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Read this article in Hindi to learn about the Contribution of Russia to World Geography (In Hindi).
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सोवियत संघ भौगोलिक विभिन्नताओं से युक्त विशाल देश है । इन विभिन्नताओं ने भौगोलिक अध्ययन की ओर अपना ध्यान खींचा हैं । विषम धरातल, कठोर जलवायु, विस्तृत नदियां, विस्तृत अपहुँचनीय जनविहीन क्षेत्र ने भौगोलिक ज्ञान प्राप्त करने में अनेक बाधाएँ उपस्थित की हैं ।
इन सबके कारण यहाँ के शासकों ने दूसरे देश के विद्वानों को अपने यहाँ आमंत्रित करने के साथ-साथ देश के विद्वानों को भी विभिन्न क्षेत्रों के अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया । इन शासकों ने भूगोल को मानव समस्याओं का हल करने वाले विषय के रूप में देखा । उन्होंने इस विषय को वैज्ञानिक रूप देने का प्रयास किया । देश के आर्थिक विकास की योजनाएं बनाने में यहाँ के संसाधनों के ज्ञान को आवश्यक बताया था ।
सोवियत संघ में भूगोल के विकास का एक लम्बा इतिहास है, जिसको निम्न शीर्षकों द्वारा समझा जा सकता है:
i. भौगोलिक ज्ञान का विकास एवं भौगोलिक यात्राएँ:
यहाँ पर भौगोलिक ज्ञान के प्रारम्भिक साधनों में यात्रा एवं अन्वेषण माने जाते है । नौवीं शताब्दी से ग्यारहवीं शाताब्दी तक रूस में रहने वाले स्लाव लोगों के व्यापारिक व सांस्कृतिक सम्बन्ध पश्चिमी यूरोप तथा एशिया के लोगों के साथ स्थापित हो चुके थे ।
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इन देशों के लोग जब भी एक भाग से दूसरे भाग मैं जाते थे, तो वह रूस से होकर जाते थे, उनको काला सागर और कैस्पियन सागर के तटवर्ती क्षेत्रों का अच्छा ज्ञान था । 12वीं शताब्दी में रूस के यात्रियों ने यूरोप, उत्तरी अफ्रीका, अरब देशों एवं भारत की यात्राएँ की । 15वीं शताब्दी में साइबेरिया एवं पश्चिमी यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएँ की गई । 16वीं व 17वीं शताब्दी में आयोजित खोज यात्राओं का मुख्य उद्देश्य देश का विस्तार करना था ।
इस उद्देश्य से मध्य एशिया, सुदूरपूर्व एवं उत्तरी साईबेरियाई क्षेत्र की यात्राएँ की गई, व उनके मानचित्र भी बनाए गए । 1639 में मोस्कोवितिन ने ओखोटस्क सागर व प्रशान्त महासागर के पश्चिमी तट तक की यात्राएं की । 1648 में देजनेव व पोकोव यात्रियों ने बेरिंग जलडमरूमध्य को पार किया । 1667 में नोदनोव ने साइबेरिया का रेखाचित्र तैयार किया । इस प्रकार 17वीं शताब्दी में रूसी यात्रियों का प्रमुख उद्देश्य रूस के पूर्वी, उत्तरी व दक्षिणी भाग के बारे में जानकारी प्राप्त करना था ।
ii. भौगोलिक अन्यों एवं मानचित्रावालियों का प्रकाशन:
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सोवियत संघ के शासक अपने विशाल दंश का मानचित्रण किये जाने के लिए अति उत्सुक थे । पीटर महान के शासन काल (1685-1725) में इस दिशा में विशेष प्रयास किए गए । भूगोल की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना, नये-नये स्थलों की खोज करना, अनुकूल आवासीय क्षेत्रों की खोज करना, खनिज, मिट्टी संसाधनों की खोज करना, तथा नये-नये क्षेत्रों के मानचित्र तैयार करना आदि कदम इस समय उठाए गए ।
