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Here is an essay on the ‘Universe’ for class 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Universe’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Universe
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Essay Contents:
- तारा (Stars)
- सौरमंडल पर निबंध (Essay on the Solar System)
- उपग्रह पर निबंध (Essay on the Satellite)
- कृत्रिम उपग्रह पर निबंध (Essay on the Artificial Satellite)
- उल्काश्म व उल्कापिंड पर निबंध (Essay on the Bolide and Meteorites)
- पुच्छल तारे या धूमकेतु पर निबंध (Essay on the Comets)
- क्षुद्र ग्रह या अवान्तर ग्रह पर निबंध (Essay on the Asteroids)
मानव मस्तिष्क में एक क्रमबद्ध रूप में जब सम्पूर्ण विश्व का चित्र उभरा तो उसने इसे ब्रह्मांड (Cosmos) की संज्ञा दी । मिस्र-यूनानी परम्परा के प्रख्यात खगोलशास्त्री क्लाडियस टॉलमी (140 ई.) ने सर्वप्रथम इसका नियमित अध्ययन कर ‘जियोसेन्ट्रिक अवधारणा’ का प्रतिपादन किया ।
इस अवधारणा के अनुसार, पृथ्वी ब्रह्मांड के केन्द्र में है तथा सूर्य व अन्य ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं । ब्रह्मांड के संदर्भ में यह अवधारणा लम्बे समय तक बनी रही ।
परन्तु 1543 ई. में कॉपरनिकस ने जब ‘हेलियोसेन्ट्रिक अवधारणा’ का प्रतिपादन किया तो उसके पश्चात् ब्रह्मांड के संदर्भ में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया । इस अवधारणा के तहत कॉपरनिकस ने यह बताया कि ब्रह्मांड के केन्द्र में पृथ्वी नहीं, अपितु सूर्य है ।
यद्यपि ब्रह्मांड सम्बंधी उनकी अवधारणा सौर परिवार तक सीमित थी, तथापि इस अवधारणा ने ब्रह्मांड के अध्ययन की दिशा ही बदल दी । 1805 ई. में ब्रिटेन के खगोलशास्त्री हरशेल ने दूरबीन की सहायता से अंतरिक्ष का अध्ययन कर बताया कि सौरमंडल आकाशगंगा का एक अंश मात्र है ।
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अमेरिका के खगोलशास्त्री एडविन पी.हब्वल ने 1925 ई. में यह स्पष्ट किया कि दृश्यपथ में आने वाले ब्रह्मांड का व्यास 250 करोड़ प्रकाश वर्ष है तथा इसके अंदर हमारे आकाशगंगा की भाँति लाखों आकाशगंगाएँ हैं । वस्तुतः ब्रह्मांड की अवधारणा में क्रमिक परिवर्तन हुए एवं इसकी उत्पत्ति की व्याख्या के संदर्भ में कई सिद्धांत भी दिए गए हैं ।
Essay # 1. तारा (Stars):
आकाशगंगा के घूर्णन से ब्रह्मांड में विद्यमान गैसों का मेघ प्रभावित होता है तथा परस्पर गुरूत्वाकर्षण के कारण उनके केन्द्र में नाभिकीय संलयन शुरू होता है व हाइड्रोजन के हीलियम में बदलने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है ।
इस अवस्था में यह तारा बन जाता है । केन्द्र का हाइड्रोजन समाप्त होने के कारण तारे का केन्द्रीय भाग संकुचित व गर्म हो जाता है, किन्तु इसके बाह्य परत में हाइड्रोजन का हीलियम में बदलना जारी रहता है ।
