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Read this article in Hindi to learn about the growth and development of geography in India.
हमारे देश में भूगोल विषय में उच्च शिक्षा का विकास काफी विलम्ब से हुआ, सम्भवत: इसका कारण ब्रिटिश भारत में स्वतन्त्र चिन्तन का अभाव रहा यहाँ पर फ्रांस, जर्मनी या अमेरिका की भांति भारतीय विद्वानों ने प्रारम्भ में अपने विचारों को स्वयं की दार्शनिक विचारधारा के रूप में नहीं रखा, बल्कि उन्होंने जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन में विकसित विचारधारा को आधार मानकर अध्ययन किया ।
वर्तमान में भी भारतीय विद्वान विदेशी विद्वानों के विचारों प्रतिपादित तकनीकों व विधियों का अनुसरण करते हैं । वह अभी भी अपनी विचारधारा को भारतीय व प्रादेशिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर विकसित नहीं कर पाए हैं ।
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ब्रिटिश शासन काल में भूगोल का अध्यापन एवं अध्ययन सीनियर केम्ब्रिज अथवा इण्टरमीडिएट स्तर पर प्रारम्भ किया गया था, ऐसा 19वीं शताब्दी तक रहा, जबकि भूगोल को विभिन्न देशों व स्थानों की स्थिति विस्तार, क्षेत्रफल, भौतिक स्वरूप जलवायु, कृषि फसलों तथा व्यापार को बताने वाला विषय माना जाता था ।
ब्रिटिश भूगोलवेताओं विशेषत: डडले स्टाम्प, ने भारत में भूगोल की दिशा व प्रतिरूप को प्रभावित किया । 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में देश में विश्वविद्यालय स्तर पर भूगोल का विकास ब्रिटिश शासकों के निर्देशन में शुरू हो सका ।
यद्यपि इससे पूर्व ब्रिटिश सरकार ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग, भारतीय मौसम विभाग की स्थापना कर दी थी, जिन्होंने भारत व समीपवर्ती देशों के भौगोलिक मानचित्रों एवं दैनिक मौसम मानचित्रों को तैयार करने का कार्य प्रारम्भ करके देश में भूगोल के उच्च अध्ययन की ओर लोगों को आकर्षित करने का कार्य किया । वास्तव में भूगोल व उससे सम्बन्धित तथ्यों का विकास 18वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ, जिसको गति प्रथम विश्व युद्ध के बाद मिली और वास्तविक रूप 1970 के बाद मिला ।
इस प्रकार भूगोल के विकासक्रम को निम्न कालों (Periods) में रखा जा सकता है:
1. प्रारम्भिक ब्रिटिश काल:
अठारहवीं शताब्दी में भारत में सर्वेक्षण विभाग ने जो कार्य किए, उनमें भारत के धरातलीय भूपत्रकों (Topographical Maps) को तैयार कराना था । इस विभाग के महासर्वेक्षक मेजर जेम्स रेनल ने बंगाल की एटलस प्रकाशित की ।
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इन्होंने ‘गंगा व ब्रहमपुत्र नदियों द्वारा डेल्टा निर्णण’ व ‘हिन्द व अटलांटिक महासागर की धाराएँ’ नामक पुस्तकों की रचना की । 19वीं शताब्दी में भूगोल का अध्ययन विद्यालय स्तर तक सीमित रहा । इस स्तर को सीनियर केम्ब्रिज का नाम दिया, जिसे आज इण्टरमीडिएट के नाम से पुकारा जाता है ।
देश के नये-नये नगरों में भूगोल को अंग्रेजी माध्यम से पढाया जाने लगा । इसको इतिहास विषय से भी जोड़कर पढ़ाया जाने लगा । यह विषय एक नीरस विषय बना रहा । भारतीय विद्वानों को न तो भूगोल को विकसित करने के लिए उत्साहित किया गया, और न ही भारत में भूगोल पर लेखन कार्य को प्रोत्साहिन किया गया । ब्रिटिश शासकों ने इस शताब्दी में जो महत्वपूर्ण कार्य किए उनमें भारत की जनगणना सम्बन्धी आँकडों का प्रकाशन जिला स्तर पर गजेटियरों को तैयार करा कर उनका प्रकाशन कराना प्रमुख रूप से शामिल है ।
यह सभी ग्रन्थ आज भी भूगोल में शोधकर्त्ताओं को आधार प्रदान करते हैं । यह विभिन्न जिलों व बस्तियों के भूगोल के प्रारम्भिक तथ्यों की जानकारी देने के साथ उनके ऐतिहासिक व सामाजिक विकास के बारे में बताते है । जनगणना पुस्तकों का नियमित प्रकाशन उन्हीं के शासन की देन है, जिनको आज भारतीय जनगणना विभाग ने विस्तृत रूप प्रदान किया है ।
