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भौगोलिक ज्ञान में भारत का अतीत अत्यन्त गौरवपूर्ण है । भारत के विद्वानों ने कला और विज्ञान दोनों विषयों में प्रारम्भ से ही विश्व का मार्गदर्शन किया है । भारत में पनपी सिंध घाटी सभ्यता, तक्षशिला, काशी एवं उज्जैन का ज्ञान के केन्द्र के रूप में होना, वेद पुराण महाकाव्यों की रचना आदि इस बात के प्रमाण है कि भारत प्राचीन समय से ही ज्ञान का सिरमौर केन्द्र था ।
विश्व के विभिन्न भागों में ज्ञान की किरण भारत से ही पहुंची थी भारत अपने बहु आयामी व्यक्तित्व के कारण आदिकाल से ही विश्व के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है । भारत में अनेक विदेशी यात्री आए, उनके वर्णन व अनुभव यहाँ के भौगोलिक ज्ञान की श्रेष्ठता के प्रतीक माने जाते हैं ।
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जिन घटनाओं व विशेषताओं को भौगोलिक ज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण माना जा सकता है, वह इस प्रकार हैं:
ऐसा माना जाता है कि ईसा से 3000 वर्ष पूर्व भारत में वेदों का प्राणायन हो गया था । यह ज्ञान विज्ञान का केन्द्र बन गया था । यह आज के विकसित देशों से अधिक कहीं विकसित था । यह बौद्धिक व भौतिक सम्पदा की दृष्टि से सम्पन्न देश था । ऋग्वेद ग्रन्थ की रचना यूनानी रचनाओं से भी पुरानी है ।
ऋग्वेद वास्तव में किसी एक ऋषि की रचना नहीं है, बल्कि यह यथा अनेक ‘ऋषियों मुनियों के विचारों का संग्रह है, जो समय-समय पर दिए जाते रहे हैं । ऋग्वेद ग्रन्थ ईसा से 500 वर्ष से भी अधिक पुराना माना जाता है । यह विश्व का सर्वप्रथम रचा गया ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ भारत की बौद्धिक व सांस्कृतिक सम्पन्नता का प्रतीक माना जाता है जो बताता है कि भारत में द्रविड़ संस्कृति आरी सभ्यता की तुलना में अधिक विकसित व समृद्ध थी ।
आर्यों के आने से पूर्व द्रविड़ लोग सिंध घाटी में रहते थे । यह नगर निर्माण कला में अति सम्पन्न थे । यह लोग विश्व के अन्य सभ्यता केन्द्रों मेसोपोटामिया व मिस के सम्पर्क में रहते थे । उत्तर भारत में आर्यों के आने से साहित्य, कला, दर्शन चिंतन, धर्म व ज्ञान की उपलब्धियों में काफी प्रगति हुई और भारत में ज्ञान विज्ञान का पर्याप्त विकास होने लगा ।
यद्यपि भारत ने तब से लेकर आज तक अनेक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव देखे है । सिंध घाटी क्षेत्र से प्राप्त प्रमाण एवं वेदों व महाकाव्यों के अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भारत आज से कहीं अधिक विस्तृत था । उसमें क्षेत्रीय विविधतायें विद्यमान थी ।
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यहाँ की सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक पद्धतियाँ एवं परम्पराएँ काफी विकसित व प्रचलित थीं । भारत एक भौगोलिक इकाई के रूप में होने से उपमहाद्वीप कहलाता था । दक्षिण में इसके हिन्द-महासागर व उत्तर में हिमालय था, जिसे आसेतु हिमाचलम का नाम दिया गया था ।
