ADVERTISEMENTS:
Here is a list of top five geographers and their contribution to geography in Hindi language.
1. हेरोडोटस (Herodotus, 485 – 425 B.C.):
वह एक प्रसिद्ध यूनानी भूगोलवेत्ता था । उसका जन्म यूनान के हेलिकाटनेसस नगर में हुआ था । यद्यपि उसको इतिहास का पिता (Father of History) माना जाता है, लेकिन वह महान भूगोलवेत्ता भी था । उसका अभिमत था कि ”सम्पूर्ण इतिहास को भौगोलिक दृष्टि से देखा जाना चाहिए, इसी प्रकार भूगोल को भी ऐतिहासिक दृष्टि से मापना चाहिये ।” वह क्रान्तिकारी विचारों वाला व्यक्ति था तथा एक अच्छा लेखक था । यात्राएँ (Travels) उसकी भ्रमण में विशेष रुचि थी ।
उसने बीस वर्षों तक ज्ञात विश्व के अधिकांश भागों का भ्रमण किया तथा एशिया माइनर (टर्की), यूनान, भूमध्यसागर के तटीय देश एवं द्वीप समूह, काला सागर, कैस्पियन सागर, दजला के उद्गम प्रदेश की यात्राएँ की थी और उनके भौगोलिक वर्णन प्रस्तुत किए थे ।
ADVERTISEMENTS:
उसके यात्रा वर्णनों में अफ्रीका और एशिया महाद्वीपों को लाल सागर के द्वारा विभाजित बतलाया गया था । उस समय के लोगों के सामने यह विचार बिल्कुल नया था, क्योंकि उससे पूर्व दोनों महाद्वीपों को नील नदी के द्वारा पृथक किया हुआ माना जाता था ।
रचनाएँ:
उसने तीन प्रमुख ग्रंथों की रचना की जो सभी वर्णनात्मक थे:
(I) इतिहास व भूगोल का मिश्रित ग्रंथ (Historiography) लिखा । इस ग्रंथ में प्रदेशों की स्थिति, उनका विस्तार, नदियाँ, उनकी बाढ़ व नहरें, पर्वत, बस्तियां व निवासियों के लक्षण, उनके कार्यकलाप का वर्णन किया ।
(II) एक अन्य ग्रंथ एसीरिया का इतिहास लिखा, इसी कारण वह इतिहास का पिता कहलाया ।
ADVERTISEMENTS:
(III) उसने पर्शियन (Persian) साम्राज्य का इतिहास भी लिखा, जिसमें अनेक महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारियों दी ।
भूगोल को देन:
उसके द्वारा प्रस्तुत भौगोलिक ज्ञान को इस तरह व्यक्त किया जा सकता है:
ADVERTISEMENTS:
i. पृथ्वी को चपटी बताया ।
ii. पृथ्वी पर जल, थल, नदी एवं अन्य लक्षणों के वितरणों में साम्यता को विशेष महत्च दिया नील व इस्टर (डेन्यूब) के मुहाने आमने-सामने बताए । नील व इस्टर की समान लम्बाई बतायी । यद्यपि उसका ज्ञान नील नदी की लम्बाई व उसके ऊपरी प्रवाह मार्ग के बारे में अधूरा था ।
iii. विश्व के ज्ञात एवं सम्भावित प्रदेशों के वितरण का एक मानचित्र प्रस्तुत किया और भूमध्यसागर के निकटवर्ती एवं ज्ञात विश्व को तीन प्रमुख भागों में बांटा- एशिया, यूरोप और लीबिया (अफ्रीका) ।
a. एशिया:
एशिया के बारे में उसका ज्ञान पर्सियन साम्राज्य (Persian Empire) तक ही सीमित था । उसके अनुसार इसका विस्तार पश्चिम में मिस्र से लेकर दक्षिण में ईरथ्रियन (Erythraean) सागर तक था । इस सागर को ही हिन्द महासागर का नाम दिया गया ।
इसका विस्तार अरब खाड़ी (लाल सागर) से लेकर सिंध नदी के मुहाने तक था भारत तथा उसके निवासियों के बारे में उसका वर्णन दिलचस्प व अस्पष्ट थे । उसने भारत के लोगों को धनी बताया । यहाँ नदी के रेत व खानों से सोना निकाला जाता है यहाँ कपास पैदा होती है, जिसके बने वस्त्र भारतीय पहनते थे ।
वह उपजाऊ मैदान से परिचित नहीं था । सिंध नदी को पश्चिम-पूर्व दिशा में प्रवाहित बताया । सिंध नदी के पूर्व को उसने मरूस्थली प्रदेश की संज्ञा दी । वह एशिया की पूर्वी सीमा के बारे में निश्चित नहीं था । उसे सुदूर पूर्व व दक्षिण पूर्व एशिया का ज्ञान नहीं था ।
फारस साम्राज्य प्रशासनिक व कर प्राप्ति की दृष्टि से बीस प्रान्तों (Satrapies) में बाँटा गया था । इन प्रान्तों के नाम वहाँ का जातियों या नदियों के अनुसार रखे गए थे । फारसवासियों का निवास स्थल इरेथ्रियन सागर के उत्तर में स्थित भूभाग पर बताया । अरब सागर से लेकर कैस्पियन सागर तक चार प्रमुख जातियों पर्सियन, मेडीज, सासपीरियन व कॉलशीयन की उपस्थिती बतायी ।
उसको अनातोलिया प्रायद्वीप (टर्की) और एशिया माईनर, जो चारों ओर ग्रीक कालोनियों से घिरा हुआ था, के बारे में अधूरा ज्ञान था । उसको तारूज, एलबुर्ज, जेग्रोस, हिन्दुकुश व हिमालय पर्वत का ज्ञान नहीं था । उसको दजता व फरात नदियों के उद्गम की सही जानकारी थी ।
ADVERTISEMENTS:
राजमार्ग का निर्माण:
फारस साम्राज्य का महत्वपूर्ण राजमार्ग सुसा (Susa) से सार्डिस (Sardis) नगर तक था । उसका यह वर्णन भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस मार्ग पर निश्चित अंतर पर सभी सुविधा वाले विश्रामगृह बने हुए थे । यह मार्ग 13500 स्टैडिया (1350 मील) लम्बा था । सार्डिस से सुसा तक जाने में तीन माह लगते थे । इस मार्ग के दोनों ओर आबादी रहती थी । मार्ग में पड़ने वाली दजला और फरात नदियों को नाव द्वारा पार किया जाता था ।
b. यूरोप:
उसने यूरोप महाद्वीप को एशिया से भी बड़ा बताया । ईस्टर (Danube) नदी को विश्व की सबसे बड़ी नदी बताया तथा कारपिस (कारपेथियन पर्वत) और अल्पिस (आल्पस पर्वत) को पर्वत न बताकर ईस्टर की सहायक नदियों के रूप में बताया । वास्तव में यूरोप के बारे में उसका ज्ञान सीमित था उसने यूरोप और एशिया की सीमा के लिए अरेक्सस (Araxes) नदी को चुना, जो वास्तव में नदी ही नहीं थी । इटली के उत्तरी भाग में ओम्बटी व इनेटी राष्ट्रों की उपस्थिति को बताया । वह महान आल्पस पर्वत से परिचित नहीं था ।
