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Read this article in Hindi to learn about:- 1. आचारपरक भूगोल का प्रारम्भ (Introduction to Behavioural Geography) 2. आचारपरक भूगोल का अर्थ (Meaning of Behavioural Geography) 3. मुख्य लक्षण (Basic Premises) and Other Details.
Contents:
- आचारपरक भूगोल का प्रारम्भ (Introduction to Behavioural Geography)
- आचारपरक भूगोल का अर्थ (Meaning of Behavioural Geography)
- आचरण भूगोल के मुख्य लक्षण (Basic Premises of Behavioural Geography)
- आचारपरक भूगोल का विकास (Development of Behavioural Geography)
- आचारपरक भूगोल के विकास (Ideologies of Behavioural Geography)
- भूगोल में आचरण उपागम का प्रभाव (Bearings of Behavioural Approach on Geography)
- आचारपरक भूगोल-विरोधाभास एवं आलोचनाएँ (Controversies and Criticisms of Behavioural Geography)
1. आचारपरक भूगोल का प्रारम्भ (Introduction to Behavioural Geography):
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आचारपरक भूगोल आचरणवाद (Behaviouralism) पर आधारित है । आचरणवाद से तात्पर्य मानव के मन व विचार के संदर्भ में मानव का पर्यावरण के साथ सम्बन्ध व व्यवहार से होता है । मानव जिस ढंग से आचरण (Behavior) करता है, पर्यावरण जिसमें वह निवास करता है, उसके ज्ञान द्वारा ही प्रभावित होता है ।
वास्तव में ज्ञान व आचरण का घनिष्ठ सम्बन्ध है । मानव ने अपने ज्ञान द्वारा पर्यावरण का अलग-अलग तरह से प्रयोग किया है । कहीं तो वह खेती करता है, तो दूसरा उसी भूमि पर पशु चराता है, तो कोई उसी भूमि पर बड़े-बड़े उद्योग लगाता है ।
वर्तमान में कृषि भूमि की उत्पादकता में कमी, वन क्षेत्रों का घटना, पर्यावरण का अवनयन, नगरीय जीवन की गुणवत्ता में गिरावट, ग्रामों से जनसंख्या का नगरों में आकर बसना, और नगरों का वृहद आकार ग्रहण करना आदि घटनाऐं मानव की सोच का परिणाम हैं ।
समान पर्यावरण रखते हुए भूमध्यरेखीय प्रदेश विश्व में मानव द्वारा अलग-अलग ढंग से प्रयोग में लाये जा रहे हैं । एक ओर अमेजन बेसिन आज भी घने जगलों से ढके है, वहीं दूसरी ओर इण्डोनेशिया व मलेशिया के भूमध्यरेखीए प्रदेश रबर की बागाती खेती के रूप में पहचान बना चुके हैं ।
मानव ने अपने प्रयासों से यहाँ के भूमध्यरेखीय प्रदेशों को रबर के बड़े-बड़े व्यापारिक बागानों में बदल दिया है । यह इन प्रदेशों के प्रति मानव के आचरण का उदाहरण ही है । मानव के बुद्धिमतापूर्ण निर्णय ने इन क्षेत्रों का भूगोल बदल दिया है ।
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स्पष्ट है कि प्रत्येक भौगोलिक प्रतिरूप की स्थापना व विकास में सम्बन्धित मानव समुदाय के चिन्तन एवं व्यवहार का योगदान होता है । वास्तव में मानव चिन्तन प्रधान एवं भावना युक्त प्राणी है । उसके निर्णय आर्थिक एवं सामाजिक संदर्भ में सदैव उत्तम व तर्कसंगत नहीं होते हैं । मानव सामान्यत: ऐसे निर्णय लेता है, जो उसकी दृष्टि में तर्कसंगत हों लेकिन हो सकता है कि यह निर्णय उसके लिए लाभकारी हों, वे दूसरे के लिए आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त न हों ।
मकानों का निर्माण, बस्तियों का स्थापन, बाजार केन्द्रों का विकास आदि पा मानव समुदाय के चिन्तन व मूल्यों का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है । स्पष्ट है कि सांस्कृतिक भूदृश्यों के अध्ययन में मानव के व्यवहार को अधिक महत्व दिया जाता है ।