यहाँ पर संसाधनों की इतनी पर्याप्तता थी कि विदेशी लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था । यह लोग यहां आकर धीरे-धीरे बसते गये भारतीय अध्यात्म व संस्कृति का अंग बनते गए । यद्यपि इससे सामाजिक विविधताओं को जन्म मिला ।
भारत के विश्वविद्यालय शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे । तक्षशिला व नालन्दा विश्वविद्यालयों में विदेशों से छात्र पढ़ने आते थे । यहाँ तक कि उज्जैन भी शिक्षा एवं ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख केन्द्र था । भारतीय ऋषियों, मुनियों के आश्रम भी शिक्षा के केन्द्र थे यहां पर भी लोगों को ज्ञान विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी ।
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मुनि वशिष्ठ का आश्रम इस बात का प्रतीक है। भारत शिक्षा के साथ-साथ कृषि, उद्योग, व्यापार, खनन, धातु शोधन, अभियांत्रिकी का केन्द्र बन गया था । भारतीय उत्पादन की विश्व में भारी मांग रहती थी विदेशों से लोग यहां व्यापार के लिए आते थे वास्तव में विकास की यह दशा सतत् एक सी नहीं रही, क्योंकि विदेशों से आए लोगों का उद्देश्य भारतीय संसाधनों का विदोहन एवं शोषण करना रहा ।
इन सब परिस्थितियों के होते हुए भी भारत ने अपने महत्व को बराबर बनाए रखा । इसी बात को स्वीकार करते हुए एक विदेशी विद्वान ने कहा था कि भारत प्रबुद्ध लोगों की धरती है । यहां पर रहने वाले मानव अपने सभी स्वप्नों को बड़े सम्मान के साथ पूरा करते है । यहां पर हर तरह की सुविधायें उपलब्ध हैं इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत का भूगोल अपने पीछे ज्ञान का विशाल समुद्र सँजोए हुए है ।
वर्तमान में उपलब्ध साहित्य, प्रमाणों एवं घटनाओं से इस बात का संकेत मिलता है कि भारतीय संस्कृति काफी विकसित रही है । भारतीय साहित्य पर इसके प्रभाव व इससे प्राप्त भौगोलिक ज्ञान का वर्णन अत्यन्त चर्चा का विषय है ।
हमारे भौगोलिक ज्ञान को वर्तमान आधार प्रदान करने में सिंध घाटी सभ्यता एवं संस्कृति, धार्मिक ग्रन्थ, ऐतिहासिक ग्रन्थ, वेद, पुराण, विद्या के प्राचीन शिक्षा केन्द्र, विदेशी यात्रियों के विवरण, पुरातन ईमारतें एवं पुरातत्वीय विशेषताओं का अमूल्य योगदान है । स्पष्ट है, कि भारतीय भौगोलिक ज्ञान के स्रोतों में जहाँ एक ओर विभिन्नता है, वहीं दूसरी ओर इसका विकास एक लम्बे इतिहास का परिणाम है ।
इसलिए भारतीय भूगोल के ऐतिहासिक विकास को निम्न कालों (Periods) में विभाजित किया जा सकता है:
1. सिंध घाटी की सभ्यता काल (पूर्व वैदिक काल) (Pre-Vedic) [4000-2000 B.C.]
2. वैदिक काल (Vedic Period) [1500-1000 B.C.]
3. महाकाव्य काल (Great Epic Period) [600 B.C.- 300 A.D.]
4. बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ काल (Bodh & Jain Period) [400 B.C. – 500 A.D.]
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5. पुराण काल (Purana Period) [200 B.C. – 700 A.D.]