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धीरे-धीरे तारा ठंडा होकर लाल रंग का दिखाई देने लगता है, जिसे रक्त दानव (Red Giants) कहा जाता है । इसके बाद हीलियम कार्बन में और कार्बन भारी पदार्थों जैसे- लोहा में परिवर्तित होने लगता है ।
इसके फलस्वरूप तारे में तीव्र विस्फोट होता है, जिसे सुपरनोवा विस्फोट (Supernova) कहते हैं । यदि तारों का द्रव्यमान 1.4 Ms (जहाँ Ms सूर्य का द्रव्यमान है) से कम होता है तो वह अपनी नाभिकीय ऊर्जा को खोकर श्वेत वामन (White Dwarf) में बदल जाता है ।
जिसे जीवाश्म तारा (Fossil Star) भी कहा जाता है । श्वेत वामन ठंडा होकर काला वामन (Black Dwarf) में परिवर्तित हो जाता है । 1.4 Ms को चन्द्रशेखर सीमा (Chandrasekhar Limit) कहते हैं । इससे अधिक द्रव्यमान होने पर, मुक्त घूमते इलेक्ट्रॉन अत्यधिक वेग पाकर नाभिक को छोड़कर बाहर चले जाते हैं तथा न्यूट्रॉन बचे रह जाते हैं । इस अवस्था को न्यूट्रॉन तारा या पल्सर कहते हैं ।
न्यूट्रॉन तारा भी असीमित समय तक सिकुड़ता चला जाता है अर्थात् न्यूट्रॉन तारे में अत्यधिक परिमाण में द्रव्यमान अंततः एक ही बिन्दु पर संकेन्द्रित हो जाता है । ऐसे असीमित घनत्व के द्रव्य युक्त पिंड को कृष्ण छिद्र या ब्लैकहोल कहते हैं । इस ब्लैकहोल से किसी भी द्रव्य, यहाँ तक कि प्रकाश का पलायन भी नहीं हो सकता । इसीलिए ब्लैकहोल को देखा नहीं जा सकता ।
ब्लैकहोल की संकल्पना को प्रतिपादित करने का श्रेय ‘जॉन व्हीलर’ को दिया जाता है । रॉग ब्लैकहोल दो या अधिक ब्लैकहोलों का समूह है । क्वेसर एक चमकीला खगोलीय पिंड है, जो अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा उत्सर्जित करता है । नासा ने अब तक पहचाने गए सबसे पुराने तारे की खोज की है, जिसे ‘केप्लर 444’ नाम दिया गया है ।
Essay # 2. सौरमंडल (Solar System):
सूर्य एवं उसके चारों ओर भ्रमण करने वाले 8 ग्रह, 172 उपग्रह, धूमकेतु, उल्काएँ एवं क्षुद्रग्रह संयुक्त रूप से सौरमंडल कहलाते हैं । सूर्य जो कि सौरमंडल का जन्मदाता है, एक तारा है, जो ऊर्जा और प्रकाश प्रदान करता है । सूर्य की ऊर्जा का स्रोत, उसके केन्द्र में हाइड्रोजन परमाणुओं का नाभिकीय संलयन द्वारा हीलियम में बदलना है ।
सूर्य की संरचना (The Structure of the Sun):
सूर्य का जो भाग हमें आँखों से दिखाई देता है, उसे प्रकाशमंडल (Photosphere) कहते हैं । सूर्य का वाह्यतम भाग जो केवल सूर्यग्रहण के समय दिखाई देता है, कोरोना (Corona) कहलाता है । कभी-कभी प्रकाशमंडल से परमाणुओं का तूफान इतनी तेजी से निकलता है कि सूर्य की आकर्षण शक्ति को पार कर अंतरिक्ष में चला जाता है; इसे सौर ज्वाला (Solar Flares) कहते हैं ।
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जब यह पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करता है तो हवा के कणों से टकराकर रंगीन प्रकाश (Aurora Light) उत्पन्न करता है, जिसे उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव पर देखा जा सकता है । उत्तरी ध्रुव पर इसे अरौरा बोरियालिस एवं दक्षिणी ध्रुव पर अरौरा आस्ट्रेलिस कहते हैं । सौर ज्वाला जहाँ से निकलती है, वहाँ काले धब्बे-से दिखाई पड़ते हैं । इन्हें ही सौर-कलंक (Sun Spots) कहते हैं ।