उसने स्किथिया (Scythia) (आधुनिक यूक्रेन) का भौगोलिक यात्राओं के आधार पर वर्णन प्रस्तुत किया पोण्टस यूक्साइन (काला सागर) के दक्षिणी तट के निकट सामोस नामक यूनानी बस्ती थी । स्किथिया काला सागर के उत्तर में इस्टर एवं टैनियस (Palus-Maeotis) या आधुनिक एजोव सागर की पश्चिमी सीमा पर गिरने वाली नदियों के बीच का प्रदेश था ।
यह भूमि ग्रीक व्यापारियों के अधिकार में थी । अजोव सागर का विस्तार वर्तमान की अपेक्षा कहीं अधिक बताया और बोरिस्थनीज (नीस्तर नदी) को डेन्यूब के बाद यूरोप की दूसरी बड़ी नदी बताया । उसने बताया कि स्किथिया नील घाटी के बाद प्रमुख मैदानी व उपजाऊ भाग है ।
इस पर उत्तर-दक्षिण दिशा में कई समानान्तर नदियाँ बहती है । इन नदियों में सर्दियों में जल कम रहता है और गर्मियों में बाढ आती है। यह प्रदेश वर्गाकार है तथा इसकी लम्बाई चालीस दिन की यात्रा के बराबर है पशुचारण व कृषि यहाँ के लोगों का प्रमुख व्यवसाय थे । व्यवसाय के आधार पर उनको चार प्रमुख जातियों में विभाजित किया-ऐरोटेटिस, जाजि, स्किथियाइ चरवाहे, शासक स्किथियाई ।
शासक व चरवाहे स्किथियाई अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक क्रूर, बहादुर, विश्वासी थे । ऐरोटेटिस लोग प्रमुख रूप से कृषक थे, यह लोग ग्रीक से आकर बसे थे । जाजि स्किथिया की प्रमुख कृषक जाति थी । यह लोग बोरिसथेनीज (Borysthenes) नदी के पूर्व में रहते थे । यह लोग काफी समृद्ध थे । नीस्तर के बाद अन्य महत्वपूर्ण नदी टनायस (डोन) थी । इस प्रकार स्किथिया के बारे में उसका ज्ञान काफी सही था, जबकि यूराल के बारे में उसका ज्ञान अधूरा था ।
c. अफ्रीका या लीबिया:
अफीका महाद्वीप, जिसको यूनानी लोग लीबिया के नाम से पुकारते थे, के बारे में हीरोडोटस ने पर्याप्त जानकारी दी । भूमध्यसागर के उत्तरी व दक्षिणी तट पर स्थित भूभागों का उसे असीमित ज्ञान था । उसने सिरेन (Aswan) नगर की यात्रा की थी, जो ग्रीक सभ्यता व जीवन पद्धति का प्रमुख केन्द्र था ।
इसके अलावा इस महाद्वीप में स्थित कई यूनानी बस्तियों, विशेष रूप से नील नदी के सहारे-सहारे स्थित बस्तियों की यात्रा की थी । मिस्र का विस्तार उसने पूर्व में अरब की खाड़ी (लाल सागर) तक बताया था । यह नील के मुहाने के निकट संकरा है । यहां इसकी चौड़ाई 1000 फर्लाग से अधिक नहीं है । इसके आगे इसकी चौड़ाई बढ़ती जाती है । नील नदी पर प्रथम झरने के निकट एलिफेण्टाइन (Elephantine) नगर स्थित था । इसके आगे नील के तट पर मारे (Maroe) नगर स्थित था ।
यह इथोपिया (Ethiopians) की राजधानी था । इस नगर से आगे एस्मक (Asmach) मरूस्थली लोग रहते थे, इन लोगों ने खारतूम के दक्षिण में स्थित भूभाग, जो नील नदी की दो सहायक नदियों- श्वेत व नीली- के बीच विस्तृत था, पर अपना आधिपत्य जमा रखा था । लेकिन बाद में इन्हें अपनी क्रूरता व जीविकोपार्जन की सुविधाओं के अभाव के कारण यहाँ से भागना पड़ा था ।
अफ्रीका का विस्तार:
अफ्रीका की दक्षिणी सीमा इथोपिया तक बताई थी-
(i) जहां मेक्रोबियन लोग .रहते थे । यह लोग काफी चुस्त, लम्बे तथा सुन्दर थे, तथा दीर्घ जीवन रखने वाले थे । सोना की बहुतायतता थी । इसी कारण सोने का प्रयोग निर्धन लोगों तथा ईमारतों आदि में भी होता था । इनका भोजन माँस और दूध था । यह लोग लाल सागर के पश्चिम में सोमालिया के अनिवासी थे ।
(ii) मध्य अफ्रीका में काली बौनी जातियों (Pygmies) की उपस्थिति को भी बताया था ।
(iii) अफ्रीका के पश्चिमी तट के बारे में उसे अपूर्ण ज्ञान था । अफ्रीका के उत्तरी तट को पश्चिमी व पूर्वी भागों में बाँटते हुए अन्तर स्थापित किया था । पूर्वी तट रेतीला है तथा यहाँ घुमन्तु (Nomads) लोग रहते हैं । यहाँ पर ही सिरेन नगर स्थित था ।
(iv) पश्चिमी तट पर घने जंगल, उपजाऊ घाटियाँ व पहाडियाँ थी तथा यह आदिम जातियों द्वारा बसा हुआ था । कार्थेज व्यापारी इन लोगों से व्यापार करने आते थे, तथा यहाँ में सोना ले जाते थे । बदले में उन्हें व्यापारिक एवं अन्य उपयोगी वस्तुयें देते थे । उसके अनुसार लीबिया के उत्तरी तट का विस्तार हरक्यूलिस पिलर्स (जिब्राल्टर) से आगे तक था ।
अफ्रीका का विभाजन:
हीरोडोटस ने अफ्रीका को तीन अंक्षाशीय खण्डों में बांटा था-
(i) प्रथम खण्ड- भूमध्यसागरीय तट था, जो कि एटलस पर्वत से नील नदी तक फैला था, इस भूभाग पर घुमन्तु व कृषक दोनों ही प्रकार के लोग रहते थे ।
(ii) दूसरा खण्ड- तटीय क्षेत्र के दक्षिण में फैला था, जिस पर जंगली पक्षी रहते थे । अरब लोगों ने इसका नाम (Land of Dates) रखा था ।
(iii) तीसरा खण्ड- सुदूर दक्षिण में था, जो वास्तव में सहारा मरूस्थल है । इस मरूस्थल के मध्य भाग में पाँच मरुधानों की उपस्थिति को बताया । यह सब मरुधान परस्पर एक-दूसरे से दस दिन की यात्रा के अन्तर पर स्थित थे ।
विश्व मानचित्र का निर्माण:
उसने उस समय तक यूनानियों को ज्ञात विश्व का मानचित्र भी बनाया था, जिसमें भूमध्यसागर के चारों ओर के प्रदेश दिखलाये गए थे । इस मानचित्र में यूरोप, एशिया तथा उत्तरी अफ्रीका के वे क्षेत्र थे, जो भूमध्यसागर के समीपवर्ती भूभाग है । इसमें विश्व का विस्तार भूमध्यसागर के पूर्व की ओर अधिक दिखाया गया था । इस मानचित्र में ज्ञात विश्व के पश्चिमी, दक्षिणी व दक्षिणी-पूर्वी भाग में महासागरों की उपस्थिति बतायी ।