2. आचारपरक भूगोल का अर्थ (Meaning of Behavioural Geography):
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आचरण भूगोल सामाजिक भूगोल की नई शाखा है, यह भूगोल विभिन्न तथ्यों की व्याख्या करता है, उनकी विशेषता को समझाता है, उसके संदर्भ में शोध की तकनीक को विकसित करता है । “भूगोल में क्षेत्रीय प्रतिरूपों का मानव के आचार-व्यवहार के संदर्भ में विश्लेषण आचार-परक भूगोल कहलाता है” ।
1968 में बेरेलसन (Berelson) ने बताया कि आचरणवाद की भौगोलिक व्याख्या को आचार-परक भूगोल कहा जाता है । 1980 में गोल्ड (Gold) ने बताया कि आचारपरक भूगोल भूगोल के उस सामान्य भाग को कहते है, जिसमें मानव-पर्यावरण के सम्बन्धों को मानव आचरण के संदर्भ में परखा जाता है। इसमें आचरण के स्थानिक प्रतिरूपों की व्याख्या मानव ज्ञान के संदर्भ में की जाती है । इसमें ज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ आचरण की नयी नींव रखती हैं ।
सारीनेन (Saarinen) के अनुसार आचरण भूगोल ज्ञानात्मक आचरणवाद है । इसको पर्यावरण ज्ञान के संदर्भ में परखा जाता है । आचरण भूगोल को कुछ विद्वानों ने अलग नामों से पुकारा है । 1970 में केटस (Kates) ने इसे मनो-भूगोल (Psycho-Geography) 1971 में नाइट (Knights) ने इसे नृजाति भूगोल (Ethon Geography) 1975 में वाटसन (Watson) ने इसे प्रतिबिम्ब भूगोल (Image Geography) का नाम दिया है ।
आचरणवाद वह महत्वपूर्ण पद्दति है, जो मानव के निर्णय लेने की क्षमता को समझने में सहायक होती है । मानव किस ढंग से आचरण करता है । पर्यावरण के साथ किस तरह व्यवहार करता है । जिस पर्यावरण में वह निवास करता है उसका अपने ज्ञान द्वारा किस तरह प्रयोग करता है । सम्बन्धित समस्याओं का हल किस प्रकार करता है । वास्तव में मानव आचरण व पर्यावरण का घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
आचरण अध्ययन के प्रकार:
1960 के पश्चात से दो प्रकार के अध्ययनों का समावेश दिखाई पड़ता है:
(1) आनुभाविक अध्ययन (Empirical Studies)- इसमें स्थानिक प्रतिरूपों के संदर्भ में मानव आचरण का प्रभाव देखा जाता है ।
(2) मानववादी अध्ययन (Humanistic Studies)- इसमें मानवतावादी दृष्टिकोण से विभिन्न दृश्यों का विशलेषण किया जाता है, जिसे मानवतावादी भूगोल (Humanistic Geography) कहा जाता है ।
यद्यपि दोनों पद्धतियों के दृष्टिकोण भिन्न हैं, लेकिन दोनों ही मानव के आचरण को महत्व देती हैं । समय के साथ विशेष रूप से पिछले तीन दशकों में मानव आचरण का पर्यावरण के साथ प्रभाव के आकलन ने आचारपरक भूगोल को जन्म दिया दिया है । आज मानव आचरण मानव भूगोल की विभिन्न शाखाओं का प्रमुख अंग बन गया है ।
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3. आचरण भूगोल के मुख्य लक्षण (Basic Premises of Behavioural Geography):
i. पर्यावरण का दोहरा रूप होता है, एक- उद्देश्यात्मक पर्यावरण (Objectives Environment), और दूसरा आचारपरक पर्यावरण (Behavioural Environment) । उद्देश्यात्मक पर्यावरण यथार्थवाद (Positivism) का प्रतीक है, जो प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को परखता है । आचारपरक पर्यावरण के प्रभाव को परखने का अप्रत्यक्ष रूप है, इसमें पर्यावरण कितना आंशिक व चयनात्मक है, जो मानव के निर्णय लेने व क्रिया करने को प्रभावित करता है ।
