया । उन्होंने सोवियत संघ की विभिन्न भौगोलिक समितियों में कार्य तथा भूगोल की लगभग सभी शाखाओं पर अपने विचार व्यक्त किए, तथा शोध कार्यों को बढ़ावा दिया । 1972 से 1976 के वर्षों में वह अन्तर्राष्ट्रीय भौगोलिक कांग्रेस (International Geographical Union) के अध्यक्ष रहे । 1976 में इस कांग्रेस का अधिवेशन मास्को में आयोजित किया गया, जिसकी उन्होंने अध्यक्षता की ।
उनकी उपलब्धियों को इस प्रकार रखा जा सकता है:
I. प्रमुख रचनाएँ:
गेरासिमोव ने भौगोलिक शोध व उनके प्रकाशन में महत्वपूर्ण कार्य किया है उन्होंने लगभग 500 शोध पत्र (Research Papers) तथा 12 पुस्तकों का प्रकाशन कराया ।
जिनमें कुछ इस प्रकार हैं:
(i) सोवियत भूगोल: उपलब्धियाँ एवं कार्य (Soviet Geography : Accomplishments and Tasks) 1962 इस पुस्तक का सम्पादन भूगोलवेत्ताओं की राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित गोष्ठी के अवसर पर किया ।
(ii) भूगोल का भूत एवं भविष्य (1966)
(iii) सोवियत भौगोलिक विचारों का विकास (1968), इस पुस्तक में सोवियत संघ में पिछले 50 वर्षों में भूगोल के विभिन्न लेखों का प्रकाशन कराया ।
(iv) भूगोल एवं पारिस्थितिकी (1983)
II. उनके अनुसार भूगोल का अर्थ एवं उद्देश्य पर्यावरण की सुरक्षा संरक्षण एवं संवर्घन है । उसने पर्यावरण प्रदूषण को भूगोल के अध्ययन में शामिल किया ।
III. उन्होंने भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान, मृदा विज्ञान पर अपने विचार प्रस्तुत किए । भौतिक भूगोल, में जिन विषयों को शामिल किया, उनमें भौतिक भूगोल का विषय क्षेत्र, जलवायु विज्ञान, जल विज्ञान, हिम विज्ञान, भू-आकृति विज्ञान, मृदा विज्ञान व जैव विज्ञान प्रमुख है । इसे उन्होंने सोवियत रूस का भौतिक भूगोल बताया । इन सब विषयों का अध्ययन अपने देश से उदाहरण देते हुए किया ।
IV. उन्होंने भूगोल को उद्योगों की स्थापना व प्रादेशिक नियोजन के सहायक के रूप में स्थापित किया ।
V. उन्होंने देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में भूगोल विषय को स्नातकोत्तर स्तर पर स्थापित कराया तथा शोध कार्यों को बढ़ावा दिया ।
VI. भूगोल के क्षेत्र में भारतीय भूगोलवेत्ताओं के साथ कार्य करने को प्रेरित किया ।
VII. उन्होंने प्रदेशों के समन्वित विकास की अवधारणा को विकसित किया । प्रदेश में मानव अधिवास, वातावरण व आर्थिक व्यवस्था के समन्वयन पर जोर दिया ।
पिछले दशक में सोवियत संघ की राजनीतिक व आर्थिक विचारधारा में हुए परिवर्तनों का भूगोल की प्रवृत्तियों पर प्रभाव पड़ा है । इस देश ने भूगोल को एक व्यवहारिक व रचनात्मक विषय के रूप में स्वीकार किया है, उनके अनुसार भूगोल मानव कल्याणपरक विषय है ।
यह कृषि, उद्योग मानव बस्तियों के स्थापन व विकास पर व्यवहारिक संकल्पना प्रस्तुत करता है । इस विषय ने देश में विद्युत, परिवहन, सिंचाई, खनिज संसाधनों का समुचित ज्ञान एवं प्रयोग, मिट्टी की विशेषता की पहचान आदि पर महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए है । साम्यवादी शासकों ने भी भूगोल को देश के आर्थिक विकास के लिए उपयोगी विषय माना है ।