इसमें अरब की खाड़ी (लाल सागर) की स्थिति, नील की घाटी तथा मुहाने की सही स्थिति बताई गई है । उसने केंस्पियन सागर को आंतरिक सागर माना । उसने हिंद महासागर, भारत के विस्तार व फारस की खाड़ी के विस्तार को चित्रित करने में अनेक गलतियाँ की । यूरोप में भी आल्पस पर्वत को नदी बताया, जबकि काकेशस पर्वत को सही चित्रित किया ।
उस समय की कठिनाईयां एवं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए, हीरोडोटस का प्रयास सराहनीय माना जाना चाहिए वास्तव में उसने अपने पूर्ववर्ती यूनानी विद्वानों की अपेक्षा एक सुधरा हुआ मानचित्र प्रस्तुत किया, यह उसकी वास्तविक उपलब्धि थी ।
2. इरेटास्थनीज (Eratosthenes, 276 – 194 B.C.):
इरेटास्थनीज का जन्म लीबिया के उत्तरी तट पर स्थित साइरेन (Cyrene) नगर में हुआ था । वह ग्रीक का महान वैज्ञानिक भूगोलवेत्ता माना जाता है । उसने आरम्भ में एथेंस व बाद में सिकन्दरिया में शिक्षा प्राप्त की उसने प्रारम्भ में व्याकरण तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया ।
उसने गणित नक्षत्र विद्या एवं गणित भूगोल पर अपने विचार प्रकट किए । जब उसकी नियुक्ति सिकन्दरिया (Alexandria) स्थित पुस्तकालय में पुस्तकालाध्यक्ष के रूप में हो गई, तो उसने यहां रहते हुए अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया, तथा लोगों को अनेक महत्वपूर्ण जानकारियों से परिचित कराया । उसने इस पद पर लगातार 40 वर्ष कार्य किया ।
उसने पृथ्वी के वर्णन करने वाले विषय का नाम जिओग्राफी (Geography) शब्द प्रस्तावित किया । उसके बाद से यह शब्द लगातार प्रयोग होता रहा है, और अब एक पूर्व विकसित विज्ञान बन गया है । उसने अपने ग्रंथ का नाम ज्योग्राफिका (Geographical) रखा तथा भूगोल को व्यवस्थित गणितीय रूप दिया । अत: उसे व्यवस्थित भूगोल का पिता (Father of Systematic Geography) भी कहा जाता है ।
उसके द्वारा भूगोल को दिए गए योगदान को इस तरह से रखा जा सकता है:
i. पृथ्वी की परिधि (Circumference) की गणना:
उसके विचार पृथ्वी की परिधि पर सबसे महत्वपूर्ण व विश्वसनीय माने जाते हैं। उसके अनुसार सम्पूर्ण परिधि या भूमध्यरेखा की लम्बाई 250000 स्टेडिया (25000 मील) है। इसको मापने की विधि का उसने विस्तार से वर्णन किया । इस कार्य के लिए मिस्त्र के आस्वान क्षेत्र में साइने (Syene) नामक स्थान को छाँटा ।
साइने में एक कुँआ था, जिसमें सूर्य की किरणें नीचे तली तक वर्ष में केवल एक दिन (20-22 जून) सीधी चमकती है । इसका अर्थ यह था कि साइने कर्क रेखा (Tropic of Cancer) पर स्थित है । साइने और सिकंदरिया की दूरी मिस्त्र के भूमि सर्वेक्षण विभाग द्वारा पहले ही माप ली गई थी, जो 5000 स्टेडिया थी ।
साइने व सिकंदरिया दोनों को एक देशांतर पर स्थित मानकर उसने 21 जून को ठीक दोपहर के समय सूर्य के कोण को माप लिया, जो लम्बवत से वृत्त का पाँचवाँ भाग (70°12ˈ) झुका हुआ था । पूरे वृत्त को 360° मानकर पचास से भाग दिया तथा पृथ्वी की परिधि की गणना की ।
सिंकदरिया से साइने तक की दूरी में, अर्थात 5000 स्टेडिया में 50 का गुणा करने पर पृथ्वी की परिधि 250000 स्टेडिया (लगभग 25000 मील) मालूम हुई । यह माप बहुत कुछ शुद्ध थी, इसमें केवल 14% अशुद्धि थी । बाद में और गणना करते हुए उसने इसे 25200 मील बताया । वर्तमान जानकारी के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7926 मील (12752 किमी) है ।
यद्यपि साइने की स्थिति कर्क रेखा पर नहीं, थोड़ी उत्तर की ओर है, और सिकंदरिया की स्थिति भी साइने के देशांतर पर न होकर, वरन उसके 3° पश्चिम में है तथा सिकंदरिया (Alexandria) और साइने के बीच की दूरी 5000 स्टेडिया नहीं, वरन 4530 स्टेडिया है, फिर भी इन चारों अशुद्धियों ने परस्पर एक-दूसरे की कमियों को भर दिया, और पृथ्वी की परिधि की माप की गणना 86% ठीक रही । अत: उसकी विधि व गणना आज भी लोगों द्वारा स्वीकार की जाती है ।
ii. भारत देश का विस्तार:
उसने परिकल्पना की’ कि भारत का अधिकांश विस्तार सिंधु व गंगा के बीच है । सिंधु नदी उत्तर से दक्षिण की ओर बहकर फिर पश्चिम से पूर्व दिशा में बहती हुई सागर में गिरती है । उसके अनुसार भारत की आकृति चतुर्भुजाकार है तथा इसका दक्षिण-पूर्व में अधिक विस्तार है गंगा के उत्तर में पर्वत शृंखला की उपस्थिति बताया ।
iii. पृथ्वी से सूर्य व चन्द्रमा की दूरियों का निर्धारण:
उसने पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी 780,000 स्टेडिया और सूर्य की दूरी 400,000 स्टेड़िया बताई । इन दूरियों के परिकलन की विधियों को वह नहीं बता पाया यह दूरियाँ भी सही नहीं है ।
iv. अक्षांश व देशान्तर रेखाओं का निर्धारण:
उसने अक्षांश व रेखान्तर रेखाओं का निर्धारण किसी विशेष विधि के आधार पर नहीं किया । उसके अनुसार एक देशांतर सिकंदरिया से सियेने (Syene) सिरीए, रोडस (Rhodes) द्वीप, ट्राओस होती हुई काला सागर के उत्तरी तट पर स्थित, वोरेस्थनीज (नीस्तर) तक जाती है । दूसरी देशान्तर रेखा कार्थेज, मेसीनिया जलडमरुमध्य और रोम से गुजरती है ।
यह भी देशान्तर रेखा गलत है, लेकिन इन सब कमियों के बावजूद उसका भूगणित (Geodesy) का जनक माना जाता है । उसने शंकु (gnomon) की सहायता से रोड़ द्रीप का अक्षांश निर्धारित किया । इस रेखा को पश्चिम में जिब्राल्टर तथा पूर्व में दजला पर थाप्सेकस तथा आगे हिमालय तक बढते हुए पूर्वी महासागर तक खींचा । थूल में आर्कटिक वृत्त की उपस्थिति बताई ।