ii. व्यक्ति विशेष अपने भौतिक व सामाजिक पर्यावरण का रूप निर्धारण करता है । यह दोनों पर्यावरण मानव को प्रभावित करते है । साथ-साथ मानव इनको प्रभावित करता है । मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भौतिक पर्यावरण का उपयोग करता है, उसके साथ सामजंस्य स्थापित करता है, फिर सामाजिक पर्यावरण का निर्माण करता है । “आचरण घटनाओं की शृंखला का एक अंत है, लेकिन साथ-साथ प्रत्येक नई घटना की शुरूआत भी है” ।
iii. आचारपरक भूगोलवेत्ता सामाजिक समूह को इतना महत्व नहीं देते जितना व्यक्ति विशेष को देते है । एक व्यक्ति पर्यावरण का प्रयोग किस दृष्टि से करता है, उसके साथ कैसा आचरण करता है । यह दृष्टिकोण विभिन्न भूदृश्यों को व्यक्ति विशेष के आधार पर परखता है ।
iv. आचारपरक भूगोल बहुविषयक (Multidisciplinary) दृष्टिकोण रखता है । वास्तव में भूगोल में आचरणवाद को अन्य आचारपरक विज्ञानों से लिया गया है । इन विज्ञानों से भूगोल ने अनेक आधारभूत संकल्पनाएं प्राप्त की हैं । 1969 में हार्वे (Harvey) ने कहा भी है कि भूगोल ने हमेशा से व्युत्तपत्ति विज्ञान (Derivative Discipline) के रूप में काम किया है ।
इसने अन्य विज्ञानों से अनेक सिद्धांतों व विधितन्त्रों को अपनाया है । आचारपरक भूगोल में तो विभिन्न विज्ञानों से विस्तृत रूप से अनेक विचारों को इसमें शामिल किया गया है । मानव का आचरण ही विज्ञानों को जन्म देता है ।
v. व्यक्ति विशेष द्वारा लिया गया निर्णय तर्कसंगत होता है । यह निर्णय उपलब्ध परिस्थिति में मानव को अधिकतम संतुष्टि प्रदान करता है ।
vi. जोखिम (Risk) और अनिश्चितता किसी खेल के प्रमुख अंग होते है । यही बात पर्यावरण के प्रयोग के साथ होती है । मानव के कार्यकलाप संभावनाओं पर आधारित होते हैं । मानव का पर्यावरण के साथ आचरण उसको अनेक सभावनाएँ भी देता है, और कभी-कभी दुष्प्रभाव भी ।
4. आचारपरक भूगोल का विकास (Development of Behavioural Geography):
भूगोल में आचरणवाद का एक लम्बा इतिहास रहा है । भूगोलवेत्ताओं ने प्रारम्भ में ही मानव पर्यावरण सम्बन्धों का अध्ययन किया है, और पर्यावरण का मानव के आचरण पर प्रभाव का विश्लेषण किया है । ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व हिप्पोक्रेटस (Hippocrates) ने सबसे पहले मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का अध्ययन किया ।
अठारहवीं शताब्दी में काण्ट विद्वान ने पर्यावरण का मानव पर प्रभाव पर, जो विचार व्यक्त किए, वह आचरणवाद की विचारधारा की अभिव्यक्ति करते हैं । उसने बताया कि भूगोल एवं इतिहास दोनों मिलकर हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रतीक होते है । भूगोल स्थान व इतिहास समय का ज्ञान देते हैं ।
मानव का ज्ञान पुराने अनुभवों, प्राप्त सूचना पर निर्भर करता है । वह अपने समुदाय के आचरण के आधार पर नई नीतियों का निर्धारण करता है । फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने मानव के आचरण को ही किसी स्थान का भूगोल बनाने में महत्वपूर्ण कारक माना है ।
1925 में अमरीकी भूगोलवेत्ता कार्ल सावर (Carl Sauer) ने बताया कि सांस्कृतिक दृश्य में विभिन्नता का कारण सांस्कृतिक मूल्यों में भिन्नता का होना है । मानव अपनी संस्कृति के अनुसार प्राकृतिक भूदृश्यों में बदलाव लाता है । वह उसको सांस्कृतिक दृश्यों में परिवर्तित करता है ।
