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जर्मनी में भूगोल का वैज्ञानिक विकास अठारहवीं शताब्दी की देन है । भूगोल को एक विषय के रूप में स्थापित करने का श्रेय जर्मन भूगोलवेत्ताओं को हैं । यहां हम्बोल्ट ने क्रमबद्ध भूगोल और कार्ल रिटर ने प्रादेशिक भूगोल की नींव रखी । इनके विचारों ने जर्मनी में भूगोल के विकास को आधार प्रदान किया ।
जर्मन विद्वानों ने भूगोल को विवरणात्मक विषय बताते हुए उसे गतिशील रूप दिया । उसको कालानुक्रमिक विषय बताया । इन विद्वानों ने भौगोलिक अध्ययनों में क्षेत्र विशेष के सर्वेक्षण पर जोर दिया तथा उस क्षेत्र में जाकर ही प्राप्त अनुभवों को भौगोलिक अध्ययनों का आधार माना ।
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हम्बोल्ट और रिटर के अलावा जर्मनी में जिन विद्वानों के विचारों को महत्व दिया जाता है, उनमें काण्ट, रिचथोफेन, रेटजेल, हैटनर, पैशेल, फास्टर्स, अल्वर्ट एवं बाल्टरपैंक, कार्लहाउसोफर, किस्टालर, वान थ्यूनेन, कार्ल ट्राऊल, आरई. डिकिन्सन के नाम उल्लेखनीय हैं । इन विद्वानों ने भूगोल के लगभग सभी पक्षों पर अपने विचार रखे । यद्यपि प्रत्येक विद्वान अपने-अपने विषय का पारंगत था, लेकिन इन सबके विचारों का समग्र रूप भूगोल की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है ।
जर्मनी में जिन विचारधाराओं को विभिन्न विद्वानों ने विकसित किया, वह इस प्रकार हैं- 1. वैज्ञानिक भूगोल, 2. क्रमबद्ध भूगोल, 3. प्रादेशिक भूगोल, 4. मानव व वातावरण के सम्बन्धों का निश्चयवाद, 5. भूगोल क्षेत्रीय विज्ञान (Chorological Science) के रूप में, 6. भू-आकृति विज्ञान (Geomorphology), 7. भूगोल और राजनीति (Geo-Politics) 8. मानव बस्तियों व सम्बधित तथ्यों का अवस्थिति सिद्धान्त 9. सभी प्रकार के भूदृश्य (Landschaft or Landscape) का अध्ययन, 10. प्रादेशिक पारिस्थितिकी (Regional Ecology), 11. भूगोल की विभिन्न शाखाएं (Various Branches of Geography) ।
जर्मनी के किसी न किसी विद्वान ने उपरोक्त में से किसी एक या दो विचाराधाराओं को अपने भौगोलिक अध्ययनों में शामिल किया । जार्ज फास्टर ने वैज्ञानिक भूगोल, क्रमबद्ध भूगोल, हम्बोल्ट ने क्रमबद्ध भूगोल, रिटर व रेटजेल ने प्रादेशिक भूगोल, रेटजेल ने निश्चयवाद, रिचथोफेन ने क्षेत्रीय विवरण, हैटनर व पैन्क ने भू-आकृति विज्ञान, हाँशोफर ने भू-राजनीति, वान थ्यूनेन क्रिस्टालर, बेवर ने अवस्थिति, पर अपने विचार विशेष रूप से प्रकट किए थे ।
क्रियात्मक एवं वैज्ञानिक विचारधारा:
जर्मनी में पिता जे. रीनहाल्ड फार्स्टर (Reinhold Forster) और उनके पुत्र जार्ज फार्स्टर (George Forster) ने पृथ्वी के विभिन्न भौगोलिक तथ्यों को वैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत किया था । उनके पर्यवेक्षण वैज्ञानिक व तर्कसंगत विधियों पर आधारित थे । इन्होंने भौतिक भूगोल, मानव भूगोल पर अपने विचार व्यवस्थित ढंग से रखे थे ।
मानव वातावरण के बीच घनिष्ठ सम्बन्धों तथा मानव स्थानान्तरण पर प्रभाव डालने वाले भौतिक एवं सांस्कृतिक कारकों का वैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया । रीनाहाल्ड फोर्स्टर ने भूगोल में अध्ययन की विभिन्न विधियों का प्रतिपादन किया था ।
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शुद्ध भूगोल:
शुद्ध भूगोल से तात्पर्य पृथ्वी तल का भौगोलिक वर्णन प्राकृतिक प्रदेशों के अनुसार करना है । सर्वप्रथम बुआचे (Buache 1700-1773) ने 1737 में ईगंलिश चैनेल का धरातलीय मानचित्र बनाया व उसमें समोच्च रेखाओं को प्रदर्शित किया । 1775 में जे॰सी॰ गट्टेरेर (J.C. Gatterer) ने प्राकृतिक क्षेत्रों को भौगोलिक अध्ययन के लिए चुना व संक्षिप्त भूगोल (Abriss der Geographic) की रचना की । 1810 में होम्मेयर (Hommeyer) ने यूरोप का भूगोल पुस्तक की रचना की, जिसमें यूरोप की धरातलीय दशा, भू-आकृतिक प्रदेश व उनका विस्तार, विभिन्न प्राकृतिक प्रदेशों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध का विवरण दिया ।
ज्यूने (Zuene) ने भी नदी बेसिन के आधार पर प्राकृतिक प्रदेश बनाए । इसमें से प्रत्येक बेसिन की धरातलीय दशा, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, प्रकृति व मानव के बीच सम्बन्धों का वर्णन किया । उपरोक्त सभी विचार शुद्ध भूगोल के वर्ग में आते हैं, जिसमें प्राकृतिक तथ्यों का भौगोलिक विशलेषण किया गया था ।
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जर्मनी के विद्वानों ने अपने अध्ययन में किसी न किसी एक विचारधारा को अपनाया, लेकिन साथ-साथ अन्य विषयों पर भी अपने विचार प्रस्तुत किए । इन विचारों को विभिन्न विद्वानों के भौगोलिक योगदान के रूप में व्यक्त किया जा सकता है ।
1. अल्ब्रेच्ट पैन्क (Albrecht Penck):
उसका जीवन काल 1870 से 1945 माना जाता है । वह भू-आकृति विज्ञानवेत्ता था । वह एक प्रख्यात शिक्षक, लेखक था । 1905 में उसकी नियुक्ति बर्लिन विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर के पद पर हुई थी । उसने अपने अध्यापन काल में अनेक भौगोलिक यात्राएं की थी । वह धरातलीय आकृतियों की उत्पत्ति कारणों व उनकी विशेषताओं को अध्ययन में रूचि रखता था ।
वह भौगोलिक प्रकाशन संस्था का निर्देशक था, जिसमें उसने जीवन पर्यन्त अनेक शोध लेखों का प्रकाशन कराया । उसके दो गन्ध महत्वपूर्ण हैं । एक, 1884 में प्रकाशित भू-आकृति विज्ञान, और दूसरी 1910 में प्रकाशित आल्पस इन सी आइस एंज ‘The Alps in the Ice Age’ उसने कोलम्बिया की मेहमान प्रोफेसर के रूप में यात्रा की थी ।
2. वाल्थर पैन्क (Walther Penck):
वह अ0पैन्क्र का सुपुत्र था । वह भी भू-आकृति विज्ञान विशेषज्ञ था । उसने अमरीकी भू-विज्ञानवेत्ता के अपरदन चक्र सिद्धान्त की आलोचना करते हुए नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया, और बताया कि अपरदन चक्र की तीनों प्रक्रियाएं पूरी होने से पहले उसमें अनेक बाधाएं उपस्थित हो सकती हैं ।
यह बाधाएँ भू-आकृतियों के पुर्नयुवन (Rejuvenation) के कारण उत्पन्न होती हैं । जिन क्षेत्रों में अपरदन के साथ-साथ भू-उत्थान भी साथ-साथ चलता रहता है, वहां धरातल का समतलीकरण होता रहता है । इस प्रकार उसका मत था कि अपरदन चक्र की प्रक्रिया तीनों अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था में अपनी गति में परिवर्तन कर लेती है । उसके विचार एक ओर भू-निर्माण ये सम्बन्धित थे, तो दूसरी ओर अपरदन की प्रक्रिया से । उसकी पहचान आज भी एक भू-आकृति विज्ञानवेत्ता के रूप में होती है ।
3. कार्ल ट्राल (Carl Trall):