1701 में रेमजोव (Remezov) ने साइबेरिया की प्रथम मानचित्रावली (Atlas of Siberia) तैयार की । पीटर ने अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए पूर्वी भाग की जो खोज यात्राएँ आयोजित कराई थी, तथा जो भौगोलिक कटे एकत्र किए थे, उनका प्रकाशन कराने के लिए विद्वानों को प्रोत्साहित किया ।
1719 में मानचित्र कार्यालय की स्थापना की गई, इवान किरिलोव (Kirilov) को इसका अध्यक्ष बनाया गया । उसने रूस के प्रादेशिक भूगोल पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक समस्त ‘रूसी साम्राज्य की उन्नतिशील अवस्था’ (The Flourishing Stage of all the Russian Empire) था । किरिलोव ने फ्रांसीसी मानचित्रकारों की तकनीकी सहायता से 1734 में रूसी साम्राज्य की प्रथम मानचित्रावली का प्रकाशन कराया । इससे रूस की प्राकृतिक सम्पदा के बारे में विस्तृत जानकारी मिली ।
1745 में विज्ञान अकादमी ने भी रूसी साम्राज्य की मानचित्रावली का प्रकाशन कराया । 1746 में चिरिकोव (Chirikove) ने प्रशान्त महासागर में रूसी भौगोलिक खोजों का सामान्य मानचित्र तैयार किया । 1758 में लोमोनोसोव को विज्ञान अकादमी के भूगोल विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया । उसने भूगोल को वैज्ञानिक रूप दिया ।
iii. लोमोनोसोव काल:
1724 में विज्ञान अकादमी को स्थापना व 1758 में लोमोनोसोव का भूगोल विभाग का अध्यक्ष बनना, भूगोल के विकास में सहायक हुआ । यहाँ पर अनेक स्थानों पर भूगोल की उच्च शिक्षा का विकास किया गया ।
देश में भूगोल के अध्ययन के तीन प्रादेशिक सम्भाग निर्धारित किए गए:
1. यूराल प्रदेश
2. साइबेरिया प्रदेश
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3. सुदूरपूर्व प्रदेश ।
इस अकादमी व रूसी विद्वानों ने साहित्य का प्रकाश । रूसी भाषा में किया था, जिसका ज्ञान अन्य क्षेत्रों के भूगोलवेताओं को कम था । अत: रूसी विचार अन्य देशों मैं अधिक लोकप्रिय नहीं हो सके । जर्मन विद्वान बुशचिंग ने 1766 में एक पुस्तक ‘पृथ्वी का नवीन विवरण’ की रचना रूस में रहकर की ।
इस पुस्तक का रूसी भाषा में अनुवाद किया गया जिससे यह काफी लोकप्रिय हुई । बुशचिंग ने सोवियत संघ को भौतिक विशेषताओं के आधार पर तीन प्रदेशों में बांटा था । प्रशासन की दृष्टि से भी इन्हें उपयुक्त माना गया । लोमोनोसोव के समय में जर्मन विद्वानों को यहां काम करने का अवसर मिला । इनसे प्रोत्साहित होकर रूस में भी अनेक विद्वानों ने भूगोल विषय को अपना अध्ययन क्षेत्र बनाया । यहाँ प्रादेशिक अध्ययनों पर जोर दिया गया तथा इन प्रदेशों के मानचित्र भी तैयार किए गए ।
iv. रूसी क्रांति के पूर्व का काल (1917 से पूर्व):
18वीं और 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्व में रूस के विद्वानों ने बेरिंग जलडमरूमध्य को पार करने के साथ-साथ अलास्का की खोज की । 1800 से 1861 के बीच मध्य यूरोपीय रूस को 15 प्रादेशिक विभागों में बाँटा गया । इनमें से प्रत्येक प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अध्ययन किया गया ।
बड़े-बड़े जमीदारों द्वारा ग्रामीण मजदूरों का शोषण किया जा रहा था । इसी बात को ध्यान में रखकर किसानों की जीवन दशा सुधारने के लिए एक पुस्तक ‘लघु विश्व भूगोल’ की रचना की गई । 1845 में रूसी भौगोलिक सोसायटी (Russian Geographical Society) की स्थापना की गयी । इसका उद्देश्य नये-नये क्षेत्रों की खोज करने के लिए भौगोलिक यात्राओं का आयोजन करना था । इसी के फलस्वरूप इस अवधि में 40 रूसी खोज यात्राएँ आयोजित की गईं ।