1. सिंध घाटी सभ्यता काल (Pre-Vedic) [4000-2000 B.C.]:
भारत की सिंध घाटी सभ्यता 5000 वर्ष पुरानी मानी जाती है । यह भारतीय महाद्वीप के उत्तरी-पश्चिमी भाग पर फैली थी । हड़प्पा नगर के नाम पर इसे हड़प्पा संस्कृति कहा जाता है । इसका विस्तार वर्तमान में उत्तर व पश्चिम में सिंध नदी, पूर्व में यमुना व दक्षिण में नर्मदा नदी तक माना जाता है ।
यह ब्लूचिस्तान, सिंध, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैली थी । यह सबसे विकसित नगरीय सभ्यता थी । इसका पता 1922 में ब्रिटिश पुरातत्ववेताओं द्वारा सिंध में मोहन जोदड़ो की खुदाई करने से लगा था ।
यह सभ्यता ईसा से 2500 से 2200 ईसा पूर्व काफी विकसित अवस्था में थी । इनकी विकसित अवस्था के समय को पीतल युग (Bronze Age) कहा जाता है । इस सभ्यता का पतन 1500 ईसा पूर्व हो गया था । इस सभ्यता के विस्तार का पता 1947 के बाद पंजाब में रोपड़, राजस्थान में कालीबंगा, गुजरात में लोथल, धौलाबरा व सुरकोटाडा, हरियाणा में बानावली, कुनाल में मिला है ।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के निर्देशक के अनुसार हड़प्पा संस्कृति के चिह्न लगभग 700 स्थानों पर उपलब्ध है, लेकिन इनमें से अभी 35 स्थानों की स्थिति को सुनिश्चित किया जा सका है । जिन नगरों के अवशेष खोज लिए गए हैं, उनमें सम्पन्न नगरीय जीवन व बस्तियों का पता लगा है ।
जिनकी विशेषतायें इस प्रकार है:
i. नगर-निर्माण कला से परिचित थे, इनको निश्चित योजना द्वारा बसाया गया था ।
ii. नगरों के चारों ओर सुरक्षा के तौर पर तथा जलापूर्ति की दृष्टि से जल की खाई (Moat) बनाई जाती थी, जिसमें अतिरिक्त जल का संग्रह किया जाता था ।
iii. सड़क मार्ग पक्के चौड़े व एक दूसरे को समकोण पर काटते थे ।
iv. मकान पक्की ईंटों व गारे के बने होते थे । उनमें सूर्य प्रकाश, हवा की दिशा, मौसम के प्रभाव का विशेष ध्यान रखा जाता था । प्रत्येक घर में स्नानागार, कुंआ चूल्हे, अग्निकुण्ड, गंदे पानी और वर्षा का जल निकालने वाली नालियाँ बनी होती थीं ।
v. नगर में विभिन्न कार्यों के विकास की जगह सुनिश्चित थी । व्यापारिक स्थल नगर के मध्य में स्थित होता था ।
vi. सार्वजनिक कार्यों के लिए विशाल भवनों का निर्माण किया जाता था ।
vii. यह घाटी उपजाऊ मिट्टियों से ढकी थी, यहां पर कपास, गेहूँ और धान की खेती होती थी ।
viii. नदियों के पानी का प्रयोग सिंचाई, परिवहन के लिए किया जाता था ।
ix. परिवहन का साधन ऊँट, बैल, घोड़े थे, जिनके काफिलों द्वारा माल ढोया जाता था ।
x. विदेशी व्यापार की दृष्टि से लोथल बंदरगाह का विकास किया गया था ।
xi. पर्यावरण का विशेष ध्यान रखा जाता था सफाई, सुरक्षा, पहुँचनीयता, जलापूर्ति गंदे जल की सुनिश्चित निकासी की व्यवस्था थी ।
xii. अनेक कुटीर उद्योगों का विकास हो गया था जैसे वस्त्र, धातु, आभूषण, खिलौने, बर्तन कृषि उपकरण आदि । इन उद्योगों से प्राप्त तैयार माल सड़क व समुद्री मार्गों द्वारा पश्चिमी एशिया उत्तरी अफ्रीका व दक्षिणी यूरोप के देशों को भेजा जाता था ।
xiii. अनेक बड़ी बस्तियां वस्तु विनिमय का केन्द्र बन गई थी । नगरों में अतिरिक्त कृषि उत्पादन एकत्र किया जाता था व उसको दूरस्थ भागों में भेजा जाता था ।
xiv. वही नगर अधिक प्रगति कर पाते थे जिनकी स्थिति नदी किनारे होती थी ।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सिंध घाटी सभ्यता के समय भारत का यह भाग कृषि उद्योग व्यापार बस्तियों के सुनियोजित विकास सम्बन्धी विशेषताओं से युक्त था नदी समुद्र व सड़क परिवहन के साधन बन चुके थे ।
