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Read this article in Hindi to learn about:- 1. क्रान्तिकारी भूगोल का अर्थ (Meaning of Radical Geography) 2. क्रान्तिकारी भूगोल का उदभव (Emergence of Radical Geography) 3. कारण (Causes) and Other Details.
Contents:
- क्रान्तिकारी भूगोल का अर्थ (Meaning of Radical Geography)
- क्रान्तिकारी भूगोल का उदभव (Evolution of Radical Geography)
- भौगोलिक चितंन में क्रान्तिकारी विचार के प्रमुख कारण (Causes of Radical Thinking in Geographical Thoughts)
- क्रांतिकारी भूगोल के उद्देश्य (Objectives of Radical Geography)
- क्रांतिकारी भूगोल की मान्यताएं (Assumptions of Radical Geography)
- क्रांतिकारी भूगोल की विचारधाराएँ (Ideologies of Radical Geography)
1. क्रान्तिकारी भूगोल का अर्थ (Meaning of Radical Geography):
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यह समकालीन मानव भूगोल की एक नवीनतम शाखा है, जो भूगोल में नवीन क्रान्ति का परिचायक है । इसको उग्र सुधारवाद, समाजवादी, अतिवाद का नाम भी दिया गया है । यह मानव कल्याणमुखी अवधारणा है । जब विश्व के कुछ भागों में पूंजीवादी एवं साम्राज्यवाद की व्यवस्था के खिलाफ लोगों में असंतोष भड़का, तब लोगों ने समस्याओं का आकलन एवं समाधान करने के लिए विवश किया ।
यह नया परिप्रेक्ष्य मार्क्सवादी विचारधारा की देन है, जो भूगोल में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए निश्चित सैद्धान्तिक आधार प्रस्तुत करता है, यह सम्पूर्णता में वास्तविकता की अन्तर्निहित विकास अवस्था (Integrated Comprehension Development) को विकसित करने का अवसर प्रदान करता है ।
यह भूगोल में द्वन्द विचारधारा का विरोधी है । यह अर्थव्यवस्था को दार्शनिक आधार प्रदान करता है। गरीब व अमीर के बीच बढ़ती खाई को मिटाने व अन्तर को कम करने की ओर संकेत करता है । यह ऐतिहासिक भौतिकवादी (Historical Materialistic) विश्लेषण पद्वति प्रस्तुत करता है । यह भूगोल स्वयं में बदलाव का सूचक है । यह बदलाव के स्वभाव को बताता है, जो मानव समाज के हित में किया जाना चाहिए ।
भारतीय दर्शन का मूल मन्त्र व चिन्तन सदैव मानवतावाद से प्रभावित रहा है । उसने सदैव जैविक समाज के प्रत्येक अंग के कल्याण की बात की है । यही भावना क्रान्तिकारी भूगोल की है । यद्यपि इस विचारधारा को विकसित करने का श्रेय पश्चिमी देशों को जाता है, लेकिन इसके अनुपालन में यह देश काफी पीछे हैं । यह मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव की देन है।
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2. क्रान्तिकारी भूगोल का उदभव (Evolution of Radical Geography):
इस भूगोल की नींव 1969 में अमरीका की एक भौगोलिक शोध पत्रिका ‘Antipode’ में प्रकाशित लेख से पड़ी । इस पत्रिका के सम्पादक विसमर (Wismer) ने प्रथम अंक में लिखा कि भूगोल को सामाजिक मूल्यों (Social Values) से जोड़ना आवश्यक है ।