नये-नये द्वीपों की खोज, समुद्री धाराओं के बारे में ज्ञान, समुद्र की गहराईयों के बारे में जानकारी प्राप्त करना इनकी प्रमुख उपलब्धियाँ थी । 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रूसी विद्वानों के चिन्तन पर कार्ल मार्क्स (1818-1883) एवं फ्रेडरिक इंगेल्स (1820-1895) के समाजवादी विचारों का प्रभाव पड़ा था । मार्क्स एक राजनीतिक विचारक थे, जबकि इंगेल्स भूगोल में रूचि रखते थे ।
मार्क्स ने जहाँ जार शासन में किसानों के शोषण पर अपने विचार व्यक्त किए वहां इंगेल्स ने राजनीतिक शक्तियों के संतुलन पर भौगोलिक शक्तियों के प्रभाव पर अपने विचार व्यक्त किए थे । रूस में इस समय भूगोल के जिन पक्षों का विकास किया गया, उनमें सामान्य भूगोल, प्रादेशिक भूगोल, भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान, जल विज्ञान, हिम विज्ञान, महासागरीय विज्ञान, जलवायु विज्ञान, तथा वनस्पति भूगोल शामिल है ।
इस अवधि में जिन विद्वानों का योगदान उल्लेखनीय है, वह इस प्रकार हैं- वोयेयकोव (VoyeyKov) ने प्राकृतिक वातावरण में जलवायु के तत्वों के प्रभाव का विवेचन किया । वी.पी. सेमीनोव (V.P. Semenov) ने प्राकृतिक भूगोल पर अपने विचार रखे थे ।
1887 में मास्को विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग की स्थापना की गई । इसकी अध्यक्षता डी.एन. अनुचिन (D.N. Anuchin) ने की । उसने विभिन्न प्राकृतिक तत्वों के बीच सम्बन्धों का विशलेषण किया । डोकुचायेव (Dokuchayev) ने भौतिक भूगोल पर अपने विचार रखे ।
इसी समय आरसेन्येव (Arsanyev), पेत्रोविच (Petrovich), और शांसकी (Shanskiy) ने रूसी साम्राज्य का भौगोलिक कोष तैयार किया । आर्थिक भूगोल पर ग्रन्थ लिखे तथा रूस की मानचित्रावली तैयार की । इन्होंने मानव और वातावरण के बीच सम्बन्धों पर संतुलित विचार प्रस्तुत किए । उन्होंने प्रकृति को कभी भी प्रधानता नहीं दी, यद्यपि रूस के भौगोलिक विस्तार के कारण अनेक क्षेत्रों के बारे में जानकारी प्राप्त करना सम्भव नहीं था ।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में रूसी भूगोल पर वी.आई. लेनिन के विचारों एवं कार्यों का विशेष प्रभाव पड़ा था । उनके द्वारा कम्यूनिष्ट पार्टी की स्थापना, साम्यवादी विचारधारा का विकास, समाजवादी अर्थव्यवस्था का भूगोल पर प्रभाव देखने में आया था । इन विचारधाराओं को अपनाते हुए रूस के विद्वानों ने देश की भौतिक व आर्थिक प्रगति के बारे में अपने विचार व्यक्त किए थे, जिसके फलस्वरूप रूस में जार का शासन समाप्त हुआ व वालशेविक क्रांति हुई और समाजवादी विचारधारा को पनपने का अवसर मिला ।
रूसी समाजवादी क्रांति का भूगोल:
अक्टूबर 1917 की क्रांति के पश्चात भौगोलिक अध्ययनों के दृष्टिकोण में परिवर्तन देखने में आया । लेनिन ने भूगोल के अध्ययन एवं शोध कार्य पर जोर दिया । उसने रूसी भौगोलिक सोसायटी को यह दायित्व निभाने को कहा । भूगोल को सोवियत चिल्लाना ने सम्पूर्ण विज्ञान के रूप में माना । यह विषय विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं को पहचानने के साथ उनके निदान के बारे में भी बताता है ।