ये सूर्य के अपेक्षाकृत ठंडे भाग हैं, जिनका तापमान 15000C होता है । सौर कलंक प्रबल चुम्बकीय विकिरण उत्सर्जित करता है, जो पृथ्वी के बेतार संचार व्यवस्था को बाधित करता है। इनके बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया औसतन 11 वर्षों में पूरी होती है, जिसे सौर-कलंक चक्र (Sunspot-Cycle) कहते हैं ।
सूर्य के कोरोना का अध्ययन एवं धरती पर इलेक्ट्रॉनिक संचार में व्यवधान पैदा करने वाली सौर-लपटों की जानकारी हासिल करने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ‘इसरो’ ने आदित्य-1 उपग्रह का निर्माण किया । इसका प्रक्षेपण वर्ष 2017-20 के दौरान किया जाएगा । आदित्य-1 उपग्रह सोलर कॅरोनोग्राफ यंत्र की मदद से सूर्य के सबसे बाह्य भाग का अध्ययन करेगा ।
ग्रह (Planets):
तारों की परिक्रमा करने वाले प्रकाश रहित आकाशीय पिण्ड को ग्रह कहा जाता है । ये सूर्य से ही निकले हुए पिंड हैं तथा सूर्य की परिक्रमा करते हैं । इनका अपना प्रकाश नहीं होता, अतः ये सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं व ऊष्मा प्राप्त करते हैं ।
सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा पश्चिम से पूर्व दिशा में करते हैं, परन्तु शुक्र व अरूण इसके अपवाद हैं तथा ये सूर्य के चारों ओर पूर्व से पश्चिम दिशा में परिभ्रमण करते हैं ।
आंतरिक ग्रहों के अंतर्गत बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल आते हैं । सूर्य से निकटता के कारण ये भारी पदार्थों से निर्मित हुए हैं जबकि, बाह्य ग्रहों में बृहस्पति, शनि, अरूण व वरूण आते हैं, जो हल्के पदार्थों से बने हैं । आकार में बड़े होने के कारण इन ग्रहों को ‘ग्रेट प्लेनेट्स’ भी कहा जाता है । सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह बृहस्पति और सबसे छोटा बुध है ।
सौरमंडल के ग्रहों का सूर्य से दूरी के बढ़ते क्रमों में विवरण निम्नानुसार है:
1. बुध (Mercury):
बुध सूर्य का सबसे निकटतम तथा सौरमंडल का सबसे छोटा ग्रह है । यह 88 दिनों में सूर्य की परिक्रमा पूर्ण कर लेता है । सूर्य और पृथ्वी के बीच में होने के कारण बुध एवं शुक्र को अन्तर्ग्रह (Interior Planets) भी कहते हैं ।
वायुमंडल के अभाव के कारण बुध पर जीवन सम्भव नहीं है, क्योंकि यहाँ दिन अति गर्म व रातें बर्फीली होती हैं । इसका तापान्तर सभी ग्रहों में सबसे अधिक (5600C) है । बुध का एक दिन पृथ्वी के 90 दिन के बराबर होता है ।
परिमाण (Mass) में यह पृथ्वी का 18वाँ भाग है । बुध के सबसे पास से गुजरने वाला कृत्रिम उपग्रह मैरिनर-10 था, जिसके द्वारा लिए गए चित्रों से पता चलता है कि इसकी सतह पर कई पर्वत, क्रेटर और मैदान हैं ।
इसका कोई भी उपग्रह नहीं है । नासा द्वारा वर्ष 2004 में बुध ग्रह के लिए भेजा गया मानव रहित अंतरिक्ष यान ‘मैसेन्जर’ 30 अप्रैल, 2015 को बुध ग्रह की सतह से टकराकर नष्ट हो गया ।
2. शुक्र (Venus):
यह सूर्य से निकटवर्ती दूसरा ग्रह है तथा सूर्य की परिक्रमा 225 दिनों में पूरी करता है । यह ग्रहों की सामान्य दिशा के विपरीत सूर्य की पूर्व से पश्चिम दिशा में परिक्रमण करता है ।