इस अंक में हार्वे (Harvey) ने ‘Explanation in Geography’ लेख में बताया कि क्रांतिकारी भूगोल राजनीतिक व सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्त्ता (Agent) के रूप में कार्य करता है । भूगोल, एक ओर जहाँ सैद्धान्तिक विचारधारा प्रस्तुत करता है, वहीं दूसरी ओर व्यवहारिक (Applied) पहलुओं से भी अपना सम्बन्ध रखता है । यह सामाजिक परिवर्तन में सक्रिय भूमिका का निर्वाहन करता है ।
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सोवियत संघ के भूगोलवेत्ताओं के भौगोलिक चिंतन का अध्ययन करने से पता लगता है कि इस देश में भूगोल को मानव कल्याण के उपयोगी विषय के रूप माना गया । यहाँ पी॰ क्रोपोटकिन विद्वान ने 1921 में समाजवादी भूगोल की नींव रखी । उसने साइबेरिया के कृषक समुदाय के जीवन एवं समस्याओं का गहन अध्ययन किया ।
तथा भूगोल को इन समस्याओं के हल करने वाला विषय बताया । उनके यह विचार 1970 में अंग्रेजी भाषा में अनुवाद के रूप में सामने आए, तब लोगों ने भूगोल में उनकी बात को स्वीकार करते हुए उसे आगे विकसित किया । 1971 में पीट (Peet) ने एक लेख ‘Poor, Hungry America’ अमेरिका की भूगोल पत्रिका ‘The Professional Geographer’ में प्रकाशित कराया ।
इसका उद्देश्य समाज में बढ़ती हुई आर्थिक असमानता पर लोगों का ध्यान आकर्षित करना था । उसने आगे बताया है कि यह आर्थिक असमानता समाज में अपराधों को जन्म देती है । भूगोलवेता इन आर्थिक समानताओं के कारणों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण विचार व्यक्त कर सकता है । 1977 में पीट महोदय ने एक पुस्तक ‘Radical Geography’ का सम्पादन किया, जिसमें बताया कि भूगोल मानव समस्याओं का हल करने के साथ-साथ उसके जीवन में सुधार लाने वाला विषय है । यह मानव कल्याण परक विषय है ।
3. भौगोलिक चितंन में क्रान्तिकारी विचार के प्रमुख कारण (Causes of Radical Thinking in Geographical Thoughts):
i. अमरीकी नगरों में गंदी बस्तियों का प्रादुर्भाव- गंदी बस्तियों में रहने वाले निर्धन लोगों का नारकीय जीवन बिताना, इससें लोगों तथा इसके विपरीत तथा नगर के अन्य भागों में लोगों का सुखी व सम्पन्नमय जीवन बिताना इस विषमता से लोगों में अंसतोष भड़का ।
भूगोलवेत्ता को इन लोगों की दयनीय दशा का अध्ययन करने व उनकी आर्थिक असमानता को दूर करने के उपाय देने का निर्देश हुआ । अमेरिका में विशेष रूप से नीग्रो लोगों की गंदी बस्तियों में सुधार को समाज की असमानताओं को दूर करने के लिए आवश्यक बताया ।
ii. देश के सबसे निर्धनतम एवं बेसहारा लोगों का अध्ययन भूगोलवेत्ता इस दृष्टि से कर सकता है कि एक क्षेत्र में पाये जाने वाले संसाधनों पर सम्पूर्ण समाज का समान अधिकार है । उदाहरणस्वरूप कोयला खनन में काम करने वाला मजदूर आर्थिक दृष्टि से उतना मजबूत होना चाहिए, जितना कोयला खान का मालिक या इंजीनियर ।
iii. समाज में बढ़ती हुई आर्थिक असमानताएँ।
iv. पर्यावरण का बढ़ता हुआ अवनयन ।
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v. समाज में द्वन्द व्यवस्था का उभरना, उदाहरणस्वरूप उत्पादन बनाम वितरण, साम्राज्यवाद बनाम समाजवाद, पूंजीपति बनाम श्रमिक, व्यक्ति बनाम समाज ।
vi. अमेरिका में भूमि उपयोग के नियमन की समस्या ।
उपरोक्त कथन इस बात की अभिव्यक्ति करते हैं कि क्रांतिकारी भूगोल का उद्भव सामाजिक दुर्दशा, सामाजिक-क्षेत्रीय असमानता को दूर करने की भावना से हुआ है । संसाधनों पर प्रत्येक व्यक्ति का समान अधिकार है ।