2. स्वतन्त्रता पूर्व एवं स्वतन्त्रता पश्चात प्रारम्भिक भारतीय काल (1920-1955):
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इसे भारत में भूगोल का स्थापना काल माना जाता है, जब भूगोल ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कदम रखा । इस विषय का अध्ययन-अध्यापन महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में प्रारम्भ हुआ । पंजाब विश्वविद्यालय से सम्बद्ध लाहौर के एक कालेज में 1920 में भूगोल का अध्यापन प्रारम्भ हुआ ।
इसके बाद 1927 में पटना, 1928 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भूगोल का अध्यापन स्नातक स्तर पर प्रारम्भ हुआ । इसके बाद सेण्ट जान्स कालेज आगरा (1935) इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1937) में भूगोल विभाग स्थापित किए गए ।
इस अवधि गे जिन अन्य महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में भूगोल विभाग की स्थापना स्नातक स्तर पर की गई उनमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय, कलकत्ता, मैसूर, उस्मानिया, विश्वविद्यालय हैदराबाद, बनारस, हिन्दू विश्वावद्यालय, वाराणसी, उदयपुर, जोधपुर, गोहाटी, कानपुर, अमरावती, मुरादाबाद शामिल है । इन भूगोल विभागों ने भूगोल को आगे बढ़ाने में जो योगदान दिया उससे भूगोल के स्नातकोत्तर विकास को प्रोत्साहन मिलने लगा ।
प्रारम्भ में स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षा विश्वविद्यालयों में विकसित हुई । 1935 के बाद अलीगढ़, कलकत्ता बनारस, लुधियाना मद्रास इलाहाबाद और पटना में भूगोल की शिक्षा स्नातकोत्तर स्तर पर दी जाने लगी । यह सात विश्वविद्यालय आज भी भूगोल के अध्ययन-अध्यापन में अपना विशेष स्थान रखते हैं ।
महाविद्यालय स्तर पर 1950 से पूर्व स्नातकोत्ता विभागों की स्थापना आगरा विश्वविद्यालय के पाँच महाविद्यालयों में हो चुकी थी इनमें सैण्ट जान्स कालेज व बलवन्त राजपूत कालेज आगरा के॰जी॰के॰ मुरादाबाद, डी॰ए॰वी॰ व वी॰एस॰एस॰डी॰ कानपुर शामिल है । इस समय तक भारत के प्रसिद्ध भूगोलवेताओं में जिनकी गिनती की जाती है, उनमें एस॰पी॰ चटर्जी, एच॰एल॰छिब्बर, आर॰एन॰दुबे, जार्ज कुरियन, ताहिर रिजवी, एस॰एम॰अली, एस॰सी॰ चटर्जी, एन सुब्रमण्यम, आई॰आर॰खान के नाम उल्लेखनीय है ।
भारत में भूगोल को आधार प्रदान करने में उन विद्वानों ने अहम भूमिका निभाई जिन्होंने भूगर्भशास्त्र (Geology) में शिक्षा प्राप्त की थी । उनकी प्राथमिक रूचि भौतिक भूगोल में थी अत: उन्होंने भूगोल में भौतिक भूगोल से सम्बन्धित लेखों का प्रकाशन किया, व उनके अध्ययन पर जोर दिया, इनमें एस॰पी॰ चटर्जी एच॰एल॰ छिब्बर, एन॰ सुब्रमण्यम, एस॰सी॰ चटर्जी के नाम उल्लेखनीय है, इनके साथ-साथ आर॰एन॰ दुबे व जार्ज कुरियन ने आर्थिक व संसाधन भूगोल, एस॰एम॰ अली, ताहिर रिजवी व आई॰आर॰ खान ने गणितीय भूगोल व मानचित्रण भूगोल के विकास में अपना योगदान दिया ।
भारतीय विद्वानों ने भूगोल के अध्ययन-अध्यापन के लिए जिन पुस्तकों का सहारा लिया उनमें डी॰एन॰ए वाडिया की Geology of India, ओ॰एच॰के॰ स्पेट की India and Pakistan A Regional Geography, आर्थर होम्स An Introduction – Physical Geology, ट्विवार्था की An Introduction to Climate एवं Population Geography, माँकहाऊस की Map and Diagrams, एरविन रेज की Cartography, बुलड्रिज एवं मोरगन की भौतिक भूगोल, डडले स्टाम्प की एशिया का भूगोल, व्यवहारिक भूगोल, भारत का नवीन भूगोल, उल्लेखनीय है ।
उनके साथ-साथ देश में 1956 में राष्ट्रीय मानचित्रावली संगठन (NATMO) की कलकत्ता में स्थापना, दामोदर घाटी के सुव्यवस्थित विकास की योजना का क्रियान्वन, भारतीय सांख्यिकी संस्थान, भारत की तकनीकी आर्थिक सर्वेक्षण विभागों की स्थापना ने भी भूगोल के अध्ययन के महत्व को बढ़ाने में सहायता की ।
जिन विश्वविद्यालयों में भूगोल विभाग ने स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन कार्य प्रारम्भ कर दिया था, उन्होंने भौगोलिक शोध लेखों के प्रकाशन हेतु शोध पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया । उपरोक्त सभी कार्य भूगोल विषय के विकास में मील का पत्थर साबित हुए ।