यह पृथ्वी के सर्वाधिक नजदीक है, जो सूर्य व चन्द्रमा के बाद सबसे चमकीला दिखाई पड़ता है । इसे ‘सांझ का तारा’ या ‘भोर का तारा’ भी कहते हैं, क्योंकि यह शाम को पश्चिम दिशा में तथा सुबह पूरब दिशा में दिखाई देता है ।
आकार व द्रव्यमान में पृथ्वी से थोड़ा ही कम होने के कारण इसे ‘पृथ्वी की बहन’ कहा जाता है । शुक्र के वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड 90-95% तक है । इस कारण यहाँ प्रेशर कुकर की दशा (Pressure Cooker Condition) उत्पन्न होती है । बुध के समान इसका कोई भी उपग्रह नहीं है ।
3. पृथ्वी (Earth):
यह सूर्य से दूरी के क्रम में तीसरा ग्रह है तथा सभी ग्रहों में आकार की दृष्टि से पांचवाँ स्थान रखता है । यह शुक्र और मंगल ग्रह के बीच स्थित है । यह अपने अक्ष पर पश्चिम से पूर्व की ओर भ्रमण करती है ।
यह अपने अक्ष पर 23 1/2० झुकी हुई है । इसका एक परिक्रमण लगभग 365 दिन में पूरा होता है । इसकी सूर्य से औसत दूरी लगभग 15 करोड़ किमी. है । चारों ओर मध्यम तापमान, ऑक्सीजन और प्रचुर मात्रा में जल की उपस्थिति के कारण यह सौरमंडल का अकेला ऐसा ग्रह है, जहाँ जीवन है । अंतरिक्ष से यह जल की अधिकता के कारण नीला दिखाई देता है । अतः इसे ‘नीला ग्रह’ भी कहते हैं ।
4. मंगल (Mars):
यह सूर्य से दूरी के क्रम में पृथ्वी के बाद चौथा ग्रह है । यह सूर्य की परिक्रमा 687 दिनों में पूरी करता है । मंगल की सतह लाल होने के कारण इसे ‘लाल ग्रह’ भी कहते हैं । इस ग्रह पर वायुमंडल अत्यंत विरल है ।
इसकी घूर्णन गति पृथ्वी के घूर्णन गति के समान है । फोबोस और डीमोस मंगल के दो उपग्रह हैं । ‘डीमोस’ सौरमंडल का सबसे छोटा उपग्रह है । इस ग्रह का सबसे ऊँचा पर्वत ‘निक्स ओलंपिया’ है, जो एवरेस्ट से तीन गुना ऊँचा है ।
मंगल ग्रह के अन्वेषण के लिए विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियों द्वारा लगातार कई मिशन भेजे जाते रहे हैं, क्योंकि पृथ्वी के अलावा यह एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन की संभावना व्यक्त की जा रही है । सर्वप्रथम मार्स ओडेसी नामक कृत्रिम उपग्रह से यहाँ बर्फ छत्रकों और हिमशीतित जल की सूचना मिली थी ।
मंगल पर जीवन की संभावना तथा उसके वातावरण के अध्ययन के लिए अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी, नासा ने नवम्बर, 2011 में मार्स साइंस लैबोरेटरी (MSL) या मार्स क्यूरियोसिटी रोवर को प्रक्षेपित किया ।
6 अगस्त, 2012 को नासा का यह अंतरिक्षयान मंगल ग्रह पर ‘गेल क्रेटर’ नामक स्थान में पहुँचा । वर्तमान समय में यह नासा के ‘डीप स्पेस नेटवर्क’ को विभिन्न इलेक्ट्रानिक संदेश, फोटो व अन्य सूचनाएँ भेज रहा है ।
18 दिसम्बर, 2015 को क्यूरियोसिटी रोवर ने मंगल ग्रह पर सिलिका का भंडार खोजा है । 2006 से सक्रिय अंतरिक्ष यान ‘मार्स रिकॉनेसिएंश आर्बिटर’ (MRO) से ली गई तस्वीरों के अध्ययनों के आधार पर नासा ने 28 सितम्बर, 2015 को मंगल ग्रह पर जल-प्रवाह की भी घोषणा की । नासा द्वारा इस बात की पुष्टि की गई है कि मंगल पर खारे पानी की बहती धाराएँ उपस्थित हैं ।