उदाहरण स्वरूप नगरीय संस्कृति में बड़े-बड़े भवनों का निर्माण देखने को मिलता है, जबकि ग्रामीण संस्कृति में छोटे-छोटे व अलग प्रकार के भवन देखने को मिलते है । उनके अनुसार संस्कृति एक एजेन्ट है, प्राकृतिक पर्यावरण एक माध्यम है तथा सांस्कृतिक भूदृश्य समयावधि में घटित घटनाओं की अभिव्यक्ति है ।
सांस्कृतिक भूदृश्यों के अध्ययन में तत्सम्बन्धी मानव समुदाय के साक्षात्कार व व्यवहार अध्ययन को महत्व दिया जाता है । मानव भौतिक पर्यावरण को उपयोगी बनाने व परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 1942 में जी.एफ.व्हाईट (G.F. White) ने ‘Human Responses to Floods’ नामक शोध ग्रन्थ में बताया कि मानव की बाढ़ के प्रति क्या धारणा है, वह उसका किस तरह लाभ उठा सकता है, व साथ-साथ किस प्रकार अपने आपको बाढ़ के नुकसान से बचाने के उपाय कर सकता है । उसने पर्यावरण को समाज के साथ जोड़कर अध्ययन किया । भूगोल समाज अर्थात मानव आचरण के बिना अधूरा है ।
1947 में राइट (Wright) ने मानव प्रकृति अन्योन्यक्रिया की व्याख्या के लिए आचरण पद्दत्ति पर बल दिया । उसने कहा कि यद्यपि विश्व में वर्तमान में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं हैं, जिसकी खोज नहीं कर ली गई हो, लेकिन फिर इन क्षेत्रों के बारे में विस्तृत रूप से जानना आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति किसी भी क्षेत्र के बारे में अपनी अलग राय रखता है, वह उसको अपने ढंग से देखता है, जैसे किसान भूमि को कृषि उत्पादन के लिए, मकान निर्माता भूमि को कॉलोनी के विकास की दृष्टि से देखता है ।
डब्लू. किर्क (W. Kirk) एक ऐतिहासिक भूगोलवेत्ता था । उसने 1951 में बताया मानव समुदाय अलग-अलग स्थानों पर पर्यावरण के साथ अलग-अलग नीति बनाता है । समय के साथ उसका पर्यावरण के साथ व्यवहार में परिवर्तन आने लगता है । समान भौतिक पर्यावरण में यदि विभिन्न प्रकार के लोग रहते हैं तथा अलग-अलग प्रकार के कार्य करते हैं, तो यह उनकी पर्यावरण के प्रति सोच का परिणाम है ।
प्रत्येक व्यक्ति प्राकृतिक संसाधन का अपने ढंग से प्रयोग करता है । उसने मानव वातावरण सम्बन्धों के पर्यावरणीय संकल्पना के विकल्प हेतु आचारपरक उपागम का प्रथम मॉडल प्रस्तुत किया । मानव अपने वातावरण से प्राप्त प्रत्यक्षीकरण (Perception) के ढंग के आधार पर कार्य करता हैं ।
यह प्रत्यक्षीकरण/अनुभूति क्षेत्रीय वस्तु निष्ठता से भिन्न हो सकती है । उसके वातावरणीय प्रत्यक्षीकरण सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों से प्रभावित होते है । वह समान पर्यावरणीय व्यवस्था में संसाधन व स्थान (Space) को अलग-अलग तरह से देखता है, व उपयोग में लाता है । उदाहरण के लिए एक ही गांव में निवास कर रहे जाट, गुर्जर, अहीर, सैनी, गाडा अपने पर्यावरण को भिन्न प्रकार में देखते हैं ।
एक जाट अपने खेत में गन्ना उगाता है, अहीर उस पर पशु चारा उगाकर पशु पालता है । सैनी साग-सब्जियां उगाता है । एक सब्जी उत्पादक दो हैक्टेयर भूमि के खेत को बड़ा मानता है, जबकि जाट किसान 10 हैक्टेयर भूमि के खेत को भी छोटा मानता है, वह उस पर ट्रेक्टर चलाने में कठिनाई का अनुभव करता है ।
1956 में अमरीकी विद्वान केनेथ वोल्डिंग (Kenneth Bolding) ने बताया कि मानव मस्तिष्क व्यवहार समस्याओं के प्रति उसकी जागरूकता, सांस्कृतिक भूदृश्यों का निर्माण व भौतिक पर्यावरण से उनका सम्बन्ध सम्बन्धी विशेषताओं का अध्ययन ही आचारपरक भूगोल को जन्म देता है ।