पहियों (Wheels) व नावों का प्रयोग होता था । भारतीय हस्तशिल्प वस्तुओं की विदेशों में बहुत मांग थी । मिट्टी के बर्तन व खिलौने बनाने की कला विकसित थी । ईटों को भट्टों में पकाया जाता था । आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से यहाँ के लोग समृद्ध व सम्पन्न थे ।
इस काल में समय गणना लेखन कला माप की गणना का ज्ञान विकसित हो चुका था । मोहनजोदड़ों, हडप्पा, धौलाविरा कालीबगा नगरी की खुदाई से प्राप्त अवशेषों से पता लगा है कि उस समय मूर्तियाँ, खिलौने उपकरण, आभूषण बर्तन वस्त्र बनाने की कला काफी विकसित थी ।
शुष्क मौसम के समय जलापूर्ति की सुनिश्चित प्राप्ति का विशेष ध्यान रखा जाता था कुओं के जल का प्रयोग घरेलू कार्यों में किया जाता था नगरीय वस्तियां ग्रामीण क्षेत्रों के सेवा केन्द्र के रूप में कार्य करती थीं । नगरों के लोगों का जीवन संतुलित व उत्तम था नगरों की जनसंख्या 10000 से 40000 के बीच थी । इस प्रकार सिंध घाटी सभ्यता के समय भारत का यह भूभाग अर्थात् इसका भूगोल अत्यन्त विकसित था नगर विकसित समाज के प्रतीक बन चुके थे ।
2. वैदिक युग (Vedic Period) [1500-1000 B.C.] :
यह युग ईसा से 1500 से 600 वर्ष पूर्व का माना जाता है । इस काल में जिस साहित्य का निर्माण हुआ उसमें चारों वेदों का स्थान सर्वोपरि है । इन वेदों के द्वारा भारतीय चिन्तन, आचार-विचार कर्म, धर्म, मनोभाव जीवन के भौतिक एवं व्यवहारिक पथ की जानकारी मिलती है । वेदों का शाब्दिक अर्थ ज्ञान है ।
ऋषियों से प्राप्त ज्ञान वेदों के द्वारा प्राप्त हुआ है वेद ज्ञान व विज्ञान का अलौकिक भण्डार है । इन वेदों से मानव आचरण के ज्ञान के साथ विशिष्ट भौगोलिक जानकारियां मिलती हैं हमारे वेद पुराकाल के चितन, भावनाओं व मनोदशा की दिलचस्प घटनाओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सामग्री प्रदान करते हैं ।
वेदों को प्राचीन ऋषियों के ब्रह्मकाल के रूप में माना गया है । इन वेदों में अनेक मंत्र हैं, इन मंत्रों के अर्थ बड़े गूढ़ हैं । इनका प्रत्येक शब्द सत्य, शाश्वत एवं अनन्त है । वेद वास्तव में ऋषि, मुनियों का वाणी है ।
वेद चार हैं:
(i) ऋग्वेद,
(ii) यजुर्वेद,
(iii) सामवेद और
(iv) अथर्ववेद ।
(i) ऋरग्वेरद प्राचीन वेद ग्रन्थ है । इसकी रचना अनेक ऋषियों ने की है ।
(ii) यजुर्वेद् का अर्थ है कि यज्ञ से सम्बन्धित वेद । इस वेद में यज्ञ करने की अनेक विधियों के बारे में बताया गया है ।
(iii) सामवेद ऐसा वेद है कि जिसके मंत्र यज्ञों में देवताओं की स्तुति हेतु गाये जाते हैं ।
(iv) अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि द्वारा की गई है । यह सांसारिक ज्ञान, धर्म, सामाजिक व्यवस्था, औषधि व रोगों केआर निदान के बारे में बताया है । ऋग्वेद में भारतीय नदियों की महत्ता का वर्णन है, जबकि अथर्ववेद में पृथ्वी के विभिन्न तत्वों, धरातल की रूप रेखा, वनस्पति, कृषि कार्य, लोगों के व्यवसाय खनिज सम्पदा आदि का वर्णन किया गया है ।
इन वेदों के साथ-साथ अनेक ग्रन्थों की रचना भी ऋषियों द्वारा समय-समय पर की गई है । आरण्यक ग्रन्थ ऐसे ग्रंथ हैं जिनका प्रतिपादन ऋषियों ने वनों में किया था । यह सभी ग्रन्थ ज्ञान के परम भण्डार हैं । इनमें से एक ग्रन्थ अश्रेय ब्राह्मण में भारत के प्रादेशिक विस्तार का वर्णन मिलता है ।
उपनिषद (Upanishad):