3. भूगोल के विकास का भारतीय भूगोलवेत्ताओं का प्रथम काल (1956-1975):
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यह भूगोल के बहुमुखी विकास का काल माना जाता है । विकास के इस काल ने देश को ऐसे भूगोलवेत्ताओं को भूगोल के क्षेत्र में स्थापित किया, जिनके भौगोलिक विचारों, लेखों, शोध पत्रों ने विषय को एक नई दिशा प्रदान की इन विचारों ने भूगोल में शोध कार्यों को बढ़ावा दिया । इस काल के विद्वानों ने विषय को विचारों की जो शृंखला प्रदान की है, वह आज भी अतुलनीय है ।
इस काल के प्रमुख भूगोलवेता आर॰एल॰ सिंह, ए॰एस॰ जौहरी, एस॰एल॰ कायस्थ (वाराणसी), पी॰दयाल, आद्या सरन (पटना), मुहम्मद शफी, अनस अहमद, रफी उल्लाह (अलीगढ़), सी॰डी॰ देशपाण्डे (मुम्बई), उजागर सिंह (गोरखपुर), आर॰पी॰ सिंह (बोध गया) इनायत अहमद (रांची), वी॰एल॰एस॰ प्रकाशा राव (दिल्ली), ए॰एन॰ भट्टाचार्य (उदयपुर), वी॰सी॰ मिश्रा (जोधपुर), एच॰एस॰ भाटिया, शाह मंजूर आलम (हैदराबाद), जी॰एस॰ गोसाल, ए॰बी॰ मुखर्जी (चण्डीगढ), वी॰एस॰ गणानाथन (पुणे), के॰ बागची, एन॰आर॰ कार, ए॰बी॰ चटर्जी (कोलकाता) श्रीमति वी॰ए॰ जानकी (बडौदरा), ए॰ आर॰ तिवारी, इन्दपाल (आगरा) माने जाते है, इनमें से अधिकांश ने विदेशों में रहकर शोध कार्य किए व शोध उपाधियाँ प्राप्त की ।
लन्दन व पेरिस इनकी विशेष पसन्द रहे । समय के साथ अन्य भारतीय विद्वानों ने इनके दिशा निर्देशन में शोध कार्य किए हैं, जो आज तीव्र गति से जारी है । इस अवधि में अनेक महाविद्यालयों में स्नातक स्तर पर भूगोल विभागों की स्थापना की गई । स्नातकोत्तर स्तर पर भी इस विषय का तीव्रता से विकास हुआ है । इनमें धारवाड, ते राची, ओसमानिया, लुधियाना, कुरूक्षेत्र, चेन्नई, पटना, गोरखपुर, दिल्ली, श्रीनगर, नैनीताल, भुवनेश्वर, बडौदर, सागर, रायपुर, उल्लेखनीय हैं । यहाँ पर शोध विभागों की स्थापना की गई ।
उत्तरप्रदेश के अनेक महाविद्यालयों में स्नातकोत्तर व शोध स्तर पर भी विभागों की स्थापना की गई । इनमें हापुड, बड़ौत, गाजीपुर, बिजनौर, सहारनपुर, खुर्जा, मथुरा, शिकोहाबाद, धामपुर, मुरादाबाद, तथा पूर्वी उत्तरप्रदेश के और भी अन्य महाविद्यालय शामिल है ।
देश में भूगोल की जिन शाखाओं के विकास को बल मिला, उनमें कृषि भूगोल एवं ग्रामीण भूमि उपयोग नियोजन, नगरीय व ग्रामीण बस्ती भूगोल, प्रादेशिक नियोजन भूगोल, व्यवहारिक भूगोल, प्राकृतिक संसाधन एवं उनका संरक्षण भूगोल शामिल है । इस अवधि में अनेक विश्वविद्यालयों में भूगोल की विभिन्न शाखाओं में से किसी एक शाखा पर अपने-अपने यहाँ शोध अध्ययन केन्द्र स्थापित किए गए ।
इनमें वाराणसी में नगरीय एवं ग्रामीण अधिवास भूगोल, व्यवहारिक भूगोल, अलीगढ़ में ग्रामीण एवं कृषि भूमि उपयोग भूगोल, चंड़ीगढ में जनसंख्या भूगोल कोलकात्ता में नगरीय एवं प्रादेशिक भूगोल, मैसूर में प्रादेशिक नियोजन भूगोल, दिल्ली में प्रादेशिक एवं नगर नियोजन, पटना में भू-आकृति विज्ञान व संसाधन भूगोल, मुम्बई में प्रादेशिक भूगोल, हैदराबाद में नगरीय भूगोल, विशेष रूप से शामिल हैं ।
इस काल में भारत में भूगोल विषय की सबसे बड़ी उपलब्धि 1968 में दिल्ली में अन्तर्राष्ट्रीय भौगोलिक संस्था (International Geographical Union) के अधिवेशन को आयोजित किया जाना था । एशिया महाद्वीप में भारत को यह गौरव सबसे पहले प्राप्त हुआ । इसकी अध्यक्षता प्रोफेसर एस॰पी॰ चटर्जी ने की ।
इसमें भूगोल की लगभग सभी प्रमुख शाखाओं पर अलग-अलग अधिवेशन आयोजित किए गए जिसमें विषय विशेषज्ञों ने अपने-अपने शोध प्रपत्रों को प्रस्तुत किया । बनारस के भूगोल विभाग द्वारा व्यवहारिक भूगोल (Applied Geography), India – A Regional Studies ग्रन्थों का प्रकाशन प्रोफेसर आर॰एल॰ सिंह के निर्देशन में किया गया ।