डी.एम.स्मिथ (D.M. Smith) के विचार:
इन्होंने 1977 में एक पुस्तक ‘मानव भूगोल: एक कल्याणपरक उपागम’ । प्रकाशित कराई, जिसमें बताया कि मानव कल्याण भी सम्भव है, जब मानव समस्याओं का निराकरण किया जाए । यह विषय मानव जीवन में सुधार लाता है। क्रातिकारी भूगोल का यही प्रमुख उद्देश्य है । यह मानव की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समस्याओं का निराकरण करता है ।
आर० पीट (R. Peet):
इन्होंने अपनी पुस्तक ‘Radical Geography’ में क्रांतिकारी भूगोल के विषय में मानव व समाज की निम्न समस्याओं को शामिल किया:
(i) प्रादेशिक असमानताएँ (Regional Inequalities)
(ii) मानव शोषण की समस्या (Problem of Human Exploitation)
(iii) प्रजातीय विभेद वर्ग संघर्ष (Radical Segregation and Group Clash)
(iv) युद्ध-ग्रस्त एवं अशांत क्षेत्र (Disturbed and Battle Fear Zone)
(v) सामाजिक अन्याय व अपराध की प्रवृत्ति (Social Injustice and Nature of Crime),
(vi) गरीबी व भुखमरी (Poverty and Hungriness),
(vii) प्राकृतिक व सामाजिक आपदाएं (Nature and Social Disasters),
(viii) अल्प विकसित (Under Development),
(ix) पर्यावरण अवनयन (Environmental Deterioration),
(x) साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद (Imperialism and Colonialism)
इन सभी समस्याओं का हल करने के लिए क्रांतिकारी भूगोल निम्न बातों से अपना सम्बन्ध रखता है:
(i) मानव जीवन की गुणवत्ता,
(ii) प्रादेशिक नियोजन,
(iii) गरीबी उन्मूलन,
(iv) सामाजिक मूल्यों का विकास,
(v) पारिस्थितिकी अध्ययन,
(vi) निरस्त्रीकरण,
(vii) प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर रोक,
(viii) संविकास एवं पारिस्थितिकी विकास,
(ix) पर्यावरण संरक्षण,
(x) सामाजिक न्याय ।
क्रांतिकारी भूगोल का मूल उद्देश्य मानव कल्याण योजनाओं का अध्ययन करना है । सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है । इसका उद्देश्य इस प्रकार के मानव गुणों का विकास करना है, जो परस्पर भ्रातृत्व की भावना पनपाए व सामाजिक कुरीतियों को मिटाए । यह समाजवादी व्यवस्था से सम्बन्ध रखता है । इसमें उत्पादन का वितरण समान रूप से हो । समाज का हर व्यक्ति उत्पादन से प्राप्त समुचित उपयोग भी करें, और इस उपयोग से मानव के सभी वर्गों का भला हो ।
4. क्रांतिकारी भूगोल के उद्देश्य (Objectives of Radical Geography):
इस भूगोल का उद्देश्य मानव कल्याण की भावना पर आधारित होकर मानव के आध्यात्मिक गुणों के विकास पर ध्यान देना है, जिससे एक सम्पन्न समाज का निर्माण होता है ।
यह उद्देश्य इस प्रकार हैं:
i. बन्धुत्व की भावना:
इसका मूल उद्देश्य विश्वबन्धुत्व की भावना है । विश्व के सभी व्यक्ति गरीब हों या अमीर भाई भाई है, और उनमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है ।
ii. मानवता के गुणों के विकास पर बल:
क्रांतिकारी भूगोल सदभाव, प्रेम तथा सहानुभूति सदृश मानवीय गुणों के विकास पर बन देता है । यह गुण मानव कल्याण की भावना को प्रेरित करते हैं ।
iii. कुरीतियों का समापन:
समाज में जातीय वर्ग, धृणा द्वेष एवं विभिन्न प्रकार के भेदभाव का समापन करना इनका प्रमुख उद्देश्य है ।