यह वह ज्ञान हे जो गुरू के पास बैठकर चेला प्राप्त करता है । ऋषियों के आश्रम में यह ज्ञान प्राप्त किया जाता था । यह आध्यात्मिक ज्ञान मानव व्यवहार व सदाचार की सीख देता है । यह आत्म ज्ञान के भण्डार हैं । इन उपनिषदों की भौगोलिक ज्ञान प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका है इन उपनिषदों के साथ-साथ स्मृतियाँ (Memoirs) भी वैदिक साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है ।
इस साहित्य की रचना विभिन्न विद्वान ऋषियों द्वारा की गई है यह अनेक उपदेशों का भण्डार है मनुस्मृति, व्यास स्मृति, भारद्वाज स्मृति, याज्ञवल्वय स्मृति एवं परासर स्मृति उल्लेखनीय है । इनमें जहां एक ओर मानव जीवन के कार्यकलापों का मार्गदर्शन मिलता हैं, वहीं दूसरी ओर भौगोलिक ज्ञान राजनीति पर अनेक जानकारिया प्राप्त होती है । इन्होंने पूरी पृथ्वी को एक परिवार माना है ।
व्यवसायों की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्ण बताये हैं । मानव जीवन की दशाओं को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास द्वारा दर्शाया गया है । तीनों कालों- भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में बताया गया है ।
3. महाकाव्य काल (Great Epic Period) [600 B.C.- 300 A.D.] :
रामायण और महाभारत की रचना का काल महाकाव्य काल कहलाता है । रामायण काल 600 से 400 की अवधि का माना जाता है, जबकि महाभारत काल 400 से 300 का माना जाता है । रामायण के रचयिता बाल्मीकि थे । इन्होंने रामायण की रचना सात खण्डों में की । यह एक मौलिक ग्रन्थ है इस ग्रंथ से अनेक भौगोलिक तथ्यों की जानकारी मिलती है । इसमें पर्वत शृंखलाओं वन क्षेत्रों नदियों पठारों मैदानों आदि का वर्णन मिलता है ।
लंका की उपस्थिति एक अलग राज्य के रूप में मिलती है । भारत में अनेक राजाओं के राज्यों की उपस्थिति का पता लगता है जैसे राजा दशरथ जनक आदि । भारत के जंगलों में रहने वाली विभिन्न जातियों की जानकारी मिलती है ।
यह जंगल ऋषि मुनियों के आश्रम थे । वनों में कन्द, फल, मूल, पेड़ व घास की बहुतायत थी । रामायण में एक नहीं अनेक पर्वतों की उपस्थिति का पता लगता है जैसे सुमेरू, कैलाश हिमालय, महेन्द्र पर्वत आदि नदियों में भागीरथी, मंदाकिनी गोदावरी, सरयू का वर्णन उल्लेखनीय है । इस समय लोगों को मौसम सम्बन्धी परिवर्तनों का पूरा ज्ञान था । भगवान राम सूर्यवंशी राजा थे, जिनका राज्य पूरी पृथ्वी पर फैला था । उन्हें युद्ध की सर्वश्रेष्ठ तकनीक का ज्ञान था ।
विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बन चुके थे । इस समय रथ व पुष्पक जैसे विशाल विमानों का प्रचालन था । रावण का रथ आकाश में विचरण करता था । महाभारत काव्य- महाभारत काव्य ग्रन्थ को रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी । इसमें युग पुरुष भगवान श्रीकृष्ण के जीवन काल की घटनाओं व उनकी कार्यशैली का वर्णन है । कौरवों व पांडवों के युद्ध का वर्णन इस ग्रंथ की प्रमुख विशेषता है ।
इस समय हुस्तिनापुर, सिंध, गंधार, मगध, मत्स्य, कैकेय आदि अनेक राज्य थे । इन राज्यों व युद्ध तकनीकों के साथ-साथ महाभारत के अध्ययन से प्राकृतिक दशाओं मानव समाज, सामाजिक परम्पराओं एवं जीवन शैली का ज्ञान प्राप्त होता है ।
पाण्डवों की यात्राओं से अनेक भौगोलिक तथ्यों की जानकारी मिलती है । श्रीमदभगवतगीता की रचना महर्षि वेदव्यास व उनके शिष्यों के सहयोग से की गयी, जो सामाजिक, नैतिक, दार्शनिक, धार्मिक एवं मानवीय व्यवहार सम्बन्धी अनुकूल करने योग्य उपदेशों का ज्ञान प्रदान करती है । कर्म को प्रधान मानती है ।