इस अवसर पर भारत को ग्रामीण बस्तियों के विस्तुत अध्ययन का दायित्व उन्हें सौंपा गया । इसी का परिणाम था कि बनारस के भूगोल विभाग ने 1971 में भारतीय राष्ट्रीय भौगोलिक संस्था (National Geography Society of India) की रजत जयन्ती के अवसर पर अन्तर्राष्ट्रीय भूगोल गोष्ठी का आयोजन किया और तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन कराया, जिसमें India- A Regional Geography सबसे महत्वपूर्ण है, जो भारतीय भूगोलवेत्ताओं का एक संगठित व अतुलनीय प्रयास है ।
यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ भारतीय भूगोलवेत्ताओं के लिए भारत के प्रादेशिक भूगोल के अध्ययन व शोध कार्यों में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है । अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों में कुसुम दत्ता की Morphology of Indian Cities, एम॰पी॰ सिंह की Dhoiri Village – A Study in Rural Series, उल्लेखनीय है । इन कृतियों ने देश में भूगोल को एक नई दिशा देने में योगदान दिया ।
इस काल में शोध अच्छी, पत्रिकाओं एवं पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन भी तीव्र गति से प्रारम्भ हुआ । शोध ग्रन्थों व शोध पत्रिकाओं (Research Journals) के प्रकाशन में अलीगढ़ (The Geography), वाराणसी (The National Geographical Journal of India), कोलकाता (Geographical Review of India), हैदराबाद (The Nationals Geographical Journal) गोरखपुर (उत्तर भारत भूगोल पत्रिका), इलाहाबाद (The National Geographer), रांची (Geographical Outlook), आगरा (Geographical Viewpoint), अत्यन्त उल्लेखनीय हैं ।
पाठ्य पुस्तकों की दृष्टि से इस अवधि ने भूगोल को अनेक महत्वपूर्ण पाठ्य पुस्तकें हिन्दी भाषा में उपलब्ध कराई, जिन्होंने भूगोल विषय को हिन्दी भाषी राज्यों में लोकप्रियता दिलाने में मदद की । इसी का परिणाम था कि उत्तर भारत के राज्यों में भूगोल ने स्नातकोत्तर स्तर पर भारी प्रगति की ओर कदम रखा । जिन विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर उपयोगी पुस्तकों की रचना की, उनमें एम॰पी॰ करन, उजागर सिंह, एस॰डी॰ कोशिक, कृपा शंकर गौड़, चतुर्भुज मामोरिया, बी॰एस॰ चौहान, गोपालसिंह, आर॰एन॰टिक्का, एस॰सी॰ बसंल के नाम उल्लेखनीय हैं ।
देश के कुछ केन्द्रों पर जिन शोध पुरतकों का प्रकाशन किया गया, उनमें एस॰एम॰अली की (The Geography of Puranas) बेचन दुबे की (Geographical Concepts in Ancient India) राय टर्नर द्वारा सम्पादित (India’s Urban Future), मेयर एवं कोहन द्वारा सम्पादित (A Study in Urban Geography) भारतीय संस्करण, आर॰एल॰ सिंह की Banaras- A Study in Urban Survey तथा Bangalore – An Urban Survey, उजागर सिंह की Allahabad- A Study in Urban Geography, आर॰ एन॰ माथुर की Ground Water Resources of Meerut District, एस॰ सी॰ बंसल की ‘Town of Mysore State’ विशेष उल्लेखनीय हैं ।
इस काल में विभिन्न शिक्षा संस्थानों के भूगोलवेत्ताओं ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, एवं भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Social Science Research) से भूगोल की शोध परियोजनाओं पर आर्थिक सहायता प्राप्त की । उपरोक्त सभी प्रयासों से भूगोल विषय ने अपने विकास की युवावस्था में कदम रखा ।
(4) भूगोल के विकास का क्रांतिकारी काल 1975 के बाद आज तक:
बड़े-बड़े नगरों में भूगोल के विकसित होने के बाद इस विषय ने कस्बों व ग्रामीण केन्द्रों में कदम बढ़ाने शुरू किए । भूगोल विभागों की स्थापना उत्तर भारत के अनेक कस्बों में स्नातक स्तर पर होने लगी, तथा अनेक पूर्व स्थापित विभागों ने स्नातकोत्तर स्तर पर भूगोल को विकसित करना प्रारम्भ किया ।
अनेक विश्वविद्यालयों में विशेष रूप से इलाहावाद, वाराणसी, दिल्ली (जामिया, जवाहर लाल नेहरू व दिल्ली विश्वविद्यालयों), अलीगढ़, सागर, जयपुर जोधपुर, उदयपुर, चंडीगढ़, पटियाला, रोहतक, कुरूक्षेत्र, पटना, रांची, भुवनेश्वर, पूणे, मुम्बई, मैसूर, हैदराबाद, धारवाड, रायपुर, इन्दौर, शिलांग, हावड़ा, श्रीनगर में भूगोल में एम०फिल पदक्रम की स्थापना की गई ।