iv. मानवीय स्तर का विकास:
यह मानव में अज्ञानता, अंहकार व स्वार्थपरता जैसे नकारात्मक बुराइयों को दूर करने पर जोर देता है । मानव यदि अवगणों पर नियंत्रण कर लेता है, तो वह मानवीय गुणों का समावेश कर लेता है ।
क्रांतिकारी भूगोल वास्तव में व्यवहारिक भूगोल का रूप है । मानव कल्याण की योजनाओं को किस प्रकार क्रियान्वित किया जाए ताकि उसका लाभ समाज के सभी वर्गों को मिले यही इस भूगोल का व्यावहारिक रूप है ।
5. क्रांतिकारी भूगोल की मान्यताएं (Assumptions of Radical Geography):
क्रांतिकारी भूगोल मार्क्स के दर्शन से प्रभावित है ।
फलस्वरूप इस भूगोल को चार वैचारिक में रखा गया हैं:
(i) भूगोल एक समन्वित विज्ञान:
इसका उद्देश्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है, जिसमें निर्धन-धनी, श्रमिक-मालिक आदि सभी का संसाघनों अधिकार हो । क्षेत्र मैं स्थित संसाधनों का प्रयोग इस प्रकार किया जाए, जिससे उस रहने वाले सभी लोगों को उसका लाभ मिले ।
इस लाभ वितरण में किसी प्रकार का भेदभाव न बरता जाए । कोयला खान में काम करने वाला श्रमिक व इंजीनियर आर्थिक लाभ की समान रूप से भागीदार हो । स्पष्ट है कि क्रांतिकारी भूगोल प्राकृतिक वातावरण एवं आर्थिक के बीच परस्पर सम्बन्ध का अध्ययन करता है ।
(ii) द्वन्दात्मक भौतिकवाद:
समाज का वास्तविक स्वरूप प्रकार का हो, कि उसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो । व्यक्ति समाज का अभिन्न अंग बनकर रहे । विकसित समाज का तात्पर्य है विकसित मानव । ऐसा मानव, जो चाहे किसी पद पर कार्य करता हो, अपने जीविकोपार्जन के लिए समान अवसर रखने वाला हो ।
क्रांतिकारी भूगोल उन तत्वों का विश्लेषण करता हैं, जिनके कारण समाज में द्वन्दात्मक भौतिकवाद को प्रोत्साहन मिला है । वह उसके ऐतिहासिक पक्ष का विश्लेषण करता है, तथा उसको हल करने की दशा में सुझाव देता है ।
(iii) विशिष्ठ सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन:
यह उन सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है, जो मानव जीवन के भौतिक आधार के उत्पादन तथा पुनरूत्पादन पद्धति पर प्रकाश डालती है । यह क्षेत्रीय असमता की समस्या का निराकरण करता है । सामाजिक समस्याओं पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है, तथा सामाजिक परिवर्तन लाने की दिशा में प्रयासरत रहता है ।
उदाहरण के लिए, नगर के भीतर विभिन्न क्षेत्रों में पाई जाने वाली सामाजिक समस्याओं के बारे में बताता है कि कहीं तो लोग सभी सुविधाओं से सम्पन्न आवासों में रह रहे हैं, तो कहीं पर लोग भद्दे व गंदे आवासों में रहकर अपना जीवन यापन कर रहे है । वहाँ लोग आधारभूत सुविधाओं से वंचित है ।
क्रांतिकारी भूगोल इन समस्याओं के बारे में बताता है, तथा उनका निराकरण करने की दिशा में सुझाव देता है । वह समाज में उपलब्ध आधारभूत सुविधाओं पर सभी का समान अधिकार मानता है । नगर के निवासी चाहें वह उसके मध्य भाग में रह रहें हो, या उपान्त क्षेत्र में उनमें किसी प्रकार का अन्तर्द्वन्द नहीं होना चाहिए ।
(iv) उन्मुक्त सामाजिक व्यवस्था:
ऐसी सामाजिक व्यवस्था प्रदान करना, जिसमें प्रशासन अथवा किसी भी बाह्य संगठन का वहां के सामाजिक कार्यकलापों पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप न हो, इसमें मानव का किसी प्रकार से भी उत्पीडन न हो । समाज में रहने वाले सभी मानव चाहें वह गरीब हों या अमीर; निम्न वर्ग के हों या उच्च वर्ग के, उनका किसी भी प्रकार शोषण न हो । समाज की व्यवस्था परस्पर सहयोग पर आधारित हो । मानव समुदाय द्वारा विकास किया जाना तभी सम्भव है, जब उसको अपनी क्षमता के विकास का पूरा अवसर मिले ।
वह विभिन्न प्रकार के आर्थिक कार्यों में सलंग्न हो जाए तथा उसका प्राकृतिक वातावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहे । ऐसा तभी सम्भव है, जब आर्थिक कार्यों का विकेन्द्रीकरण कर दिया जाए । उत्पादन की लघु इकाईयाँ स्थापित हो, जिन पर अधिक से अधिक लोगों का नियंत्रण बना रह सके । यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करेगा, और समाजवादी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगा ।
उपरोक्त मान्यताओं से स्पष्ट होता है कि क्रांतिकारी भूगोल सामाजिक संरचना तथा सामाजिक परिवर्तन की अन्तर्प्रक्रिया से सम्बन्धित है । मानव समुदाय किस प्रकार के समाज का विकास करता है, व सामाजिक सम्बन्धों का सृजन करता है । इससे प्राकृतिक भूदृश्य में जो परिवर्तन होता है, क्रांतिकारी भूगोल उसका अध्ययन करता है यह भूगोल मानव को सक्रिय कारक के रूप में मानता है । वह प्राकृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन करने में सदैव सचेष्ट रहता हैं ।
6. क्रांतिकारी भूगोल की विचारधाराएँ (Ideologies of Radical Geography):
इन विचारधाराओं को इस प्रकार रखा जा सकता है:
(i) उत्पादन बनाम वितरण:
क्रांतिकारी भूगोल दोनों को एक तत्व के रूप में स्वीकारता है । यह एक श्रृंखला के अंग हैं । उद्योग का स्थापन तथा उसके उत्पाद के वितरण को एक दूसरे पर निर्भर चर (Variable) के रूप में देखा जाना चाहिए । उत्पादन का उद्देश्य मानव को विशेष रूप से उत्पादन स्थल के लोगों को अधिक से अधिक लाभ पहुचाना होना चाहिए ।
मानव कल्याण में क्षेत्रीय असमानता को उत्पादन पद्धति से जोड़ा जाता है, उत्पादनकर्त्ता को उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से यदि वंचित रखा जाता है । तो समाज में विषमताएँ जन्म ने लेती है । वितरण की समस्या उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के वितरण से जुड़ी हुई है ।
जब तक उत्पादन के साधनों पर समाज के सभी सदस्यों का बराबर स्वामित्व नहीं होगा तब तक असमानताएँ समाप्त नहीं होगी । जो भी वस्तु उत्पादित की जाए, उसका उपयोग अर्थात वितरण सभी लोगों में समान रूप से हो । यही इस भूगोल का प्रमुख आधार है ।
(ii) व्यक्ति वनाम समाज:
यह भूगोल व्यक्ति को समाज का अभिन्न अंग मानता है । व्यक्ति विशेष के निर्णय यदि समाज के हित में नहीं हैं, तो यह समाज मैं असमानता फैलाने के लिए उत्तरदायी होगा । यह सामाजिक सरंचना में परिवर्तन के सिद्वान्त पर आधारित है । व्यक्तियों की इच्छाओं व भावनाओं की संतुष्टि सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप होनी चाहिए । इससे समाज में समरूपता की भावना को बल मिलता है ।
(iii) भू-विन्यास की संकल्पना:
इस भूगोल में यह कल्पना की जाती है कि सामाजिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप ही किसी स्थान के भूदृश्य का अभिर्भाव होता है । वर्गविहीन समाज भूमि के तर्कसंगत उपयोग पर जोर देता है ।
(iv) मानव जीवन की गुणवत्ता:
1973 में डी.एम. स्मिथ (D.M. Smith) ने ‘Geography of Social Well Being in the United States’ नामक पुस्तक में मानव जीवन की गुणवत्ता के निर्धारण के लिए जिन तत्वों को उपयोगी माना उनमें जाय एवं सेवा नियोजन आवासीय वातावरण स्वास्थ्य शिक्षा सामाजिक व्यवस्था सामाजिक लगाव (Affinity), मनोरंजन व आमोद प्रमोद साधनों को शामिल किया । उन्होंने बताया कि यदि इन सबकी उपलब्धता समाज के प्रत्येक व्यक्ति को बराबर से प्राप्त है, तो मानव जीवन उच्च गुणवत्ता वाला होगा ।
क्रांतिकारी भूगोल जीवन की गुणवत्ता के स्तर में क्षेत्रीय असमानताओं का अध्ययन करता है, तथा उन्हें न्यूनतम करने का निर्देश देता है । वह भूवैन्यासिक संगठन का अध्ययन इसी परिप्रेक्ष्य में करता है तथा उसे सामाजिक संरचना से अलग नहीं करता । वह दोनों को परस्पर प्रेरक मानता है ।
वह इस परस्पर सम्बन्ध का सम्बन्धित मानव समाज के कल्याण की दृष्टि से मूल्याकंन करता है । वह क्षेत्रीय अन्तर्सम्बन्धों एवं प्रक्रियाओं का गहन विश्लेषण करता है कि किन कारणों से मानव के जीवन स्तर में असमानताएँ उत्पन्न हो रही हैं ।
वह देखता है कि कहीं संसाधनों का स्वामित्व कुछ व्यक्तियों, वर्गों अथवा क्षेत्रों के हाथों में केन्द्रित तो नहीं हो गया है, तथा अन्य व्यक्तियों जो श्रम कार्यों में लगे है वह शोषण के पात्र बन कर तो नहीं रहे गए हैं ।
यह क्रिया आर्थिक कार्यकलापों के केन्दीकरण के कारण होती है । इससे एक विरोधी भूवैन्यासिक संगठन प्रकट होता है । उदाहरण के लिए नगर का मध्यवर्ती (हृदय क्षेत्र) उपान्त क्षेत्र का अपने हित के लिए शोषण करता है ।
इस क्षेत्र से श्रमिक व प्राकृतिक संसाधन जैसे नगर कार्यों के लिए भूमि की उपलब्धता सागसब्जी, दूध, अनाज नगर को प्राप्त होते हैं, लेकिन क्या नगर इस उपान्त क्षेत्र के विकास के लिए उतना ही मददगार होता है, जितना कि वह हृदय क्षेत्र के विकास पर ध्यान देता है । यदि ऐसा नहीं है, तो एक विरोधी भूवैन्यासिक संगठन व द्वन्दात्मक सामाजिक संरचना का अविर्भाव हो जाता है ।
नगर का हृदय क्षेत्र व उपान्त क्षेत्र आर्थिक दृष्टि से विरोधाभासी बन जाते हैं, इसी प्रकार नगरीय व ग्रामीण क्षेत्रों में भिन्नता देखने को मिलती है । नगरीय बस्तियाँ ग्रामीण बस्तियों की कीमत पर अधिक विकसित हो जाती हैं और ग्रामीण क्षेत्र पिछड़ेपन की ओर बढ़ जाता है, या बढ़ने लगता है ।
ग्रामीण मानव समाज की जीवन गुणवत्ता पिछड़ जाती है । नगरीय समाज अपने निवासियों के लिए जीवन स्तर को प्रभावित करने वाली सुविधाओं का विकास कर लेता है, जबकि ग्रामीण समाज नगरीय समाज पर आर्थिक निर्भरता बढ़ने के कारण ऐसा नहीं कर पाता है ।
इससे नगरों व गावों के लोगों के जीवन स्तर में असमता व्याप्त हो जाती है । विश्व में विकसित व विकासशील देशों के मध्य जीवन स्तर में बढ़ती गहरी खाई इसी प्रक्रिया का परिणाम है । क्रांतिकारी भूगोल ऐसी सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करता है । वह इसे सुधारने का प्रयास करता है ।