v. पृथ्वी का विस्तार व भूमध्य रेखा की लम्बाई:
उसने बताया कि विश्व का विस्तार उत्तर-दक्षिण की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम दिशा में अधिक है उसने ज्ञात विश्व की लम्बाई अटलांटिक से पूर्वी महासागर तक 78000 स्टैड़िया एवं चौड़ाई सिनांमान (Cinnamon) दक्षिण लीबिया से थूल (Thule) तक 38000 स्टैड़िया बताई । उसने आबाद विश्व का विस्तार धूल से थपराबोन (Thaprabone) और अटलांटिक महासागर से बंगाल की खाड़ी तक बताया ।
vi. विश्व मानचित्र का निर्माण:
उसने ज्ञात विश्व का सुधरा हुआ मानचित्र ई.पू. 220 में प्रस्तुत किया । उसने पहली बार अपने विश्व मानचित्र में- (i) अक्षांश देशान्तर रेखाओं का प्रयोग किया । उसने मानचित्र प्रदर्शन में (ii) दिशा (iii) दूरी (iv) मापक व विस्तार के तथ्यों पर जोर दिया ।
उसका विश्व मानचित्र आयताकार है एवं इसके ज्ञात विश्व के तटवर्ती भागों को उसके मानचित्र के किनारों तक फैलाया है । उसने हानो (Hanno), सिकंदर महान के समय के यात्री नियरकस तथा पिथ्यिस (Pytheas) की यात्राओं से प्राप्त ज्ञान के आधार पर विश्व के विस्तार को विभिन्न दिशाओं में निर्धारित किया । इसमें भारत और अफ्रीका को बहुत छोटा दिखलाया था । इस मानचित्र में ब्रिटिश द्वीपों सहित यूरोप, एशिया और उत्तरी अफ्रीका प्रदर्शित किए गए थे यद्यपि उसका मानचित्र दोषपूर्ण था ।
लेकिन उसकी निम्न बातें उल्लेखनीय रहीं:
(a) उसने भूमध्यसागर के आसपास प्रदेशों को अत्यन्त सावधानी से दिखाया,
(b) इसमें आठ अक्षांश व आठ देशांतर रेखाओं को दिखलाया,
(c) प्रत्येक देशांतर के बीच की दूरियाँ असमान बताईं,
(d) उसने अक्षांशों के नाम नीचे से ऊपर की ओर क्रमश: सिनायोन, मिराय सियेने, सिकंदरिया, रोड, ट्रांड, बोरिस्थनीज का मुहाना एवं थूल रखे,
(e) देशान्तरों के नाम पश्चिम से क्रमश: हरक्यूलिस स्तम्भ (जिब्राल्टर) कार्थेज सिकंदरिया, थापसेकस, कैस्पियन द्वार, सिंधु का मुहाना रखे ।
उसके द्वारा बनाया गया मानचित्र दोषपूर्ण होते हुए भी स्ट्रेबो द्वारा बनाये गए मानचित्र से श्रेष्ठ था । टोलमी ने इससे उत्कृष्ट मानचित्र प्रस्तुत किया ।
vii. रचित ग्रंथ:
अपने ग्रंथ (Geographica) में आबाद पृथ्वी (Ekumene) का वर्णन किया । उसने पृथ्वी का विभाजन, यूरोप, एशिया और लीबिया (अफ्रीका) में किया ।
viii. जलवायु कटिबंध:
उसने पांच जलवायु कटिबंध बताए । उष्ण कटिबंध (Torrid Zone) का विस्तार भूमध्य रेखा के दोनों ओर 24° अक्षांश उत्तर व दक्षिण बताया । इस प्रकार इस कटिबंध को 48 अक्षांशों पर अपना विस्तार रखते हुए बताया । शीत कटिबंध (Frigid Zone) का विस्तार प्रत्येक ध्रुव से 24° तक बताया तथा इन दोनों कटिबंधों के बीच शीतोष्ण कटिबंध की उपस्थिति बतायी ।
3. ओस्कर पेशेल (Osker Paschel, 1826 – 1875):
पेशेल का जन्म उस समय हुआ, जब हम्बोल्ट व रिटर दोनो भूगोल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुके थे । ऐसे समय में पेशेल ने अपने आपको यथार्थवादी दार्शनिक के रूप में स्थापित किया । यद्यपि उसका जीवन एक पत्रकार के रूप में आरम्भ हुआ और उनकी रूचि भूगोल के अध्ययन में बड़ी ।
इन्होंने अल्मेजाइन जीतुंग (Allgemine Zeitung) पत्रिका का सम्पादन 1851 से 1854 के वर्षों में किया व अनेक भौगोलिक लेख छपवाए । 1854 से 1870 तक वह प्रसिद्ध भूगोल पत्रिका आसलैण्ड (Ausland) का सम्पादक रहा । इसमें भूगोल और राजनीति पर अनेक लेख प्रकाशित कराए । उनके लेखों व अर्थों से प्रभावित होकर लीपजिंग (Leipzing) विश्वविद्यालय ने 1870 में भूगोल का नया विभाग स्थापित करके उनको भूगोल का प्रोफेसर एवं अध्यक्ष बना दिया ।
इनकी विभिन्न रचनाएं इस प्रकार हैं:
1. Age of Discovery: 1858
2. History of Geography: 1865
3. New Problems of Comparative Erd Kunde: 1869
4. The Races of Man and Their Geographical Distribution: (Volker Kunde 1874)
5. Physical Erd Kunde: 1879
पेशेल के अध्ययन आनुभविक व तुलनात्मक (Empirical and Comparative) विधियों पर आधारित थे । उसने भौतिक भूगोल को अधिक महत्व दिया ।
उसके विचारों को इस प्रकार रखा जा सकता है:
भूगोल को देन:
(I) भौतिक भूगोल:
उसने पैंक विद्वानों व डेविस के विचारों से प्रभावित होकर आधुनिक भौतिक भूगोल की नींव रखी । उसने क्षेत्र विशेष के भौतिक दृश्य के अध्ययन पर जोर देते हुए उनकी अन्य प्रदेश से तुलना पर जोर दिया । एक प्रदेश के भौतिक दृश्य दूसरे प्रदेश के भौतिक दृश्य से भिन्नता रख सकते हैं, इससे उनकी उत्पत्ति के बारे में पता लगता है ।
इस प्रकार भूदृश्यों की उत्पत्ति, विकास व उनका वर्गीकरण करने का प्रयास किया । उसका यह अध्ययन तुलनात्मक भूविज्ञान कहलाया । उसने स्थलाकृति विज्ञान (Geomorphology) की संकल्पना को विकसित किया । इस प्रकार उसके अध्ययन भौतिक भूगोल पर आधारित थे । उसने अपने सभी क्रमबद्ध अध्ययनों में पृथ्वी के भौतिक दृश्यों पर ध्यान केन्द्रित किया व उसे वैज्ञानिक स्वरूप दिया ।
(II) मानव भूगोल:
उसने मानव भूगोल का भी विकास किया । मानव की प्रजातियों और उनका भौगोलिक वितरण ग्रन्थ में मानव की भौतिक, भाषा, सामाजिक एवं आर्थिक विशेषताओं का वर्णन किया । मानव प्रजातियों का वर्गीकरण मानव की शारीरिक रचना के आधार पर किया व उनको छ: वर्गों में रखा । आस्ट्रेलिया एवं पापुउन्स, द्राविडियन, बुशमैन, नीग्रो, भूमध्य सागरीय भारतीय यूरोपीय प्रजाति ।
(III) नियतिवाद:
इसका कठोर समर्थक था । उसने कहा कि मानव के सभी कार्य प्रकृति से प्रभावित हैं । उसकी भाषा, स्वभाव, शारीरिक विशेषताएं, व्यवसाय सभी प्रकृति के द्वारा नियंत्रित होते है ।
(IV) हम्बोल्ट व रिटर का आलोचक:
पेशेल का कहना था कि हम्बोल्ट व रिटर ने भौतिक भूगोल को वैज्ञानिक रूप नहीं दिया था रिटर ने अपने तुलनात्मक अध्ययन में महाद्वीपों की परस्पर तुलना पर जोर दिया था, जो कि संभव नहीं हैं । रिटर ने अपने अध्ययन मानव भूगोल से प्रारम्भ किए थे, जबकि पेशेल भौतिक से प्रारम्भ किये जाने का हिमायती था ।
वह मानव भूगोल के तत्वों का क्रमबद्ध अध्ययन करने के पक्ष में नहीं था । हम्बोल्ट की भांति वह क्षेत्रीय सर्वेक्षण के पक्ष में नहीं था । यद्यपि उसने अपने समकालीन भूगोलवेत्ताओं की आलोचना की, लेकिन अध्ययनों में इन सभी के विचारों का समावेश कहीं न कही परिलक्षित होता है ।
(V) द्वैत्तवादी विचारधारा का पोषक:
उसने भूगोल में द्वैतवाद को स्वीकार किया । उसने बताया कि मानव का अध्ययन भूगोल से अलग है । प्राकृतिक (भौतिक) व मानवीय दोनों तत्वों की व्यख्या अलग-अलग की जानी चाहिए । उसने भौतिक भूगोल के साथ-साथ मानव भूगोल को भी विकसित किया । कुछ विद्वान इनको भूगोल की दो शाखाओं के रूप में लेते हैं, क्योंकि उसने मानवीय तत्वों का अध्ययन करते हुए उन पर प्राकृतिक तत्वों के प्रभाव का आंकलन किया था, और मानव को प्रकृति के बंधन में माना था ।
4. फर्डीनेण्ड वॉन रिचथोफन (F. Ferdinand Von Richthofen):
उसका जीवन काल 1833 से 1905 तक माना जाता है उसका जन्म पश्चिमी जर्मनी के साइलेशिया क्षेत्र में एक धनी परिवार में हुआ था । भूगर्भशास्त्र, जीव विज्ञान व भूगोल विषयों का अध्ययन किया । उसकी शिक्षा बर्लिन व ब्रुसेल्स में हुई । वह क्षेत्रीय सर्वेक्षण का अनुयायी था । वह प्रारम्भ में भूगर्भ शास्त्री माना जाता था, लेकिन बाद में उसे भूगोलवेत्ता के रूप में पहचाना जाने लगा । उसने आलप्स पर्वतीय क्षेत्र की भू-रचना पर अपना शोध ग्रन्थ प्रस्तुत किया ।
भौगोलिक यात्राएं:
1856 से लेकर 1872 तक उसके द्वारा की गई यात्राएँ इस प्रकार हैं:
i. 1856 में आस्ट्रिया सरकार की सहायता से कारपेथियन पर्वत की संरचना पर विशेष कार्य किया ।
ii. 1860 में जर्मन सरकार ने उसको पूर्वी एशिया में भूमि एवं खनिज संसाधनों की खोज के लिए जाने वाले दल का नेतृत्व के रूप में नामित किया ।
iii. चीन पहुंचकर उसने वहां खनिजों विशेष रूप से सोने की खोज का कार्य प्रारम्भ किया । इसी समय कैलीफोर्निया में सोने की खोज के लिए यूरोपीय लोगों में उत्सुकता बड़ी ।
iv. रिचथोफेन चीन से ही प्रशांत महासागर मार्ग द्वारा कैलीफोर्निया गया, ऐसा उसने कैलीफोर्निया बैंक के आग्रह पर किया ।
v. कैलीफोर्निया में उसने ज्वालामुखी संरचना एवं सोने की खोज पर विशेष कार्य किया ।
vi. कैलीफोर्निया में 6 वर्ष रहने के पश्चात वह पुन: चीन गया । वहां उसको अनेक संस्थानों का सहयोग मिला । यहां उसने कोयले की खोज की, कोयला खानों का मानचित्र बनाया, चीन की भौमकीय संरचना एवं भूदृर्श्यो की उत्पत्ति का विस्तृत अध्ययन किया इसके साथ-साथ उसने चीन में दूर-दूर तक घूमकर अनेक जानकारियां एकत्र की । उसने लोएस मिट्टी के निर्माण का भी अध्ययन किया ।
vii. 1872 में वह जर्मनी वापस लौटा । यहाँ आकर उसने अनुभवों को प्रकाशित करने का मन बनाया व चीन के भूगोल पर पुस्तक व मानचित्रावली तैयार करने का कार्य हाथ में लिया ।
viii. 1872 से 1879 तक वह चीन का भूगोल तैयार करने में लगा रहा । इसी दौरान वह बर्लिन विश्वविद्यालय व बाद में बोन विश्वविद्यालय में भूगोल का प्रोफेसर बन गया । बोन में वह 1883 तक रहा । 1883 में वह लीपिजिग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बना ।
ix. 1886 में उसको बर्लिन विश्वविद्यालय मैं भूगोल का प्रोफेसर का पद फिर प्राप्त हो गया । यहां रहकर उसने भूगोल पर अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए । भौतिक भूगोल, आर्थिक भूगोल, ऐतिहासिक भूगोल तथा चीन के भूगोल से सम्बन्धित अनेक लेख लिखे ।
x. उसकी विद्वता से प्रभावित होकर ब्रिटेन की रायल ज्योग्राफिल सोसाइटी व बर्लिन की विज्ञान अकादमी ने उसे अपना आजीवन सदस्य बनाया । वह कई वर्षों तक बर्लिन ज्योग्राफिकल सोसाइटी का अध्यक्ष रहा । उसने बर्लिन के महासागरीय संस्थान (Oceanographical Institute of Berlin) को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया ।
रचनाएँ:
उसकी रचनाएं प्रत्यक्ष अनुभव एवं अवलोकन पर आधारित है । इसी कारण उसकी रचनाओं से मौलिकता मिलती है ।
प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं:
I. चीन का भूगोल- इसको तीन खण्डों में 1882-1912 के दौरान लिखा, तीसरा खण्ड उसकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ ।
II. चीन की मानचित्रावली- 1902
III. भूगोल की समस्याएं एवं विधियां- 1883
IV. स्थलाकृति विज्ञान- 1886
V. आर्थिक एवं खनिज भूगोल पर अनेक लेख- 1868-1872 के बीच