इन सभी केन्द्रों व स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन कार्य करने वाले केन्द्रों पर पी॰एच॰डी॰ उपाधि हेतु शोध कार्यों को बढ़ावा मिलना प्रारम्भ हुआ, जिसकी वजह सं भूगोल विषय ने आज एक नया रूप ग्रहण कर लिया है। इस अवधि में भौगोलिक अनुसंधान को विशेष बढ़ावा मिला है । इन सब उपलब्धियों को इस प्रकार रखा जा सकता है ।
इस अवधि में भारतीय भूगोल की बागडोर द्वितीय पीढ़ी के भूगोलवेत्ताओं के हाथ में आ गई, जिन्होंने दिग्गज भारतीय भूगोलवेत्ताओं के निर्देशन में शोधकार्यों को बढ़ावा दिया व भूगोल विषय के विस्तार एवं गुणवत्ता में सुधार किया । भूगोल को लोकप्रियता दिलाने के लिए उसमें नए-नए विचारों का समावेश किया । भूगोल को मानव कल्याण परक विषय माना जाने लगा ।
उनकी इस विचारधारा को प्रभावित करने में विदेशी विद्वानों पीट, स्मिथ, डिकिन्सन, राइट जोन्सटन, गालैज, हार्टशोर्न का विशेष योगदान रहा है । आचारपरक, क्रांतिकारी, अपराध, चुनाव, नगर नियोजन, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, नगरीय-ग्रामीण समन्वित विकास, महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक विकास में विशेष भूमिका, पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्धन, जैसे विषयों को भूगोल के अध्ययन का अंग माना जाने लगा ।
भूगोल को मानव कल्याण एवं जीवन में आवश्यक सुविधाओं के समान वितरण वाला विषय बताया । इसके साथ-साथ भूगोल में क्षेत्रीय समस्याओं, नगरों के विस्तार से उत्पन्न समस्याओं, प्रादेशिक नियोजन, आर्थिक असमानताएँ, बस्तियों के विभिन्न भागों में नगरीय जीवन की गुणवत्ता में विरोधाभास, प्रादेशिक असंतुलन एवं सामाजिक समस्याओं के अध्ययन पर ध्यान दिया जाने लगा ।
भूगोल की वर्तमान अवधि में जिन भूगोलवेत्ताओं ने अपना उल्लेखनीय योगदान दिया, उनको दो वर्गों में रखा जा सकता है । लेकिन यहाँ यह कहना भी तर्कसंगत होगा कि जिन दिग्गज भूगोलवेत्ताओं ने 1960-70 के दशक में भारत में भूगोल की आधारशिला रखी, तथा उसे नया आयाम देकर नयी-नयी विधाओं व तकनीकों से सुसज्जित किया, उनका योगदान इस अवधि में निरन्तर प्राप्त होता रहा है, व उन्होंने वर्तमान पीढ़ी के भूगोलवेत्ताओं को नया मार्गदर्शन दिया है, इनके साथ-साथ देश के विभिन्न भागों में संगोष्ठियों शोध पत्रों व शोध पुस्तिकाओं के प्रकाशन द्वारा विषय का कार्यकलाप कर दिया है ।
जिन भूगोल विद्वानों ने इन विचारों को बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें नया रूप दिया हैं, उनमें प्रोफेसर मुनिस रजा व एजाजउद्दीन अहमद (नई दिल्ली), आर॰पी॰ मिश्रा, प्रकाश राव, माजिद हुसैन, बालेश्वर ठाकुर, आर॰बी॰ सिंह (दिल्ली), ए॰बी॰ मुखर्जी, गोपाल कृष्णन, आर॰सी॰ चांदना (चंडीगढ़) बी॰ बेनर्जी, एम॰एम॰ जाना (कोलकाता) आर॰एल॰ द्विवेदी, सविन्द सिंह व आर॰एन॰ तिवारी (इलाहाबाद), काशी नाथ सिंह, एस॰एल॰ कायस्थ, ए॰एस॰ जौहरी (वाराणसी), उजागर सिंह, जगदीश सिंह, वीके॰ श्रीवास्तव (गोरखपुर), ओमप्रकाश सिंह, आर॰एन॰ पाण्डे (नैनीताल), राम नगीना सिंह, (श्री नगर, गढ़वाल), एन॰पी॰ सक्सैना, बी॰बी॰ सिंह, एस॰सी॰ बंसल (मेरठ), के॰आर॰ दीक्षित (पूर्ण), मधुसूदन सिंह (आगरा), वी॰एन॰ सिन्हा, डी॰के॰ सिंह (भूवनेश्वर), एन॰बी॰के॰ रेड्डी (तिरूपति), पी॰ पाण्डेय (रांची), एम॰एच॰ कुरेशी (नई दिल्ली), एल॰एन॰ राम (पटना) ए॰रमेश (चैन्नई), आर॰एन॰पी॰ सिन्हा (बड़ौदरा), जसवीर सिंह (कुरूक्षेत्र) आर॰डी॰ दीक्षित (रोहतक) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
इनके अलावा और भी अनेक ख्याति प्राप्त भूगोलविदों ने विभिन्न संस्थाओं में भूगोल के अध्ययन अध्यापन व उसके विकास में सराहनीय योगदान किया है । इनके साथ कई ऐसे संस्थान हैं । जिनमें भूगोलविदों ने अपनी सेवाओं से इस विषय का वर्चस्व स्थापित किया है । भारतीय सांख्यिकी संस्थान में एल॰एस॰ भट्ट भारतीय जनगणना विभाग में बी॰एस॰ राय, राष्ट्रीय एटलम संस्थान में पी॰ नाग, ग्रामीण विकास संम्मान में सुधीर वनमाली के नाम उल्लेखनीय है ।