मंगल ग्रह पर वायुमण्डल के अध्ययन के लिए नासा ने एक अन्य मिशन ‘मावेन’ (Mars Atmosphere and Volatile Evolution Mission, MAVEN) 18 नवम्बर, 2013 को प्रक्षेपित किया था, जो 22 सितम्बर, 2014 को मंगल की कक्षा में पहुँच गया ।
नासा ने अगले 25 वर्षों में ‘जर्नी टू मार्स’ मिशन के तहत मंगल ग्रह पर मानव बस्तियाँ बसाने की त्रिस्तरीय योजना तैयार करने की घोषणा की है ।
मंगल ग्रह के वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए भारत का प्रथम अभियान ‘मार्स आर्बिटर मिशन’ (MOM) या ‘मंगलयान’ है । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, इसरो (ISRO) द्वारा मंगलयान का सफल प्रक्षेपण 5 नवम्बर, 2013 को किया गया । यह प्रक्षेपण सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र, श्री हरिकोटा से ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (PSLV C-25) के माध्यम से किया गया, जो मंगल ग्रह की कक्षा में 24 सितम्बर, 2014 को पहुँचा ।
इस सफलता से भारत ‘मार्शियन इलीट क्लब’ (अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ) में शामिल हो गया है । ‘टाइम पत्रिका’ ने भी मंगलयान को वर्ष 2014 के 25 सर्वश्रेष्ठ आविष्कारों में जगह देते हुए इसे ‘द सुपरस्मार्ट स्पेसक्राफ्ट’ की संज्ञा दी ।
इसरो के अनुसार, मंगलयान का प्रमुख उद्देश्य पृथ्वी नियंत्रित मुक्ति चालन, मंगल की कक्षा में प्रवेश तथा कक्षीय चरण में सुरक्षित रहने एवं कार्य निष्पादन की क्षमता के साथ अंतरग्रहीय अंतरिक्षयान का डिजाइन व निर्माण करना था । इसके वैज्ञानिक उद्देश्यों में मंगल की सतह तथा उसके वातावरण का अन्वेषण शामिल है ।
मंगल ग्रह की भौगोलिक, जलवायवीय एवं वायुमण्डलीय प्रक्रियाओं के अध्ययन के लिए मंगलयान पर पाँच वैज्ञानिक नीति भार (Payloads) स्थापित किए गए हैं । मंगलयान ने 24 सितम्बर, 2015 को मंगल की कक्षा में सफलतापूर्वक अपना एक वर्ष पूरा कर लिया है ।
5. बृहस्पति (Jupiter):
यह सौरमंडल का सबसे बड़ा ग्रह है, जो सूर्य की परिक्रमा 11.9 वर्ष में करता है । सौरमंडल में इसके 67 उपग्रह हैं, जिनमें ‘गैनिमीड’ सबसे बड़ा है । यह सौरमंडल का सबसे बड़ा उपग्रह है । आयो, यूरोपा, कैलिस्टो, अलमथिया आदि इसके अन्य उपग्रह हैं । बृहस्पति को लघु सौर-तंत्र (Miniature Solar System) भी कहते हैं ।
इसके वायुमंडल में हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन और अमोनिया जैसी गैसें पाई जाती हैं । यहाँ का वायुमंडलीय दाब पृथ्वी के वायुमंडलीय दाब की तुलना में 1 करोड़ गुना अधिक है । यह तारा और ग्रह दोनों के गुणों से युक्त होता है, क्योंकि इसके पास स्वयं की रेडियो ऊर्जा है ।
6. शनि (Saturn):
यह आकार में दूसरा बड़ा ग्रह है । यह सूर्य की परिक्रमा 29.5 वर्ष में पूरी करता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता या रहस्य इसके मध्यरेखा के चारों ओर पूर्ण विकसित वलयों का होना है, जिनकी संख्या 7 है । यह वलय अत्यंत छोटे-छोटे कणों से मिलकर बने होते हैं, जो सामूहिक रूप से गुरूत्वाकर्षण के कारण इसकी परिक्रमा करते हैं ।