1962 में केटस (R.W Kates) ने ‘Hazard and Choice Perception in Flood Plain Management’ नामक लेख में बताया कि किस प्रकार मानव अनिश्चित पर्यावरण में संभावनाओं की तलाश करता है, अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करता है । वह आचरण संसाधन प्रबन्धन के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
5. आचारपरक भूगोल के विकास (Ideologies of Behavioural Geography):
मानव के विभिन्न प्रकार के आचरण चार विचारधाराओं पर आधारित होते हैं:
I. मानव निर्णय लेते समय तर्कसंगत होता है:
मानव किस तरह का आचरण करे, इसका वह स्वयं निर्णय करता है । उसके निर्णय व्यवहारिक होते हैं । उसके निर्णय तर्कसगत होते हुए भी पर्यावरण से सम्बन्धित होते है । उदाहरण स्वरूप वह खरीफ मौसम में गेहूँ न उगाकर चावल उगाता है । यह सम्भव है कि वह चावल न उगाकर गन्ना उगाए ।
II. मानव अपनी छाँट निर्धारित करता है:
वह अपने स्वभाव के अनुसार प्रकृति द्वारा दी गई सुविधाओं को उपयोग करता है । पर्यावरण का उसके द्वारा किया उपयोग अपने हित में किया जाता है ।
III. मानव की छाँट उसके ज्ञान पर आधारित होती है:
मानव के ज्ञान का स्तर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को निर्धारित करता है । जैसे-जैसे उसका ज्ञान बढ़ता है, वह प्राकृतिक सुविधाओं की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करके अपनी आवश्यकताओं को जुटाता है ।
IV. ज्ञान पूर्व निर्धारित आधारों पर मूल्यांकित होता है:
समय के साथ-साथ मानव ने प्रकृति के साथ किस प्रकार का आचरण किया है । आचरण का यह परिवर्तित स्वरूप आचारपरक भूगोल का प्रमुख विषय है । केट्स ने बताया कि लोगों ने अपने ज्ञान व अनुभव का लाभ उठाकर बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में रहना पसन्द किया । उसने बाढ़, पर नियंत्रण करके उस क्षेत्र का विकास किया । इस प्रकार आचारपरक भूगोल मानव की दार्शनिकता व मनोवैज्ञानिक दशा का वर्णन करता है ।
1964 में जुलियन वोलपर्ट (Julien Wolpert) ने अपने शोध लेख ‘The Decision Process in a Spatial Context’ स्वीड्न के मध्य भाग के कृषि भूमि उपयोग पर प्रस्तुत किया । उसने वास्तविक श्रम उत्पादकता की तुलना सम्भावित श्रम उत्पादकता से की । उसने निष्कर्ष निकाला कि किसानों ने सम्भावित उत्पादन से 40 प्रतिशत उत्पादन कम प्राप्त किया । उसने आगे बताया कि नगरीय क्षेत्र में सुविधाओं का होना मानव निर्णयों पर आधारित होता है ।
1967 में ए. प्रेड़ (A. Pred) ने ‘Behaviour Location’ के प्रथम अंक में बताया कि कृषि, उद्योग, केन्द्रीय स्थानों का स्थापन मानव व्यवहार पर आधारित होता है । कृषि व उद्योग के स्थापन में जो कारण अधिक प्रभावी होते हैं, उनमें मानव की सोच व व्यवहार महत्वपूर्ण होती है ।
1972 में आर. जी. गोलेज (R.G. Golledge) ने बताया कि आचारपरक भूगोल पर किए गए शोध कार्यों से इस भूगोल में जिन विषयों को अध्ययन हेतु शामिल किया गया वह इस प्रकार हैं मानव निर्णय, चयनात्मक व्यवहार, सूचनाओं का प्रसार, प्राकृतिक आपदाओं का विवेचन व मनोदशा, मतदाता का व्यवहार आदि ।