तृतीय पीढ़ी व वर्तमान नई पीढ़ी के रूप में भूगोलविदों की सूची काफी लम्बी है । उन सबका नाम यहां पर देना संभव नहीं है, लेकिन इनमें से कुछ का यहां उल्लेख आगे किया जा रहा है । राजस्थान, उत्तरप्रदेश हरियाणा दिल्ली पंजाब बिहार मध्यप्रदेश निन्दी भाषी राज्यों में भूगोल का अध्ययन अनेक महाविद्यालयों में होने से इसका काफी विकास व प्रचार हुआ है ।
दक्षिण व पश्चिम के अंग्रेजी भाषी राज्यों में अथवा जहां अंग्रेजी भाषा का प्रभुत्व है, उसमें महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल उल्लेखनीय है । शेष सभी राज्यों में भी यह विकास की ओर अग्रसर है । जम्मू-कश्मीर हिमाचल प्रदेश मेघालय में भी इस विषय ने अपने अध्ययन केन्द्रों का विकेन्द्रीकरण कर दिया है ।
पिछले तीन दशकों में देश के विभिन्न भागों में स्थापित प्रमुख अध्ययन केन्द्र इस प्रकार हैं- नेहरू विश्वविद्यालय (NEHU) शिलांग, (1976), गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर (1977), गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद (1977), मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा (1978), विश्वभारती (1978), कश्मीर विश्वविद्यालय, श्रीनगर (1979) महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक (1983), जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय नई दिल्ली (1983) मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल (1984), जम्मू (1988), हिमाचल विश्वविद्यालय, शिमला (1989) उल्लेखनीय हैं । इनके अलावा नैनीताल, मेरठ, लखनऊ, ग्वालियर, जबलपुर, बिलासपुर, राऊरकेला, कोहिमा, तिरूचिरापल्ली, उदयपुर, अजमेर विश्वविद्यालय स्तर पर पहचाने जाते हैं ।
उत्तर प्रदेश के जिन नगरों में स्नातकोत्तर पर इस विषय का विकास दुआ है, उनमें बिजनौर, नजीबाबाद, बरेली, उन्नाव, हरदोई, बस्ती, गौण्डा, पाडूरौना, फैजाबाद, गाजीपुर, जौनपुर, सुल्तानपुर, एटा, शिकोहाबाद, औरेया, झांसी, बांदा, हाथरस, मथुरा, प्रतापगढ़, इटावा, बलिया, फरूखाबाद, रायबरेली, मीरगंज, रामपुर, अमरोहा, चंदौसी, चाँदपुर, उल्लेखनीय है ।
मेरठ विश्वविद्यालय में इस भूगोल का स्नातकोत्तर विभाग आर॰पी॰ सिंह (बरेली) की देन है । उन्होंने 2004 में इसको स्थापित कराया । इसके अलावा एस॰डी॰ कालेज मुजफ्फरनगर, आर॰जी॰ कालेज मेरठ, एम॰एम॰एच॰ कालेज गाजियाबाद उल्लेखनीय हैं । स्नातक सार पर यह विषय उत्तरप्रदेश के लगभग सभी प्रमुख कस्बों व नगरों में अपनी जड़ें जमा चुका है ।
उत्तराखण्ड में भी इस विषय ने काफी प्रगति की है, यहाँ सरकारी सहायता से अनेक महाविद्यालयों में भूगोल विभाग स्थापित हुए है । उनमें पौढ़ी, टिहरी, गोपेश्वर, रूद्रप्रयाग, अगस्तयमुनि, कोटद्वार, रूद्रपुर, खटीमा, पिथौरागढ़, लौहाघाट, अल्मोडा, बागेश्वर, उत्तरकाशी, रामनगर उल्लेखनीय है ।
वर्तमान में महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में कार्यरत जिन भूगोलविदों ने विषय के विकास में विशेष रूप से उच्चस्तर के शोधकार्यों को प्रस्तुत करके, अपना जो योगदान दिया है, उनका वर्णन भूगोल विषय की विभिन्न शाखाओं के साथ दिया गया है ।
पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं के अध्ययन का प्रयास भूगोलविदों द्वारा 1972 से प्रारम्भ हुआ । 1972 में स्टॉकहोम (स्वीडन) 1992 में रियो (ब्राजील) के पृथ्वी सम्मेलन के बाद सम्पूर्ण विश्व का ध्यान पर्यावरणीय समस्याओं के अध्ययन की ओर गया ।
इसमें वायुमण्डल में बढ़ती विषैली गैसों का अनुपात व उनका ओजोन पर्तों पर विपरीत प्रभाव, वाहनों से निकलता धुआं व उनसे होने वाला वायु व शोर प्रदूषण, भूमिगत जल के भंडारी में कमी व जल प्रदूषण, रेडियों धर्मी प्रदूषण, कृषि में भारी मात्रा में रसायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं के प्रयोग किए जाने के कारण होने वाले दुष्प्रभाव, मिट्टी की घटती उत्पादकता, कृषित भूमि का घटता क्षेत्रफल आदि शामिल है ।