VI. अधिवास एवं परिवहन भूगोल- 1908
VII. ऐतिहासिक व राजनीतिक भूगोल पर अनेक लेख
VIII. शोध यात्रियों के लिए दिशा निर्देशिका- 1886
उसकी दिलचस्पी चीन का विस्तृत भूगोल लिखने में रही । चीन का भूगोल के प्रथम खण्ड (Volume) में मध्य एशिया की पर्वतमाला, संभावित संसाधन, लोएस दश का निर्माण तथा मानव पर उनके प्रभाव का वर्णन किया । दूसरे खण्ड में उत्तरी चीन की संरचना व धरातलीय दशा कोयला खानों का वितरण मानव की आर्थिक क्रियाओं के विकास में योगदान का विशलेषण प्रस्तुत किया । तीसरे खण्ड में दक्षिणी चीन का वर्णन उन्हीं शीर्षकों में किया, जिस तरह उत्तरी चीन का किया ।
भूगोल को देन:
I. भूगोल की परिभाषा एवं अध्ययन सामग्री:
रिचथोफेन ने भूगोल के अध्ययन की विधियों व अर्थ के बारे में बताते हुए कहा कि ”भूगोल पृथ्वी तल का विज्ञान है । वह पृथ्वी तल पर पाये जाने वाले तत्वों क्यूं वस्तुओं, जिनमें परस्पर कार्यकारण सम्बन्ध पाये जाते हैं ।” भूगोल पृथ्वी का विज्ञान (Erd Kunde) ही नहीं है ।
बल्कि यह विस्तृत विषय है इसमें निम्न छ: क्षेत्रों का अध्ययन शामिल है:
(i) महाद्वीप अर्थात् थलमण्डल,
(ii) जलमण्डल,
(iii) वायुमण्डल,
(iv) वनस्पति एवं जीव जन्तु,
(v) जनसंख्या का वितरण,
(vi) जनसंख्या की भौतिक एवं सामाजिक विशेषताएं ।
उसका कहना था पृथ्वी पर घटित वह घटना भौगोलिक अध्ययन का अंग है । जो भूतल से प्रभावित या उससे सम्बन्धित है । उसने भूगोल के तीनों पक्षों भौतिक, जैविक एवं मानवीय, को भौगोलिक अध्ययन का अंग माना । उसने सभी तत्वों के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन पर बल दिया ।
II. भू-आकृति विज्ञान:
रिचथोफेन ने भौतिक भूगोल के अध्ययन पर जोर दिया । उसने फियोर्ड तटों व रिया तटों के बीच अंतर स्थापित किया मिट्टियों के निर्माण के बारे में बताया । उत्तरी चीन में लोएस के मैदान उसके पश्चिम के स्टेपी व निकटवर्ती प्रदेशों से वायु द्वारा उड़ाकर लायी गयी मिट्टी के जमाव से बने हैं ।
इसके अलावा नदी परिच्छेदिका का विकास, नदी का मार्ग परिवर्तन, जल की गति, नदियों का पुर्नयौवन, नदी अपरदन द्वारा निर्मित धरातलीय आकृतियां, के बारे में विस्तार से बताया । उसके विचार इतने महत्वपूर्ण थे, कि उसके शिष्य ए॰ पेन्क ने अपरदन चक्र विचार धारा की संरचना की । उसने दो प्रकार की भू-आकृतियां बताई- पर्वत एवं मैदान ।
पर्वतों को उत्पत्ति के आधार पर तीन वर्गों में बाँटा:
(i) महाद्वीपीय संचलन के कारण उत्पन्न वलित, ब्लाक (भ्रंशित) व ज्वालामुखी पर्वत ।
(ii) अपक्षय प अपरदन के कारण पर्वतों के स्वरूप में होने वाले परिवर्तनो से प्रभावित पर्वत, नवीन पर्वत, प्रौढ़ पर्वत, घर्षित पर्वत ।
(iii) पर्वतों का वास्तविक स्वरूप- इसमें पर्वतों की दृश्य भू आकृति के आधार पर उनको गुम्बदाकार, शंक्वाकार विच्छित एवं सपाट आकृति वाले पर्वतों की श्रेणी में वर्गीकृत किया ।
III. भूगोल क्षेत्र विवरण के रूप में:
रिचथोकेन ने भूगोल को विभिन्न क्षेत्रों का विवरण देने वाला विषय बताया । इस विवरण में क्षेत्र विशेष में विभिन्न तत्वों के परस्पर सम्बन्धों का वर्णन किया जाता है । इसको विशिष्ट भूगोल के अन्तर्गत शामिल किया ।
IV. भूगोल क्षेत्रीय विभिन्ताओं का अध्ययन:
पृथ्वी तल पर इतनी विभिन्नताएँ है, कि इनका विस्तृत विवरण देना आवश्यक है । वह क्षेत्रों की परस्पर तुलना करने का समर्थक था । प्रत्येक क्षेत्र की भौगोलिक विशेषता एक दूसरे से अलग होती है । इसी कारण उसका कहना था कि भौगोलिक अध्ययन में क्षेत्रीय सिद्धान्त को ध्यान में रखना अनिवार्य है ।
V. एकता की संकल्पना:
पृथ्वी तल के सभी तत्वों को हम्बोल्ट व रिटर की भांति परस्पर सम्बन्धित माना । इन सभी तत्वों में पार्थिव एकता (Terrestrial Unity) पर जोर दिया । उसने प्राकृतिक एवं मानवीय तत्वों के बीच गहन सम्बन्धों की व्याख्या की । प्रत्येक तत्व परस्पर इस तरह सम्बन्धित है कि एक दूसरे के बिना उसका अस्तित्व संदिग्ध हो जाता है ।
VI. भूगोल का संशलेषणात्मक विज्ञान के रूप में होना:
उसने भूगोल में पृथ्वी तल के अध्ययन के लिए आगमनात्मक पद्धत्ति को अपनाया । विभिन्न तत्वों के अध्ययन का आधार विशलेषण करना होता है । सभी विज्ञान जिन तत्वों का अध्ययन करते हैं, वे सभी पृथ्वी तल से सम्बन्धित होते है, तथा विभिन्न क्षेत्रों में पृथ्वी तल की विशेषताओं से प्रभावित है । भूगोल में इन तत्वों में आपस में अलग-अलग तथा सामूहिक रूप में रखकर अध्ययन किया जाता है, जिससे इसके संशलेषणात्मक स्वरूप का ज्ञान होता है ।
VII. भूगोल एक क्रमबद्ध विज्ञान:
भूगोल क्रमबद्ध विज्ञान है । उसने बताया कि सभी भौगोलिक तत्वों का क्रम बार अध्ययन करना भूगोल का आधारभूत तथ्य हैं इन तत्वों में सबसे पहले भौतिक फिर जैविक और बाद में मानवीय तत्वों का विशलेषण किया जाना चाहिए । उसका यह भी कहना था कि पृथ्वी तल की इतनी व्यापकता व विशालता है कि इनको पृथ्वी की एक इकाई मानकर अध्ययन किया जाना संभव नहीं है । इसलिए प्राकृतिक विशेषताओं के आधार पर पृथ्वी को बांटकर फिर सभी तत्वों का क्रम बार अध्ययन किया जाए । ऐसा अध्ययन तत्वों के पारस्पारिक सम्बन्धों की पहचान में सहायक होगा ।