उपरोक्त विचारों के कारण 1977 तक आचारपरक भूगोल ने मानव भूगोल की एक प्रमुख शाखा के रूप में अपनी नींव स्थापित कर ली । अनेक भूगोल विभागों में इस पर शोध कार्यों को बढावा मिलने लगा । 1984 में एस. जे. गोल्ड (S.J. Gould) ने इस बात का मूल्याकंन किया कि आचारपरक भूगोल ने भूगोल की विशिष्ठ शाखा के रूप में अपनी कितनी प्रतिष्ठा स्थापित कर ली है । उसने बताया कि यह भूगोल अभी अपने सिद्वाण्त व मॉडल स्थापित करने की आरम्भिक अवस्था में है ।
अभी इसमें नये-नये विचारों का अविर्भाव हो रहा हैं । ऐसा किसी भी नए विषय के साथ होना स्वभाविक है । 1984 में आर. जे. जोन्सटन (R. K Johnston) ने भी आचारपरक भूगोल के अध्ययन के लिए क्षेत्रीय सर्वेक्षण की विधि को महत्व देने पर जोर दिया ।
आचारपरक भूगोल पर प्रस्तुत उपरोक्त विचारों से यह तथ्य अवगत होता है कि इस भूगोल का सम्बन्ध मानव की आर्थिक, सामाजिक, आवासीय, व्यक्तिगत, एवं अन्य संबन्धित समस्याओं के निवारण से रहा है । वह अपनी विशिष्ट समस्याओं के निवारण में किस प्रकार का आचरण करता है । उसका आचरण समस्या के बहुलक्षणी स्वरूप को समझकर परिणाम की सम्भावित को निर्धारित करता है । ऐसे निर्णय निर्धारण के समय मस्तिष्क की स्थिति का स्वभाव उपलब्धि का अध्ययन बहुत आवश्यक हो जाता है ।
मानव निर्णय इतना महत्वपूर्ण नहीं होता, जितना कि निर्णय से पूर्व निर्मित घटनाओं के विशेष क्रम एवं उसकी पृष्ठभूमि है । मानव के निर्णय पर पूर्व घटित घटनाओं का प्रभाव होता है । इनसे आचारपरक भूगोल की संवेदनशीलता बढ़ जाती है ।
इस प्रकार आचरपरक भूगोल के तीन प्रमुख अवयव हैं:
(i) मानव के चिन्तन से प्राप्त ज्ञान उपलब्धता ।
(ii) चिन्तन से प्राप्त मानव पटल पर निर्मित संरचना ।
(iii) निर्मित मानव विचार के आधार पर मानव का आचरण ।
6. भूगोल में आचरण उपागम का प्रभाव (Bearings of Behavioural Approach on Geography):
भौगोलिक समस्याओं को हल करने में आचरण उपागम का योगदान कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है:
1. इसने मानव भूगोल पर अपना प्रभाव उस समय बढ़ाया है, जब वर्तमान में वैज्ञानिक उपागम का महत्व बढ़ रहा है । आचारपरक भूगोल ने भूगोल में इस बात को फिर से स्वीकृत कराया है, कि मानव (व्यक्ति विशेष) की विशेष भूमिका है । भौगोलिक क्रियाओं में व्यक्ति विशेष की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।
2. इसने मानव पर्यावरण के परस्पर सम्बन्धों की पुनर्मूल्यांकन की ओर ध्यान आकर्षित कराया है । पर्यावरणविदों और नव्य पर्यावरणाविदों के बीच इस विवाद को पुर्नजीवित किया है कि मानव आचरण मैं कितनी पेचीदगियां आ गई है ।
आचारपरक भूगोल ने माना है:
(i) मानव पर्यावरण को रूप देने के साथ-साथ प्रतिक्रिया भी देता है,
(ii) मानव व पर्यावरण परस्पर गतिशील सम्बन्ध रखते हैं,
(iii) मानव को समाज से प्रेरणा मिलती है, उसके निर्णय व कार्यकलाप उसके ज्ञान व व्यवहार पर आधारित होते हैं ।
3. आचरण उपागम विभिन्न आचरण विज्ञानों से लिया गया है, इन विज्ञानों की अपनी अलग-अलग विधियाँ व दर्शन हैं । इसी के परिणामस्वरूप आचरण भूगोल बहू-विषयक विज्ञान के रूप में जनित हुआ है । और इसने अनेक उपयोगी विचार प्राप्त किए हैं, तथा उनको अपनी अध्ययन सामग्री में शामिल किया है ।
4. आचारपरक भूगोल पर उन तथ्यों का प्रभाव पड़ा इसका प्रमुख उद्देश्य सामाजिक समस्याओं प्राकृतिक संकटों व गए कदमों का अध्ययन करना है । इस भूगोल ने नया दर्शन, किया है । इसके कारण भूदृश्यों का विशलेषण नवीन उपगमों से होने लगा है ।