महाकाव्य काल आर्थिक दृष्टि से काफी सम्पन्न था । कृषि, पशुपालन व व्यापार प्रमुख मानव क्रिया कलाप थे । कृषि में सिंचाई का महत्व था । तालाब, नहरें, कुएँ, सिंचाई का प्रमुख साधन थे । व्यावसायिक ढाँचा परस्पर आधारित था ।
4. बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ काल (Bodh & Jain Period) [500 B.C. – 500 A.D.]:
इस अवधि के प्रारम्भ में धार्मिक व्यवस्था में आई जटिलताओं ने नये धर्मों को जन्म दिया । इन धर्मों में बौद्ध एवं जैन धर्म प्रमुख थे । दोनों धर्मों में विकसित विचारधारायें भौगोलिक ज्ञान के विकास का प्रतीक है ।
बौद्ध धर्म के जनक महात्मा बुद्ध थे, जिनका असली नाम सिद्धार्थ था । इनका जन्म स्थान पर हुआ था । बौद्ध साहित्य से मानव के आचरण सम्बन्धी निर्देश का ज्ञान प्राप्त वहीं भारत में विभिन्न राज्यों की उपस्थिति व उनकी संघीय व्यवस्था का पता लगता है । बौद्ध भगवान ने कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था । नगर बस चुके थे ।
जैन धर्म की स्थापना प्रथम तीर्थकंर ऋषवदेव जी ने की थी । जैन अर्थों में कुल 24 तीर्थकंर हुए हैं इनमें 23 व 24वें तीर्थकंर क्रमश: पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी का नाम विशेष रूप से लिया जाता है । 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ (परसनाथ) थे, जिनका जन्म काशी में हुआ था । इन्होंने श्रावस्ती, कौशाम्बी, हस्तिनापुर, साकेत में जैन धर्म का प्रचार किया था । आज यह सभी स्थान नगरों के रूप में विद्यमान हैं ।
24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी थे, जिनका जन्म वैशाली के निकट कण्ड ग्राम में आ था उन्होंने अपने धर्म का प्रचार काफी दूर-दूर तक किया था । वर्तमान में इन क्षेत्रों का विस्तार बिहार मध्य प्रदेश महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश पर है । वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती, कौशल, विदर्भ, मगध आदि स्थान जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र थे । जैन धर्म में कृषि की अपेक्षा व्यापार को महत्व दिया जाता था ।
इनकी स्थापत्य कला का उदाहरण उड़ीसा का हाथीगुम्फा मंदिर, राजस्थान का माउण्ट आबू व दिलवाड़ा मंदिर, कर्नाटक का गोमटेश्वर मन्दिर है । जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है । जैन साहित्य का अवलोकन अनेक महत्वपूर्ण भौगोलिक जानकारियाँ प्रदान करता है ।
5. पुराण काल (Purana Period) [500 B.C. – 700 A.D]:
पुराण का अर्थ है प्राचीन । पुराण साहित्य प्राचीन भारत के भूगोल इतिहास धर्म विज्ञान व राजनीति सम्बन्धी ज्ञान से भरा पड़ा है । प्रथम पुराण की रचना 500-400 वर्ष ईसा पूर्व महर्षि व्यास जी ने की थी । तब से लेकर लगभग 1200 वर्षों में 18 पुराण व 29 उपपुराणों की रचना हो सकी है ।
पौराणिक साहित्य में अध्यात्मवाद, दर्शन धर्मशास्त्र नीतिशास्त्र कला, संस्कृति, साहित्य का इतना अद्भुत संकलन है, जिनसे तत्कालीन भौगोलिक दशाओं का समुचित ज्ञान प्रान्त होता है । इनके अतिरिक्त हिन्दी व संस्कृत विषय के विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों से भूगोल के विभिन्न पक्षों की जानकारी मिलती है । पृथ्वी की उत्पत्ति, महासागरों, नदियों, मौसम, वर्षा वनस्पति विभिन्न स्थानों के लोगों के रहन-सहन, व्यवसाय आदि का वर्णन इन पुराणों व ग्रन्थों में मिलता है ।