उपरोक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि रिचथोफेन एक ओर तो भूगोल को क्रमबद्ध विज्ञान के रूप में देखता है फिर इन तत्वों के क्रमबद्ध अध्ययन के लिए पृथ्वी को छोटे-छोटे प्रदेशों में बांटकर अध्ययन करने पर जोर देता था । अत: द्वैतवाद को उसने स्पष्ट रूप में स्वीकार नहीं किया फिर भी भौगोलिक अध्ययन में इस विचार को बनाए रखा । अध्ययन के उपागम से इस भावना की पुष्टि होती है ।
भूगोल के अध्ययन उपागम:
भूगोल के व्यवस्थित अध्ययन हेतु उसने भूगोल को दो क्रमबार तथ्यों में बांटा:
I. विशेष भूगोल:
इसको वर्णनात्मक भूगोल का नाम दिया । यह संशलेषणात्मक उपागम पर आधारित है ।
इसका अध्ययन दो प्रकार किया जाता है:
(i) पृथ्वी तल पर अनेक प्रदेश है, जो अपनी-अपनी विशिष्टता पर आधारित होते हैं ।
(ii) पृथ्वी तल पर प्रत्येक प्रदेश अनेक भौगोलिक तत्वों की सामूहिक क्रिया एवं परस्पर सम्बद्धता का परिणाम होता है ।
भूगोल में किसी प्रदेश विशेष का विवरणात्मक एवं विवेचनात्मक स्तर पर अध्ययन किया जाता है । विवरणात्मक का तात्पर्य प्रदेश के विभिन्न भौतिक जैविक एवं मानवीय तत्वों का क्रमबद्ध अध्ययन प्रस्तुत करना होता है । इसमें ऐसे तत्वों का विवरण दिया जाता है, जो उस प्रदेश की भौगोलिक दशा का सही ज्ञान कराने में सक्षम होते हैं । विवेचनात्मक (Chorology) स्तर में पृथ्वी तल के प्रत्येक प्रदेश में तत्वों का स्थानीय विवरण, उनका कार्यात्मक सम्बन्ध एवं उनमें परिवर्तनशीलता का विवेचन शामिल होता है ।
II. सामान्य भूगोल:
इसके अन्तर्गत पृथ्वी तल पर पाये जाने वाले तत्वों का अध्ययन किया जाता है । इसमें कोई भी एक तत्व को चुनकर उसकी विशेषताओं का सम्पूर्ण पृथ्वी तल पर विवरण का अध्ययन किया जाता हैं । उदाहरण के लिए भूमध्यसागरीय जलवायु पृथ्वी तल के विभिन्न भागों मैं जहां-जहाँ मिलती है, उन सबको एक इकाई मानकर के अध्ययन किया जाता है । इस भूगोल में विभिन्न तत्वों का अध्ययन उनके स्वरूप, निर्माण पदार्थ प्रभावित करने वाली शक्तियां एवं कारण, तत्वों की गतिशीलता के दृष्टिकोण से किया जाता है ।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि रिचथोफेन ने भूगोल को सफलता प्रदान की । उसने भूगोल का अध्ययन क्षेत्र भौतिक भूगोल का विकास, क्रमबद्ध भूगोल की प्रधानता के साथ प्रादेशिक भूगोल को पूरक के रूप में पेश करना, सामान्य व विशिष्ट भूगोल की व्याख्या, पृथ्वी तल के विभिन्न तत्वों का विश्लेषण एवं विवेचन को भूगोल का अंग माना । उसके विचार भूगोल विषय के विकास में महत्वपूर्ण सिद्ध हुए ।
5. अल्फ्रेड हेटनर (Alfred Hettner):
हेटनर का जीवन काल 1859 से 1941 माना जाता है । उसको वर्तमान भूगोल का दार्शनिक व वैज्ञानिक आधार प्रदान करने वाला माना जाता है । 1859 के वर्ष में भूगोल जगत में दो बड़ी घटनाएँ घटी, एक ओर जहाँ इस भूगोलवेत्ता का जन्म हुआ, वहीं दूसरी ओर हम्बोल्ट और रिटर की मृत्यु हुई व डार्विन की पुस्तक जीवों की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रकाशित हुई ।
हेटनर ने जर्मनी के हेले, बोंन व स्ट्रासवर्ग विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की । उसकी शिक्षा भूगोल विषय में हुई । उसने किरचाँफ के निर्देशन में भूगोल का अध्ययन किया । 1881 में जार्ज जरलैण्ड के निर्देशन में चिली एवं पेटागोनिया का जलवायु एवं भूविज्ञान विषय पर शोघ कार्य किया ।
उस पर रिचथोफेन, रेटजेल, काण्ट, रिटर एवं हम्बोल्ट के विचारों का प्रभाव पड़ा । उसने भौगोलिक ज्ञान को विभिन्न यात्राओं द्वारा प्राप्त किया । उसने लीपजिग व बोन विश्वविद्यालयों से भूगोल में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ।
भौगोलिक यात्राएँ:
हेटनर ने यद्यपि मानव भूगोल के विशेषज्ञों के साथ कार्य किया लेकिन उसकी रूचि भौतिक भूगोल पर कार्य करने की रही । वह हम्बोल्ट की भांति क्षेत्रीय सर्वेक्षक (Field Worker) था । उसका अध्ययन क्षेत्र दक्षिण अमेरिका था ।
उसकी यात्राओं का विवरण इस प्रकार रखा जा सकता है:
i. 1882 में हेटनर कोलम्बिया की राजधानी बगोटा आया, यहां दो वर्ष रहा ।
ii. 1888 में वह दुबारा कोलम्बिया आया, यहाँ उसने कोलम्बिया से चिली के बीच दुर्गम क्षेत्रों की नाव, पैदल, रेल व पशुओं आदि साधनों से यात्रा की । यहां पर लम्बी यात्रा व प्रतिकूल परिस्थितियों ने उसके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाला । उसके पैरों की माँसपेशिया खिंच गई और वह लंगड़ाने लगा । 1891 में वह जर्मनी लौट गया ।
iii. 1897 में वह साइबेरिया व रूस की यात्रा पर गया । 1899 में लौटा ।
iv. 1895 में उत्तरी अफ्रीका गया ।
v. 1913-14 में एशिया गया ।
vi. उसने 1900 से 1920 के वर्षों में बीच-बीच में पश्चिमी यूरोपीय देशों की यात्रा की ।
प्रमुख रचनाएँ एवं ग्रन्थ:
हेटनर की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं:
I. चिली एवं पेटागोनिया की जलवायु एवं भूविज्ञान पर अपना शोध ग्रन्थ (1881) लिखा ।
II. 1885 से 1888 के बीच अनेक लेख लिखे ।
III. 1888 में कोलम्बियाई एण्डीज की यात्राओं पर एक ग्रन्थ लिखा ।
IV. 1895 से भूगोल पत्रिका (Geographische Zeitschrift) का जर्मन भाषा में सम्पादन एवं प्रकाशन प्रारम्भ किया ।
V. 1905 में रूस का भूगोल लिखा ।
VI. 1915 में इंगलैण्ड के विश्व प्रभुत्व पर राजनीतिक भूगोल लिखा