5. आचारपरक भूगोल इस बात पर ज़ोर देता है कि प्रत्येक व्यक्ति कुछ गुणों से सम्पन्न होता है । इन मानव गुणों का प्रभाव स्थानीय व प्रादेशिक समस्याओं को हल करने में सहायक होता है । इससे शोधकर्ता को सामाजिक समस्याओं को समझने व हल करने का अवसर मिला है ।
7. आचारपरक भूगोल विरोधाभास एवं आलोचनाएँ (Controversies and Criticisms of Behavioural Geography):
इस भूगोल के विकास ने अनेक विवादों को जन्म दिया है । इसके उपागम व विचारधाराओं पर विद्वानों को प्रतिक्रियाएं विभिन्नता रखती हुए । कुछ विद्वानों में मानव आचरण को सांस्कृतिक दृश्य के निर्माण में अधिक महत्व दिया है, तो कुछ ने प्राकृतिक पर्यावरण के दायरे में रहते हुए मानव आचरण के विश्लेषण पर जोर दिया है ।
मानव आचरण पद्धति की आलोचना 1970-1980 के दशक में अनेक विद्वानों ने की । 1978 में ओलसन (Olsson), 1979 में बंटिग वे गुएकले (Bunting and Guekle) ने इसकी प्रबल आलोचना की है । 1960 के बाद हुए शोध कार्यों को देखकर विद्वानों का यह अनुमान था कि यह भूगोल मात्रात्मक क्रांति के साथ अपना एक निश्चित उपागम निर्धारित कर लेगा ।
गोल्ड (Gold) विद्वान ने इसके दो कारण बताए हैं:
(i) यह समकालीन विचारधारा को बनाए नहीं रख सका, यहाँ तक कि वर्तमान मानव भूगोल के साथ उत्तेजक विचार विकसित नहीं कर पाया ।
(ii) इसने अन्य आचारपरक विज्ञानों से दर्शन एवं विधियों को अपनाया, और अपना कोई अलग आस्तित्व नहीं बनाया, न सांमजस्य स्थापित किया । वास्तव में आचारपरक भूगोल ने अन्य विषयों से जिन विधियों, उपागमों व प्रतिमान (Paradigm) को अपनाया है, वह भी विविधता पूर्ण हैं । भूगोल में आचरण पद्धति की अभी पूरी तरह व्याख्या नहीं हो पाई है । इसमें क्रमबद्ध संगठित सैद्धान्तिक आधारों का अभाव देखने में आता है ।
इसकी कुछ कमियाँ इस प्रकार हैं:
1. आचरणवाद भौगोलिक समस्याओं की समुचित व्याख्या नहीं करना है । इसका उपागम वर्णनात्मक है न कि व्याख्यात्मक ।
2. आचरणवाद में व्यक्ति विशेष की मनोस्थिति पर अधिक जोर दिया गया है, जबकि उसके व्यवहार पर कम । कभी-कभी मनोस्थिति व व्यवहार की व्याख्या को भी सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया गया है ।
3. आचारपरक भूगोल में उपागमों का विकास मानव व्यवहार पर आधारित है, उनकी कोई निश्चित अध्ययन विधि विकसित नहीं हो पाई है । इसमें प्रयुक्त शब्दावली एवं संकल्पनाएं अभी शिथिलता रखते हैं । ऐसा निश्चित एवं क्रमबद्ध सैद्वान्तिक आधार के अभाव के कारण हैं । भूगोल में इस बात का प्रयास किया जाना चाहिए कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक भूगोल में जहां मानव व्यवहार को प्रधानता दी जाती है, वहां इस विषय को इनके साथ तर्कसंगत तरीके से जोड़ा जाए । आचारपरक भूगोल अनुमानों पर आधारित है, जिसके आधार पर निश्चित सिद्वान्तों का निर्माण नहीं किया जा सकता । अत: यह उपागम सिद्वान्तों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे सकता है ।
4. आचरणवाद प्रमुखत: मानव छाँट (Choice) पर निर्भर करता अर्थव्यवस्था, जिसको विकसित करने में मानव का विशेष योगदान होता है । आचरणवाद में उतना महत्व मिलता दिखाई नहीं पड़ता ।
5. आचारपरक भूगोल की एक कमी यह भी है की मानव व्यवहार द्वारा प्राप्त उपलब्धि का लाभ हर व्यक्ति नहीं ले पाता, बल्कि यह प्रयासों व प्राप्ति लाभ के बीच अंतर करता है । आचार-परक भूगोलवेत्ता एक पर्यवेक्षक की भांति रहता है, वह लोक नीतियों के मामले में भागीदारी नहीं कर पाता । उसका योगदान समाज की नीतियों के निर्धारण में प्रभावी होना चाहिए । वह उन नीतियों को बनाने के साथ, उनको लागू करने की योजना बनाए, तथा उन विधियों एवं सिद्वन्तों का प्रतिपादन करें जो स्वयं की हों ।