यह सब विषय भूगोलवेत्ताओं के लिए आकर्षण का केन्द्र बनने लगे है । प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस, 11 जुलाई को जनसंख्या दिवस व 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने में भी भूगोलविद विशेष रूचि रखते है । पारिस्थितिकी असंतुलन से सम्बन्धित अध्ययन भी शोध का विषय बने ।
इनके साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा भूगोल, निर्वाचन भूगोल, विपणन भूगोल, जैविक भूगोल, कृषि एवं ग्रामीण भूमि उपयोग भूगोल, राजनीतिक भूगोल, पर्यटन भूगोल, मात्रात्मक भूगोल, शोध विधि भूगोल, सामाजिक भूगोल, सांस्कृतिक भूगोल, परिवहन भूगोल, अपराध भूगोल, सुदूर संवेदन भूगोल, प्रादेशिक नियोजन एवं ग्रामीण समन्वित विकास भूगोल, महानगरीय नियोजन से सम्बन्धित अध्ययन प्रमुख हैं ।
इस अवधि में भूगोल से सम्बन्धित ऐसे संस्थानों की स्थापना हुई है, जिनमें भूगोलविदों ने अपने शोध व सेवा कार्यों द्वारा विशेष योगदान दिया है । यह संस्थान अन्तर्विषयक- अध्ययन की प्रवृति रखने वाले है । जे॰एन॰यू॰, नई दिल्ली में स्थापित भूगोल व अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन विभाग इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं । यहाँ पर Centre for Study of Regional Developments व School of International Studies में भूगोलविदों के साथ अर्थशास्त्री, जनसंख्याविद, राजनीति विज्ञानविद मिलकर शोधकार्य कर रहे हैं ।
नई दिल्ली में स्थित National Institute of Urban Affairs, Indian Institute of Public Administration, Centre for Science and Environment, Indian Institute of Town Planners, Indian Statistical Institute नामक संस्थानों में भारतीय भूगोलवेत्ताओं ने अमूल्य योगदान दिया है ।
अन्य प्रमुख व महत्वपूर्ण संस्थानों में Central Arid Zone Research Institute, Birla Institute of Scientific Research, जयपुर, International Population Studies, मुम्बई, Centre for Social Science Studies, कोलकाता, Centre for Study of Man and Environment, कोलकाता, Department of Archaeology and Regional Planning, आई॰ आई॰ टी॰ खड़गपुर, Indian institute of Tropical Meteorology पुणे, Indian Institute of Remote Sensing, Forest Research Institute, Survey of India देहरादून, National Institute of Rural Development तथा National Remote Sensing Agency, हैदराबाद, Institute of Regional Analysis, भोपाल Institute of Economic and Social Research, अहमदाबाद G.B Pant Social Science Institute, इलाहाबाद शामिल हैं, जहाँ भूगोल व उससे सम्बन्धित विषयों पर अध्ययन एवं अध्यापन कार्य चलाए जा रहे हैं । भूगोल को आज एकीकृत विज्ञान के रूप में पेश किया जा रहा है, यह अन्य विषयों के साथ तालमेल बैठाकर उन्हें नई-नई जानकारियाँ उपलब्ध करा रहा है ।
आज देश के अनेक क्षेत्रों, जिनमें विशेष रूप से भूमि उपयोग, नगरीय नियोजन, विभिन्न क्षेत्रों का मानचित्रण, प्रादेशिक नियोजन, अद्यःसंरचनात्मक सुविधाओं का विस्तार एवं स्थापन में भूगोलवेत्ता अपना व्यवहारिक योगदान दे रहे हैं । वायु फोटो एवं सुदूर संवेदन प्रतिबिम्बों (Imageries) का विश्लेषण भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान, देहरादून, अंतरिक्ष अनुप्रयोग केन्द्र अहमदाबाद, राष्ट्रीय सुदूर संवेदन अभिकरण हैदराबाद, संस्थानों द्वारा कम्प्यूटर व नवीनतम तकनीकों द्वार किया जा रहा है ।
आज भारतीय सर्वेक्षण विभाग, देहरादून का डिजिटल कार्टोग्राफी मानचित्रण (Digital Cartography Mapping) विभाग भारतीय धरातलीय पत्रकों (Topographical Maps) का गहन विशलेषण कर उनके न केवल Thematic मानचित्र तैयार कर रहा है, बल्कि उनका क्षेत्रीय व स्थानिक आंकलन कर रहा है ।