शनि को ‘गैसों का गोला’ (Globe of Gases) एवं गैलेक्सी समान ग्रह (Galaxy Like Planet) भी कहा जाता है । आकाश में यह ग्रह पीले तारे के समान दृष्टिगत होता है । इसके वायुमंडल में भी बृहस्पति की तरह हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन और अमोनिया गैसें मिलती हैं । अब तक इसके 62 उपग्रहों का पता लगाया जा चुका है ।
टाइटन शनि का सबसे बड़ा उपग्रह है, जो आकार में बुध ग्रह के लगभग बराबर है । मंगल ग्रह की भांति यह नारंगी रंग का है । टाइटन पर वायुमंडल और गुरूत्वाकर्षण दोनों बराबर हैं ।
इसके अन्य प्रमुख उपग्रह मीमांसा, एनसीलाडु, टेथिस, डीआन, रीया, हाइपेरियन, इपापेटस और फोबे हैं । इसमें फोबे शनि की कक्षा में घूमने के विपरीत दिशा में परिक्रमा करता है । शनि अंतिम ग्रह है जिसे आँखों से देखा जा सकता है ।
7. अरूण (Uranus):
इसकी खोज 1781 ई. में सर ‘विलियम हरशेल’ द्वारा की गई । यह सौर मंडल का सातवाँ तथा आकार में तृतीय ग्रह है । अधिक अक्षीय झुकाव के कारण इसे ‘लेटा हुआ ग्रह’ भी कहते हैं । यह सूर्य की परिक्रमा 84 वर्षों में पूरा करता है ।
यह भी शुक्र ग्रह की भाँति ही ग्रहों की सामान्य दिशा के विपरीत पूर्व से पश्चिम दिशा में सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करता है । इस ग्रह पर वायुमंडल बृहस्पति और शनि की ही भाँति काफी सघन है, जिसमें हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन एवं अमोनिया हैं ।
दूरदर्शी से देखने पर यह हरा दिखाई देता है । सूर्य से दूर होने के कारण यह काफी ठंडा है । शनि की भाँति अरूण के भी चारों ओर वलय है, जिनकी संख्या 5 हैं । ये हैं- अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा और इपसिलॉन । इसके 27 उपग्रह हैं । अरूण पर सूर्योदय पश्चिम दिशा में एवं सूर्यास्त पूरब की दिशा में होता है । ध्रुवीय प्रदेश में इसे सूर्य से सबसे अधिक ताप और प्रकाश मिलता है ।
8. वरूण (Neptune):
इसकी खोज जर्मन खगोलशास्त्री ‘जोहान गाले’ ने की । यह 165 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा पूरा करता है । यहाँ का वायुमंडल अति घना है । इसमें हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन और अमोनिया विद्यमान रहती हैं । यह ग्रह हल्का पीला दिखाई देता है । इसके 13 उपग्रह हैं । इनमें ट्रिटोन व मेरीड प्रमुख हैं ।
9. प्लूटो (Pluto):
यम या कुबेर (प्लूटो) की खोज 1930 ई. में ‘क्लाइड टॉम्बैग’ ने की थी तथा इसे सौरमंडल का नौवाँ एवं सबसे छोटा ग्रह माना गया था परंतु 24 अगस्त, 2006 में चेक गणराज्य के प्राग में हुए इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉमिकल यूनियन (IAU) के सम्मेलन में वैज्ञानिकों ने इससे ग्रह का दर्जा छीन लिया ।
सम्मेलन में 75 देशों के 2,500 वैज्ञानिकों ने ग्रहों की नई परिभाषा दी उनके अनुसार ऐसा ठोस पिंड जो अपना गुरूत्व करने लायक विशाल हो, गोलाकार हो एवं सूर्य का चक्कर काटता हो, ग्रहों के दर्जे में आएगा ।