VII. विश्व के प्रादेशिक भूगोल का दो खण्डों में प्रकाशन कराया । एक तो यूरोप का प्रादेशिक भूगोल के रूप में और दूसरा शेष विश्व के प्रादेशिक भूगोल के रूप में । इन दोनों ग्रन्थों को क्रमश: 1907 व 1924 में भूगोल का आधार (Foundation of Geography) नाम से प्रकाशित कराया ।
VIII. 1928 में महाद्वीपों की धरातलीय रूपरेखा ।
IX. 1929 में भूतल पर संस्कृति का प्रसार ग्रन्थ लिखा ।
X. 1935 में तुलनात्मक प्रादेशिक भूगोल को चार खण्डों में लिखा ।
इसके अलावा उसकी एक रचना मानव भूगोल (Geography of Man) तीन खण्डों में प्रकाशित हुई- भूगोल का आधार, यातायात भूगोल, आर्थिक भूगोल ।
भूगोल को देन:
हेटनर प्राकृतिक भूगोल का ज्ञाता था, उसकी रूचि भौमिकी (Geodesy) भूआकृति विज्ञान, जलवायु विज्ञान में थी । इसके अलावा उसने प्रादेशिक भूगोल, मानव भूगोल पर भी कार्य किए ।
इन सबसे सम्बन्धित विचार इस प्रकार है:
भूगोल की परिभाषा एवं उसका विवेचन:
हेटनर ने बताया कि भूगोल भू-पृष्ठ का विज्ञान है । इसको स्पष्ट रूप से क्षेत्र विशेष के अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है । “भूगोल भूतल का वर्णन विज्ञान है । यह सामान्य भू-विज्ञान नहीं है, वह पृथ्वी के क्षेत्रों का विज्ञान है” ।
भूगोल का सम्बन्ध प्रकृति और मानव के बीच की पारस्परिक क्रियाओं से होता हैं । यह क्षेत्र विशेष में इन सम्बन्धों का मूल्यांकन करता है । इसका उद्देश्य क्षेत्रों का अध्ययन करना है । पृथ्वी के तल पर मिलने वाली विभिन्नताएं उसको क्षेत्रों में बांटने का आधार प्रदान करती हैं ।
इसी बात को आधार मानकर 1905 में हेटनर ने बताया कि:
भूगोल पृथ्वी का क्षेत्रीय विज्ञान है, जिसमें क्षेत्रों का अध्ययन उनकी विभिन्नताओं और मानव प्रकृति के बीच सम्बन्धों के मूल्यांकन से होता है । वह इन सम्बन्धों का विशलेषण एवं संशलेषण करता है । हेटनर ने भूगोल को रिचथोफेन व रेटजेल से हटकर परिभाषित किया ।
हेटनर ने भूगोल को न तो शुद्ध मानव भूगोल माना और न ही वितरण का विज्ञान । उसके अनुसार भूगोल पृथ्वी तल पर विभिन्नताओं को स्थापित करता है । इससे उसका क्षेत्रों में विभाजन होता है । यह क्षेत्र समीपवर्ती क्षेत्र से भिन्नता रखते हैं । क्योंकि इनमें मानव व प्रकृति के बीच सम्बन्धों में भिन्नता होती है ।
अत: भूगोल का अध्ययन निम्न बातों के विवेचन से सम्बन्धित है:
1. पृथ्वी तल को लघु प्रदेशों में विभाजित करना ।
2. एक प्रदेश की दूसरे प्रदेश से तुलना करना ।
3. क्षेत्रों में प्रकृति एवं मानव के बीच सम्बन्धों का विवेचन करना ।
4. क्षेत्रों का तुलनात्मक अध्ययन करना ।
5. प्रत्येक क्षेत्र की विशिष्ठिता का निरूपण करना ।
6. भूतल के तत्वों प्रमुख रूप से स्थल, वायु, जल, पशु वनस्पति एवं मानव के अन्तर्सम्बन्धों को पहचानना ।
अध्ययन विधि:
हेटनर ने भूगोल के .अध्ययन के लिए एक पुस्तक भूगोल का विधि तन्त्र (Methodology) 1927 में प्रकाशित कराई थी । वह हम्बोल्ट द्वारा प्रतिपादित अध्ययन पद्धति का अनुसरण करने वाला बना । उसने प्रत्यक्ष अनुभवपरक (Empirical) एवं आगमनात्मक विधि (Inductive Method) का अनुसरण किया ।
वह भूगोल को प्रत्यक्षपरक विज्ञान (Field Science) मानता था । वह पृथ्वी तल को छोटी-छोटी इकाइयों (क्षेत्रों) में बांटकर अध्ययन करने का समर्थक था । उसने ऐसा पृथ्वी पर मिलने वाली विभिन्नताओं को पहचानने के लिए किया । इसी कारण वह तुलनात्मक पद्धति पर जोर देता था । उसने क्षेत्रों में मानव एंव प्रकृति के सम्बन्धों के लिए विशलेषण पद्धति को अपनाया ।
भौगोलिक अध्ययन में मानव को अन्य तत्वों की तरह शामिल करना:
हैटनर ने मानव को भौगोलिक अध्ययन में केन्द्रीय स्थान नहीं दिया । उसने मानव को भौतिक जगत के छ: तत्वों में शामिल किया । मानव का भी अन्य तत्वों की भांति उनकी विशेषताओं के आधार पर अध्ययन होना चाहिए । एक क्षेत्र में पाये जाने वाले सभी तत्वों के मध्य स्थानिक अन्तर्सम्बन्ध एवं कार्य-कारण सम्बन्धों का विवेचन भूगोल का प्रमुख सार है ।
यद्यपि मानव पृथ्वी के स्वरूप परिवर्तन में प्रमुख भूमिका निभाता है, लेकिन उसको अन्य तत्वों से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता । मानव अन्य तत्वों के साथ मिलकर ही अपना योगदान देता है । वह इन तत्वों पर निर्भर रहकर कार्य करता है ।
इस प्रकार भूगोल न तो शुद्ध प्राकृतिक विज्ञान है और न शुद्ध मानव विज्ञान । यह तो प्राकृतिक वातावरण एवं मानव के अर्न्तसम्बन्धों का विज्ञान है । भूगोल में किसी भी तत्व का अध्ययन उसकी अन्य तत्वों पर परस्पर निर्भरता व अर्न्तसम्बन्धता के आधार पर किया जाता है ।
इस प्रकार भूगोल क्षेत्रों का विज्ञान है, जो भौतिक व मानवीय पक्षों का विवेचन संयुक्त रूप में करता है । इसमें किसी भी प्रकार का द्वेतवाद नहीं है । उसने भूगोल के अध्ययन में आनुवंशिक उपागम (Genetic Approach) पर जोर दिया । इस उपागम का तात्पर्य क्रमबद्ध उपागम से लगाया जिसमें तत्वों का अध्ययन इस तरह से किया जाए कि पहले किस भौगोलिक तत्व की उत्पत्ति होती है, और उसके बाद कौन सा तत्व अपनी उपस्थिति रखता है ।
उदाहरणार्थ, जलवायु के बाद ही वनस्पति का स्थान आता है, क्योंकि जलवायु ही वनस्पति की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी होती है । वास्तव में हेटनर ने भूगोल को एक नई दिशा प्रदान दी, उसने भूगोल को वैज्ञानिक एवं दार्शनिक आधार प्रदान किया ।