भूगोल में पृथ्वी तल पर घटने वाली समस्त प्राकृतिक घटनाएँ उनका परस्पर सम्बन्ध, जनसंख्या का वितरण, बस्तियों का स्थापन, औद्योगिक स्थापन एवं उत्पादन, प्राकृतिक वातावरण और मानव के बीच सम्बन्धों का वर्णन किया जाता है । प्राकृतिक संसाधनों के अध्ययन पर विशेष ध्यान दिया गया ।
1918 में विज्ञान अकादमी के अन्तर्गत ‘प्राकृतिक उत्पादक शक्तियों का अध्ययन’ विषय पर आयोग की स्थापना की गई । 1930 में इस आयोग का नाम ‘भू-आकृति विज्ञान संस्थान’ रख दिया गया । 1934 में इसे भौतिक भूगोल संस्थान व 1936 में भूगोल संस्थान के नाम से पुकारा जाने लगा ।
इस संस्थान का प्रमुख उद्देश्य देश के प्राकृतिक संसाधनों की खोज करना व उनका उपयोग निर्धारित करना था । इन संसाधनों के समीप ऐसे उद्योगों की स्थापना की जाए, जिससे उनका लागत मूल्य कम आवे, व उनको शक्ति संसाधनों की उपलब्धता भी हो ।
रूस के पूर्वी क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना हेतु रेलमार्ग की स्थापना पर जोर दिया गया । इसके अलावा देश की भूमि का समुचित उपयोग, मिट्टी एवं जल संसाधनों का संरक्षण, खनिजों व शक्ति संसाधनों की खोज करना व उनके तर्कसंगत उपयोग की नीति तैयार करना आदि कार्यों में भूगोलवेत्ताओं के विचारो को महत्व दिया गया बल्कि उनको इन विषयों पर अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया गया ।
भौगोलिक अध्ययन की विधियाँ:
रूस के भौगोलिक विचारों में द्वैत्तवादी विचारधारा की झलक देखने में आई । प्रथम, विचारधारा में पृथ्वी को एक इकाई मान कर अध्ययन करना था । इसमें पृथ्वी के भौतिक भूगोल का अध्ययन शामिल किया गया । भौतिक भूगोल में समस्त पृथ्वी का अध्ययन जर्मन भाषा के अर्द्धकुण्डे के समान माना गया ।
दूसरी, विचारधारा में भौतिक भूगोल के प्रादेशिक अध्ययन को शामिल किया जो जर्मनी के लेण्डशाफ्ट (Landshaft) के समान है । इसमें पृथ्वी को पृथक-पृथक प्रदेशों में बांटकर उनमें पाये जाने वाले प्राकृतिक तत्वों व उनमें परस्पर जटिल सम्बन्धों का अध्ययन शामिल किया ।
इस प्रकार भूगोल पृथ्वी को एक इकाई मानकर तथा उसको विभिन्न प्रदेशों में विभाजित करके प्राकृतिक तत्वों व उनमें जटिल सम्बन्धों का विवरण भी शामिल होता है । भूगोल सामाजिक-आर्थिक पक्षों का भी अध्ययन करता है ।
इस प्रकार भूगोल के दो पक्ष देखने में आए-एक, भौतिक पक्ष जिसमें भू-आकृति विज्ञान, जलवायु विज्ञान, जल विज्ञान, मृदा विज्ञान, वनस्पति भूगोल तथा जन्तु भूगोल को शामिल किया और दूसरा, सामाजिक-आर्थिक पक्ष, जिसमें जनसंख्या भूगोल, कृषि भूगोल, औद्योगिक भूगोल, परिवहन भूगोल, बस्ती भूगोल के अध्ययन को शामिल किया ।
मानव व वातावरण के बीच सम्बन्ध:
रूसी विद्वानों ने नियतिवादी विचारधारा का समर्थन नहीं किया इसके साथ ही उन्होंने अतिवादी सम्भववाद का विरोध किया । उन्होंने मानव व वातावरण के बीच संतुलित सम्बन्धों पर जोर दिया ।
व्यवहारिक भूगोल का विकास:
रूस में भूगोल का विकास एक व्यवहारिक विषय के रूप में करने का प्रयास किया गया । इसका उद्देश्य समाजवादी अर्थव्यवस्था को लागू करना था । इसके अन्तर्गत देश के आर्थिक विकास व नियोजन में भौगोलिक संकल्पनाओं एवं विधियों के योगदान को निर्धारित करना था ।