भारतीय जनगणना विभाग, नई दिल्ली तथा देश के सभी राज्यों की राजधानियों में स्थापित राज्य जनगणना विभागों में भूगोलवेत्ताओं ने जनगणना से प्राप्त कड़ी को मानचित्रों एवं चित्रों की सहायता से प्रस्तुत किए जाने में सहायता की है । इन विभागों से प्राप्त कड़ी ने भूगोल विषय के शोधार्थियों को अत्यन्त उपयोगी जानकारियां एवं कई प्रदान किए हैं ।
देश के प्रत्येक जनपद में स्थापित सांख्यिकी विभाग भी भूगोल के अध्ययन के आधार बनते जा रहे हैं । कोलकाता का राष्ट्रीय एटलस मानचित्रण संगठन (NATMO) ने भारतीय मानचित्रावली को नए ढंग से प्रस्तुत करके क्षेत्रीय भौगोलिक अध्ययनों को बढ़ावा देने में सहायता की है । आज भारत के भूगोल का विद्यार्थी देश में तैयार की गई मानचित्रावलियों से अध्ययन कर रहा है । इसमें नाटमो के बी॰के॰ राय, जी॰के॰ दत्ता, एस॰पी॰ चटर्जी, पृथ्वीश नाग का योगदान उल्लेखनीय है ।
आज देश के विभिन्न स्थलों पर होने वाली गोष्ठियाँ भूगोल के किसी न किसी एक प्रकरण (Theme) को लेकर आयोजित की जाने लगी हैं, बल्कि राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित गोष्ठियों में सभी महत्वपूर्ण शाखाओं पर लेखों व शोध पत्रों को प्रस्तुत करने के लिए अलग-अलग प्रखण्ड सुनिश्चित कर दिए जाते हैं, ताकि भूगोल के सभी पक्षों को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिल सके तथा विद्वानों के शोध पत्रों के प्रस्तुतीकरण में प्रकाशन द्वारा भूगोल के उस पक्ष अर्थात शाखा में नई-नई जानकारियों का समावेश हो सके ।
राष्ट्रीय स्तर पर भूगोलवेत्ताओं का संगठन (National Association of Geographers) प्रतिवर्ष इस तरह की गोष्ठियों का आयोजन करता है, और भूगोल की विषय सामग्री में गुणात्मक वृद्धि करने के साथ-साथ, उसमें नयी-नयी विधाओं व तकनीकों अन्तर्विषयक महत्व के लेखों के प्रकाशनों में योगदान दे रहा है ।
आज का भूगोल मानव के लिए कल्याणकारी योजना बनाने में मददगार साबित हो रहा है । पर्यावरण एवं मानव जीवन की गुणवत्ता से सम्बन्धित अनेक अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय गोष्ठियों का आयोजन किया जाने लगा है । 1974 से 1977 के दौरान डी॰एम॰ स्मिथ (D॰M॰ Smith) के शोध लेखों व पुस्तकों के प्रकाशन के बाद भूगोलवेत्ताओं ने मानव कल्याण एवं जीवन की गुणवत्ता सम्बन्धी अध्ययनों पर ध्यान देना प्रारम्भ किया है ।
आज भूगोल में प्रादेशिक विकास की योजना इस उद्देश्य से प्रस्तुत की जाती है, जिससे उस क्षेत्र में रहने वाले लोग वहाँ के संसाधनों पर बराबर का अधिकार समझकर, अपना सामाजिक व आर्थिक विकास कर सकें, तथा गरीब व अमीर. मालिक व मजदूर के बीच के अन्तर को कम कर सकें ।
क्रांतिकारी भूगोल (Radical Geography) का भूगोल की एक शाखा के रूप में विकास इसी दिशा में एक कदम है । आज भूगोलवेता नगर के भीतर गंदी बस्तियों (Slums) को अपने अध्ययन का आधार मानकर उनमें व्याप्त आर्थिक व सामाजिक असमानताओं पर समाज सुधारकों का ध्यान आकर्षित कर रहा है ।
नगर में प्राप्त सुविधाओं पर अधिकार धनाढ्य वर्ग का ही नहीं है, बल्कि नगर के प्रत्येक निवासी चाहे वह किसी भी आर्थिक स्तर का हो, का इन सुविधाओं को प्राप्त करने का समान अधिकार है । इसी प्रकार खदान में कार्यरत श्रमिक व प्रबन्धन में लगे व्यक्तियों को प्राप्त लाभ का समान अवसर मिले ।
स्पष्ट है कि भूगोलवेताओं का ध्यान प्रादेशिक व स्थानीय समस्याओं, प्रादेशिक नियोजन, आर्थिक एवं सामाजिक असमानता, प्रादेशिक व पारिस्थितिकीय असंतुलन, एकीकृत क्षेत्र विकास, ग्रामीण विकास, वन्य जीव संरक्षण, जलवायु प्रदूषण, संचार तन्त्र का विकास के अध्ययन पर गया है ।
हाल ही में हमारे माननीय महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने पुरा (PURA) (Providing Urban Facilities in Rural Areas) की जो विचारधारा प्रस्तुत की है, उसमें भूगोलवेत्ता विशेष योगदान दे सकता है, क्योंकि वह ग्रामीण समन्वित विकास की विचारधारा से परिचित है तथा ऐसे अध्ययनों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहा है ।