उसका जीवनकाल 1899 से 1968 का है । उसने म्यूनिख विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान प्राकृतिक विज्ञान, व भूगोल में शिक्षा प्राप्त की । 1921 में वनस्पति विज्ञान में पी॰एच॰डी॰ उपाधि प्राप्त की । 1921 में उन्होंने भूगोल का अध्ययन कार्य प्रारम्भ किया । 1937 में वह बोन विश्वविद्यालय में भूगोल के प्रोफेसर नियुक्त हुए, और 1965 तक कार्य करते रहे । इस अवधि में उन्होने अनेक भौगोलिक यात्राएँ की, व शोध पत्र लिखे ।
यात्राएं:
ट्राल ने अपनी भौगोलिक यात्राओं में नई-नई तकनीकों का प्रयोग किया । नये-नये क्षेत्रों के वायु फोटो प्राप्त किए ।
(i) 1924 में उत्तरी यूरोप की यात्रा ।
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(ii) 1926 में एण्डीज क्षेत्रों की यात्राएँ ।
(iii) 193३-34 में अफ्रीका की यात्रा ।
(iv) 1937 में हिमालय के गंगा नदी के उदगम क्षेत्र की यात्रा ।
प्रकाशित ग्रन्थ व शोध लेख:
वह एक प्रसिद्व भूआकृति विज्ञानवेत्ता (Geomorphologist) तथा प्रादेशिक परिस्थिति विज्ञानवेत्ता (Regional Ecologist) था । उसने विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्राकृतिक तत्वों जलवायु, वनस्पति, धरातल का स्वरूप, मिट्टी परस्पर अन्तर्निर्भर है व अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे से सम्बन्धित है ।
उसके द्वारा लिखित ग्रंथ इस प्रकार है:
(i) 1924 में अल्पाइन अग्रभूमि के हिमनद विज्ञान (Glaciology) पर शोध लेख लिखा ।
(ii) 1925 में मध्य यूरोप की वनस्पति पर शोध लेख ।
(iii) 1926 में जर्मन अल्पाइन की वनस्पति व भू-दृश्य पर शोध पुस्तक ।
(iv) 1930 में बवेरिया की हिमनदीय भू-आकारिकी (Glacial Morphology) नामक पुस्तक की रचना की ।
(v) 1930 में दक्षिण अमेरिका की धरातलीय रूपरेखा, जलवायु व वनस्पति के सम्बन्धों पर अनेक शोध लेखों का प्रकाशन कराया ।
(vi) 1937 में हिमालय की वनस्पति पेटियों का जलवायु से सम्बन्ध पर लेख लिखा ।
(vii)1944 में पृथ्वी की भूतकालीन जलवायु, मृदा की सरंचना व परिवर्तनों (Structural Soils, Fluctuation and Post-Climate of the Earth) पर एक पुस्तक की रचना की ।
(viii) 1948 में यूरोप महाद्वीप की उपहिमानी के. घटकों एवं भूकालानुक्रमिक (Per glacial Phenomena and Geochronology) पर शोध लेख लिखा ।
(ix) भूगोल के विधि तन्त्र (Methodology) पर शोध पत्र ।
(x) 1958 में मानचित्रावली की रचना की ।
कार्ल ट्राल की ख्याति एक श्रेष्ठ शोधकर्त्ता के रूप में थी । स्पष्ट है कि जर्मन विद्वानों ने भूगोल के सभी पक्षों पर विचार मौलिक रूप से प्रस्तुत किए थे, वह उनके अनुभव तथा प्रत्यक्ष सर्वेक्षण पर आधारित थे ।
4. अन्य विद्वान (Other Scholars):
जर्मनी में जिन अन्य विद्वानों का योगदान सराहनीय माना जाता है ।
उनको विचारधारा के अनुसार इस तरह रखा जा सकता है:
राजनीतिक भूगोल पर जर्मन विचार:
इस भूगोल का विकास जर्मनी में हुआ था । ऐसा माना जाता है कि भू-राजनीति (Geopolitics) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम स्वीडिश भूगोलवेत्ता जेलेन (Kjellen) ने किया था, लेकिन रेटजेल के ग्रन्थ राजनीतिक भूगोल ने जो 1897 में प्रकाशित हुआ था, इसको एक विचारधारा के रूप में विकसित किया ।