इस दिशा में मानचित्रण के कार्य को प्राथमिकता दी गई । देश के स्थलाकृतिक मानचित्र 1 सेमी॰ = 40 किमी॰ मापक पर तैयार कराए गए । भौतिक प्रदेशों को नियोजन हेतु एक इकाई माना गया । प्रसिद्ध रूसी विद्वान गेरासिमोव ने इस बात पर जोर दिया कि भौतिक प्रदेश में विकसित भूदृश्य विभिन्न प्राकृतिक तथ्यों के पारस्परिक अन्तर्क्रियाओं के सम्बन्धों का परिणाम है ।
व्यवहारिक भूगोल इन सम्बन्धों का आकलन करने के साथ-साथ इनसे होने वाले परिवर्तनों के प्रभाव का विशलेषण करता है । रूस में जिन विषयों को क्षेत्र के प्रभावी विकास की योजनाएँ बनाने के लिए शामिल किया गया ।
उनमें कुछ इस प्रकार है:
1. मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को पहचान कर, तदनुरूप फसल उत्पादन को निश्चित करना ।
2. सिंचित क्षेत्र का विस्तार करना ।
3. देश के जल संसाधनों का समुचित प्रयोग करना ।
4. मिट्टी को ऊसर होने से रोकना ।
5. दलदली भूमि के विस्तार पर रोक लगाना ।
6. झीलों व जलाशयों के जल को प्रदूषित होने से रोकना ।
7. नये-नये क्षेत्रों में खनिज संसाधनों का पता लगाना, तथा उनका उत्पादन सुनिश्चित करना ।
8. उद्योगों के स्थापन के लिए ऐसे स्थलों की खोज करना, जहां उत्पादन लागत न्यूनतम रहे ।
9. विभिन्न क्षेत्रों मैं विकास की योजनाएं क्रियान्वित करने में उस क्षेत्र के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना ।
10. हिमाच्छादित तथा अन्य अपहुंचनीय क्षेत्रों के विकास की योजनाएं तैयार करना ।
नगरीय भूगोल का विकास:
रूस में नगरीय भूगोल पर अनेक महत्वपूर्ण विचार विशेष रूप से रूसी क्रांति के पश्चात विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं । सर्वप्रथम विचार के.आई. अरसेन्येव के हैं, जिन्होंने नगरों के विकास पर ऐतिहासिक कारकों का विशलेषण किया, तथा नगरों का कार्यात्मक वर्गीकरण प्रस्तुत किया । 1910 में वी.पी. सेमीनोव ने बताया कि नगरों का वर्गीकरण करने में आर्थिक आधार महत्वपूर्ण होते है ।
1946 में निकोलोई वारान्सकी ने भी इस बात पर जोर दिया कि प्रत्येक नगर एक दूसरे से भिन्नता रखता है, इसलिए उनका वर्गीकरण किया जाना आवश्यक है । सोवियत विद्वानों ने नगरीय भूगोल को एक विकासशील शाखा के रूप में माना । उन्होंने नगरों के विभिन्न पक्षों जैसे नगर के स्थापन पर प्रभाव डालने वाले भौतिक कारक, नगरों का प्रभाव क्षेत्र, नगरी का प्रादेशिक महत्व आदि विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए ।
उन्होंने नगरीय भूगोल के अध्ययन उपागम पर भी प्रकाश डाला । नगरों के सुनियोजित विकास हेतु उनके अध्ययन पर जोर दिया गया । देश में तीव्र औद्योगीकरण ने नगरों के विकास पर विपरीत प्रभाव डाला, जिसके कारण नगरों के सुधार की योजनाएँ बनाने की ओर लोगों का ध्यान गया ।
1970 में अमरीकी विद्वान सी.डी. हैरिस (C.D. Harris) ने ‘The Cities of Soviet Union’ नामक पुस्तक का प्रकाशन किया, जिसमें सोवियत संघ के नगरों के आकार, कार्य, घनत्व व उनके विकास पर प्रभाव डालने वाले कारकों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया । सोवियत विद्वानों ने नगरीय विषय की परिभाषा व विषय क्षेत्र व अध्ययन पर भी अपने विचार व्यक्त किए । यहाँ अनेक विद्वानों ने अलग-अलग नगरों को चुनकर उनका विस्तृत अध्ययन किया है ।