साथ ही, इसकी कक्षा पड़ोसी ग्रह के रास्ते में नहीं होनी चाहिए । प्लूटो के साथ समस्या यह हुई कि उसकी कक्षा वरुण (नेपच्यून) की कक्षा (ऑरबिट) से ओवरलैप करती है ।
सीरीस, शेरॉन (Charon) और इरीस (2003 यूबी-313/जेना) को ग्रह मानने के विचार को भी अस्वीकृत कर दिया । नई परिभाषा में इन चारों को बौने ग्रह (Dwarf Planet) का दर्जा दिया गया है । इस प्रकार, अब सौरमंडल में मात्र 8 ग्रह रह गए हैं ।
नासा द्वारा सौर प्रणाली की बाह्य सीमाओं पर अवस्थित ड्वार्फ ग्रह ‘प्लूटो’ तथा इसके चन्द्रमाओं एवं क्षुद्रग्रह बहुल क्षेत्र ‘क्यूपर बेल्ट’ के अध्ययन हेतु भेजा गया अंतरिक्ष अन्वेषण यान ‘न्यू होराइजंस’ जुलाई, 2015 में अपनी यात्रा पूरी कर प्लूटो के निकट पहुँचा ।
यह प्लूटो और इसके पाँच चन्द्रमाओं (शेरॉन, हाइड्रा, निक्स, कार्बेरोस एवं स्टाइक्स) का अन्वेषण कर आँकड़े और चित्र पृथ्वी पर संप्रेषित कर रहा है ।
Essay # 3. उपग्रह (Satellite):
ये वे आकाशीय पिंड हैं, जो अपने-अपने ग्रहों की परिक्रमा करते हैं तथा अपने ग्रह के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करते हैं । ग्रहों की भाँति इनकी भी अपनी चमक नहीं होती, अतः ये भी सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं ।
ग्रहों के समान उपग्रहों का भ्रमण पथ भी ‘परवलयाकार’ (Parabolic) होता है । बुध और शुक्र का कोई उपग्रह नहीं है । सबसे अधिक उपग्रह बृहस्पति के हैं । पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह चन्द्रमा है ।
सुपर मून (Super Moon):
चन्द्रमा एवं पृथ्वी के बीच की दूरी औसतन 3,84,000 किमी. है । चूँकि चन्द्रमा परवलयाकार कक्ष में पृथ्वी की परिक्रमा करता है, इसी कारण पृथ्वी एवं चन्द्रमा की दूरी बदलती रहती है । ‘सुपर मून’ वह स्थिति है जब चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है । इसे ‘पेरिजी फुल मून’ भी कहा जाता है ।
इसमें चन्द्रमा 14% ज्यादा बड़ा एवं 30% अधिक चमकीला दिखाई पड़ता है । 27 सितम्बर, 2015 को विश्व के अनेक भागों में सुपर मून चन्द्रग्रहण की परिघटना देखी गई, जिसमें सुपर मून व चन्द्रग्रहण दोनों घटनाएँ एक साथ घटित हुईं । ऐसा सन् 1982 के बाद पहली बार हुआ ।
ब्लू मून (Blue Moon):
एक कैलेन्डर माह में जब दो पूर्णिमाएँ हों तो दूसरी पूर्णिमा का चाँद ‘ब्लू मून’ कहलाता है । इसका नीले रंग से कोई सम्बंध नहीं है । वस्तुतः इसका मुख्य कारण दो पूर्णिमाओं के बीच के अंतराल का 31 दिनों से कम होना है ।
ऐसा हर दो-तीन साल पर होता है । जुलाई, 2015 में ब्लू मून की स्थिति देखी गई । जब किसी वर्ष विशेष में दो या अधिक माह ब्लू मून के होते हैं, तो उसे ब्लू मून ईयर कहा जाता है । वर्ष 2018 ‘ब्लू मून ईयर’ होगा ।
ब्लड मून (Blood Moon):
लगातार चार पूर्ण चन्द्रग्रहणों (Lunar Tetrad) को ‘ब्लड मून’ (Blood Moon) की संज्ञा दी गई है । चार पूर्ण चन्द्रग्रहणों को ‘टेट्राड’ भी कहा जाता है । जब पृथ्वी, चन्द्रमा पर पूर्ण छाया डालता है तब पूर्ण चन्द्रग्रहण की स्थिति उत्पन्न होती है । इसमें चन्द्रमा का रंग लाल हो जाता है । इसे ही ब्लड मून (रक्त चन्द्र) कहा जाता है । पूर्ण चन्द्रग्रहण दुर्लभ होते हैं ।