इसको 1922 म प्रकाशित सूपान का पुस्तक सामान्य राजनीतिक भूगोल के मार्ग दर्शक सिद्धान्त (Guiding Principles of General Political Geography) से काफी महत्व मिला जर्मन लोगों ने हिटलर के शासन में अपनी राजनीतिक श्रेष्ठता को सिद्ध करने का प्रयास किया । इसी कारण द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व व युद्ध के दौरान इस संकल्पना का विकास हुआ ।
जर्मनी के जिस विद्वान ने इस विचारधारा का विकास किया, उसमें कार्ल हाँशोफर (Karl Haushofer) का नाम अग्रणी है । 1924 में उसकी नियुक्ति मुंचेन (Munchen) विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर हुई थी ।
इस पद पर रहते हुए उसने राजनीतिक भूगोल से सम्बन्धित लेखों व ग्रन्थों का प्रकाशन कराया, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं:
1. भू-राजनीति पर पत्रिका का प्रकाशन (Zeiotschrift for Geopolitics) नाम से प्रारम्भ किया । इस पत्रिका में जेलेन (Kjellen), महन (Mahan), अमेरिका के फ्रेयरग्रीव (Fair grieve) और ब्रिटेन के मैकिण्डर (Mackinder) के लेखों का प्रकाशन किया गया । इन लेखों में जर्मनी को राजनीतिक शक्ति के रूप में स्वीकार कराया गया । समय के साथ यह पत्रिका नाजी पार्टी की भौगोलिक धर्म-पुस्तिका बन गई ।
2. भू-राजनीति की विचारधारा पर एक ग्रंथ मीन कैम्फ (Mein Kampf) का प्रकाशन कराया, जिसे हिटलर ने बहुत पसन्द किया ।
3. 1930 में भू-राजनीति पर एक पुस्तक प्रशान्त महासागर की सीमाओं की भू-राजनीति (Geopolitics of the Pacific Ocean Boundaries) लिखी ।
4. 1932 में महान शक्तियों के पार (Beyond the Great Powers) लिखी ।
5. 1938 में संस्कृति के युद्ध में रहने का स्थान (Living Space in the Battle of Cultural)
6. भू-राजनीति के आधार शिलाएँ (Corner Stones of Geopolitics)
हाँशोफर के द्वारा रचित उपरोक्त पत्रिकाओं एवं अर्थों से जर्मनी में भू-राजनीति विषय के विकास को बल मिला । नाजी पार्टी ने हीशोफर के विचारों को बहुत महत्व दिया । उसके सरंक्षण में अनेक विद्वानों ने भू-राजनीति पर उल्लेखनीय कार्य किए, जिनमें माँल (Maull), ओवस्ट (Eobst), एच॰ लाटेनसाच (H. Lautensach), कार्ल सेपर (K. Sapper), एच॰ हसिंगर (H. Hassinger), डिक्स (Dix), हेनिंग (Henning) के नाम शामिल हैं ।
भू राजनीति की परिभाषा:
हाँशोफर ने बताया कि भू-राजनीति वह विज्ञान है, जिसमें प्राकृतिक वातावरण और राजनीतिक जीवन का अध्ययन किया जाता है । उसका कहना था कि प्रत्येक राजनीतिक घटना का कोई न कोई भौगोलिक आधार होता है । भूगोल और राजनीति एक दूसरे के पर्याय है ।
क्षेत्रीय विस्तार की कल्पना:
1938 में हाँशोफर की पुस्तक जर्मन संस्कृति से सम्बन्धित पुस्तक प्रकाशित हुई, तो जर्मनी की नाजी पार्टी के दिमाग में यह विचार आया कि जिन भूभागों में जर्मन संस्कृति विद्यमान है, उन-उन क्षेत्रों पर जर्मनी का अधिकार होना चहिए ।
उन्होंने रहने का स्थान (Lebensraum) की संकल्पना को विकसित किया । इसी बात को ध्यान में रखकर जर्मनी ने पड़ौसी देशों पर अपना अधिकार जमाना प्रारम्भ कर दिया, लेकिन युद्ध लम्बा चलने के कारण जर्मनी इसमें बुरी तरह पराजित हो गया, और हाँशोफर के विचारों की विश्वसनीयता में कमी हो गई ।
प्रादेशिक भूगोल:
रिटर के अर्दकुण्डे के प्रकाशन ने जर्मनी में प्रादेशिक भूगोल की संकल्पना का प्रारम्भ किया । रेटजेल व रिचथोफेन ने इस विचार धारा को विकसित किया । 1925 में जर्मन सरकार ने भूगोलवेत्ताओं को विश्व के विभिन्न प्रदेशों का भूगोल लिखने के लिए प्रेरित किया, तथा उनको इन प्रदेशों की यात्रा करने के लिए आर्थिक अनुदान दिया ।
वहां से लौटकर इन्होंने जो भी प्रादेशिक भूगोल लिखे, उनको सरकार ने प्रकाशित करवाया । जिन ग्रंथों को लोकप्रियता मिली उनमें शामिल हैं- बेबेल का दक्षिणी मेक्सिको, मार्टेन्सन का चिली, कार्ल ट्राऊल का ऐण्डीज, कान्टेर का अर्जेण्टाइना, कोहल का दक्षिणी जाजिर्या केड़नर का थाईलैण्ड मेकिंग का जापान, शिमथेनेर का चीन, ट्रिंकलर का तिब्बत, लाटेन्साच का पुर्तगाल, ग्रीन का इटली, मुल्लेर का स्पेन, बान का पौलेण्ड, बेहरली का भारत, हेटनर का रूस, पसारगो का दक्षिण अफ्रीका । यह सभी ग्रंथ श्रेष्ठ प्रादेशिक भौगोलिक अध्ययन माने गए ।
अवस्थिति सिद्धान्त संकल्पनाएँ:
जर्मन भूगोलवेताओं ने नगरीय बस्तियों, सेवा केन्द्रों, उद्योगों के स्थापन पर अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किए, जो आज भी व्यवहारिक दृष्टि से उपयोगी प्रतीत होते हैं ।
कुछ प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं:
(1) वान थ्यूनेन (Von Thunen) का अवस्थिति सिद्धान्त (1783-1850):
उसने 1826 में नगर के चारों ओर की भूमि का उपयोग का सिद्धान्त प्रस्तुत किया उसने नगर के डरी ओर कृषि उत्पादन की छ: सकेन्द्रीय पेटियों की उपस्थिति बताई । इनमें किस प्रकार की पेटी नगर के समीप स्थापित होगी, और कौन सी दूर, यह परिवहन व उत्पादन की लागतों पर निर्भर होगा । आंतरिक पेटी अधिक लाभ देने वाली पेटी होगी । नगर से दूरी बढ़ने पर कम महत्व की सकेन्द्रीय कृषि भूमि उपयोग की पेटियां स्थापित हो जाएगीं । यह सिद्धान्त नगर के चारों ओर एक समान भू-तल (Entirely) की कल्पना पर आधारित है । केन्द्रीय स्थान सिद्धान्त का प्रतिपादन इसी आधार पर किया गया ।
(2) किस्टाँलर (W. Christaller) का केन्द्रीय स्थान सिद्धान्त (1893-1969):
इस जर्मन अर्थशास्त्री ने इस विचारधारा का प्रतिपादन 1933 में किया था । उसका सिद्धान्त नगरीय और ग्रामीण बस्तियों के बारे में है । एक नगरीय केन्द्र को उत्पादक भूमि का एक निश्चित क्षेत्रफल आधारित रखता है । इस केन्द्र की सत्ता इसलिए बनी रहती है कि वह अपने चारों ओर के प्रदेश को अनिवार्य सेवाएं प्रदान करता है ।
आदर्श रूप से नगर अपने उत्पादक क्षेत्र के केन्द्र में स्थित होना चाहिए । उसने इस आधार पर नगरीय व ग्रामीण सेवा केन्द्रों को सात प्रकार का बताया तथा उनके सेवा क्षेत्रों का आकार, दूरियां व सेवित जनसंख्या को निर्धारित किया । उसने तीन सिद्धान्तों बाजार, परिवहन व प्रशासकीय को अपनाया । उसका केन्द्रीय स्थान सिद्धान्त आज भी प्रांसगिक दिखायी पड़ता है ।
(3) बेवर का उद्योग अवस्थिति सिद्धान्त (Alfred Weber’s Theory of the Location of Industries):
यह भी जर्मन अर्थशास्त्री है । उसने 1910 में उद्योगों के स्थापन पर अपना सिद्धान्त प्रतिपादित किया था । उसने बताया था किसी भी क्षेत्र में उद्योगों के स्थापन पर जिन बातों का प्रभाव पड़ता है, उनमें परिवहन की लागत, श्रम की लागत, कच्चे माल की उपलब्धता, बाजार व उद्योग के बीच की दूरी प्रमुख है । उसका यह सिद्धान्त उद्योगों के स्थापन की व्याख्या करने में सहायक सिद्ध हुआ है ।