वर्तमान समय में आचार-परक भूगोल का विकास तीन कारणों से हुआ है:
(i) एक, तो यह भौगोलिक ज्ञान में अभिवृद्धि कर्ता है,
(ii) दूसरे, मानव-पर्यावरण को एक मानकर अध्ययन करता है, तथा
(iii) तीसरे, मानव को प्रधानता देते हुए उसके चिंतन बौद्धिक विकास, अनुभव एवं व्यवहार को महत्व देता है, अर्थात मानव भौगोलिक समस्याओं को हल करने में इनका किस तरह उपयोग करता है । मानव जिस क्षेत्र या स्थान में रहकर विकास की ओर बढ़ता है, उस क्षेत्र के बारे में उसके मस्तिष्क पटल पर एक चित्र स्थापित होता है, वह चिंतन द्वारा उसे विकसित करता है ।
वह अपने बौद्धिक स्तर व अनुभव के आधार पर उसमें परिवर्तन या सुधार करता है । उसका चिंतन संवेदनशील रहता है । क्षेत्रीय व सामाजिक विशेषता में समय-समय पर जो परिवर्तन आता है, वह इनके प्रति जागरूक रहकर मस्तिष्क में नवीन विधि या संशोधित विधि से सोचने लगता है ।
मानव के चिंतन में जब भी परिवर्तन होने लगता है, तो इसके दृष्टिकोण का मूल्याकंन भी पुन: प्रभावित होने लगता हें । इस प्रकार क्रिया-प्रतिक्रिया की शृंखला प्रारम्भ हो जाती है, जिसको कि प्रत्येक प्रभाव एवं ऐसे परिवर्तन के बाद समझा जा सकता है, तथा अनुभव के आधार पर इन्हें शृंखलावद्ध भी किया जा सकता है ।
अत: स्पष्ट है कि आचारपरक भूगोल का विषय गतिशील है । इसे समकालिक होने के साथ-साथ निश्चित सिद्वान्तों एवं विधियों को प्रतिपादन करना होगा तथा भूगोल के दायरे में रहकर कार्य करना होगा । इसे बहु-विषयक गुणवत्ता को बनाए रखना होगा, तभी आचार-परक भूगोल भूगोल की एक प्रमुख शाखा के रूप में उदित हो पाएगा । मानव चिंतन के साथ इसके विकास की अपार संभावनाएं हैं तथा इस क्षेत्र में शोध कार्यों को किए जाने की भी आवश्यकता है ।
डाउन्स (Downs) ने मानव आचरण एवं उपलब्धि को प्रस्तुत किया है । मानव पर्यावरण का उपयोग करने के लिए अपने मन में चिंतन करता है । वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए संसाधनों के उपयोग का निर्णय लेता है तथा उपभोक्ता के रूप में अपने मस्तिष्क में एक प्रतिविम्ब (Image) बनाता है । मानव वास्तविक पर्यावरण के बारे में सूचनाएँ एकत्र करता है ।
यह सूचनाएँ उसके मस्तिष्क पटल पर व्यक्तिगत, संस्कृति, आस्था, और ज्ञानात्मक चर पर आधारित होती हैं । उसके अवगम ग्राही एवं निस्पदक होते हैं, जो मूल्य तंत्र से जुड़ें होते हैं । स्पष्ट है कि पर्यावरण का रूप वास्तविक और दूसरा आचार-परक होता वर्तमान में आचार-परक भूगोल पर नवीन विकसित तकनीकों का प्रभाव पड़ा है, नगरों का विकास, बस्तियों का केन्द्रीय स्थान के रूप में स्थापन, बस्तियों में विपणन सुविधाएं, आदि के विकास पर आचरण का समय-समय पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है ।
इस पर मानव संस्कार, परम्परा, संस्कृति, समसामयिक मानसिक चिन्तन एवं विश्वास ने गहरी छाप छोड़ी है । मानव द्वारा अंतरिक्ष का भौगोलिक अनुसंधान, मानचित्रण में प्रयोग, कम्प्यूटर व मात्रात्मक तकनीकों का भौगोलिक अध्ययनों में बढ़ता महत्व इस बात का प्रतीक है कि मानव ने अपने बुद्धि विवेक से इनका प्रयोग मानव हित में किस सीमा तक किया है ।