लैण्डशाफ्ट की विचारधारा:
लैण्डशाफ्ट जर्मन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ सादृश्य प्रदेश (Region with the Appearance) से है । यह भूमि विशेष के विभिन्न दृश्यों व उनकी प्रादेशिक विशेषताओं का वर्णन करता है । जबकि अंग्रेजी का लैण्डस्केप (Landscape) शब्द दृश्य भूमि को बताता है ।
जर्मन भूगोलवेत्ताओं ने भूगोल में इस शब्द के प्रयोग पर जोर दिया है । उनके अनुसार भूगोल पृथ्वी के विभिन्न दृश्यों का वर्णन करता है, तथा उनकी प्राटेशिक भिन्नताओं को स्पष्ट करता है । यह संकल्पना ही भूगोल का हृदय भाग है ।
भूगोल में पृथ्वी तल का अध्ययन उसको प्रदेशों में बांटकर किया जाता है । इन प्रदेशों का वर्णन क्रमबद्ध तरीके से प्राकृतिक एवं मानवीय तत्वों के आधार पर किया जाता है । एच॰ शिमथेनेर का कहना है कि भूगोल प्रदेश का क्रमबद्ध विज्ञान है ।
इसमें प्राकृतिक व सांस्कृतिक दोनों प्रकार के प्रदेशों का अध्ययन किया जाता है। इनको क्रमश: आकारिकी प्रदेश (Formal Region) तथा कार्यात्मक प्रदेश (Functional Region) कहा जाता है । इस विषय पर लाऊटेन्साच (Launtensach), कार्ल ट्राल (Carl Trall), शिमथसेन (Schmithusen), केरोल (Carol), बोवेक (Bobeck) तथा उहलिग (Uhlig) ने अपने-अपने विचार प्रकट किए हैं ।
यद्यपि लैण्डशाफ्ट शब्द का भूगोल में सर्वप्रथम प्रयोग पैसारगे (Passarge) ने 1913 में किया था लेकिन यह शब्द पहले से ही प्रचलन में रहा है । भूगोल में पृथ्वी तल के विभिन्न रूपों को प्रादेशिक स्तर पर पहचान कराने का जोर रहा है उसका उद्देश्य स्थानिक व्यवस्था में स्थापित भौतिक एवं मानवीय तत्वों के क्षेत्रीय अर्न्तसम्बन्धों को प्रादेशिक स्तर पर समझना है ।
लेण्डशाफ्ट शब्द का प्रयोग प्रदेश के लिए किया जाता है । इसकी अलग विशेषता होती है । यह विशेषता स्वरूपीय व कार्यात्मक दोनों प्रकार की होती है । कार्यात्मक पक्ष को कार्ल ट्राल ने पारिस्थितिकी (Ecological) का नाम दिया है । इसे प्रादेशिक पारिस्थतिकी (Regional Ecology) भी कहते हैं । पारिस्थतिकी शब्द प्राकृतिक दशाओं की परस्पर अन्तर्सम्बन्धता को बताता है ।
इसका अध्ययन विभिन्न प्राकृतिक विज्ञानों के विशेषज्ञों के द्वारा किया जाता है । लेकिन भूगोलवेत्ता इन सभी तत्वों को एक साथ रखकर देखता है । वह प्रदेश का अध्ययन करते समय इन सभी बातों पर जोर देता है । प्रदेश आकार की दृष्टि से बड़े भी हो सकते है, छोटे भी । इनका एक पदानुक्रम होता है ।
इन प्रदेशों में प्राकृतिक तत्वों के साथ जीव जन्तुओं व मानवीय क्रियाकलापों के बीच सम्बन्धों का अध्ययन भूगोल करता है । सम्बन्धों की इस व्यवस्था को ब्रिटिश पादप पारिस्थतिकी विद्वान तांस्ले (Tansley) ने पारिस्थितिकी व्यवस्था (Ecosystem) का नाम दिया । इसमें विभिन्न प्राकृतिक तत्वों को एक समूह व परस्पर निर्भरता के रूप में देखा जाता है ।
इसी को कार्ल ट्राल (Carl Trall) ने सांस्कृतिक और आर्थिक प्रदेशों के सम्बन्धों पर विशेष बल दिया है । इन सम्बन्धों को प्रादेशिक स्तर पर परीक्षण किए जाने के कारण प्रादेशिक पारिस्थतिकी का नाम दिया गया । कार्ल ट्राल ने भूगोल विषय की विचारधारा को विकसित करने में मदद की है । उसके द्वारा दिए गए विचारों को इस प्रकार रखा जा सकता है ।