सामान्यतया तीन चन्द्रग्रहणों में से एक पूर्ण चन्द्रग्रहण की घटना होती है । किसी स्थान पर एक दशक में चार से पाँच ग्रहण की खगोलीय घटना घटित होती है । पूर्ण चन्द्रग्रहण श्रृंखला का पहला चन्द्रग्रहण 14-15 अप्रैल, 2014 को, दूसरा 7-8 अक्टूबर, 2014 एवं तीसरा 4 अप्रैल, 2015 को हुआ । 4 अप्रैल, 2015 को सदी का सबसे छोटा पूर्ण चन्द्रग्रहण लगा था ।
चन्द्रयान-1:
भारत ने 22 अक्टूबर, 2008 को आंध्र प्रदेश के श्री हरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से ‘ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान’ (PSLV-C11X) के जरिए अपने पहले चन्द्र अभियान ‘चन्द्रयान-1’ को रवाना किया ।
बंगलुरू में स्थित ‘स्पेस क्राफ्ट कंट्रोल सेंटर’ (SCC) द्वारा पाँच बार ऊपरी कक्षाओं में स्थानान्तरित किए जाने के बाद 8 नवम्बर, 2008 को ‘चन्द्रयान-1’ अपने 5वें और अंतिम चरण के बाद चन्द्रमा की कक्षा में प्रवेश कर गया । इस प्रकार, अमेरिका, यूरोप, रूस, जापान व चीन के बाद भारत चन्द्रमा की कक्षा में पहुँचने वाला छठा देश है ।
इस अभियान में भारत द्वारा निर्मित मानव रहित अंतरिक्ष यान मून इम्पैक्ट प्रोब को चन्द्रमा की सतह पर उतारा गया । चन्द्रयान-1 एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर, मिनियेचर सिंथेटिक एप्रेचर रडार, मून मिनरलोजी मैपर (M-3) आदि कुल 11 अत्याधुनिक उपकरणों से लैस पहला ऐसा उपग्रह है, जिसमें हाई रेजोल्यूशन रिमोट सेंसिंग के जरिए चन्द्रमा की तस्वीरें देखी जा सकेंगी ।
यह चन्द्रमा की सतह व वातावरण का संपूर्ण रासायनिक मानचित्रण करेगा तथा उसके मृदा, खनिज, बर्फ, ऊष्मा, मौसम आदि की जानकारियाँ उपलब्ध कराएगा ।
चन्द्रयान-1 ने चन्द्रमा पर बर्फ के होने की जानकारी दी है । इसने चंद्रमा की भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर 1.2 किमी. लंबी गुफा या लावा ट्यूब की जानकारी भी दी है, जिसका तापमान हमेशा लगभग- 200C रहता है ।
इस प्रकार, यह लावा ट्यूब चन्द्रमा की सतह के तापमान की विषमता एवं गैलेक्टिक कॉस्मिक किरणों से वैज्ञानिकों का बचाव करेंगी । चन्द्रयान पर नजर रखने के लिए बंगलुरु से 40 किमी. दर ब्यालालू में ‘इंडियन डीप स्पेस नेटवर्क सेंटर’ की स्थापना की गई है ।
चन्द्रयान-2:
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) ने 16 अगस्त, 2009 को चन्द्रयान-2 का भी डिजाइन तैयार कर लिया है । यह भारत का चन्द्रमा के लिए दूसरा अंतरिक्ष मिशन होगा, जो चन्द्रयान-1 मिशन का उन्नत संस्करण है ।
चन्द्रयान-2 मिशन में एक ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर शामिल होंगे । इसे स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन वाले जीएसएलवी-एमके III के माध्यम से संयुक्त रूप से 500 किमी. की ‘अर्थ पार्किंग ऑर्बिट’ (EPO) में प्रक्षेपित किया जाएगा ।
चन्द्रयान-2 अभियान का वैज्ञानिक लक्ष्य आर्बिटर पर मौजूद वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से चन्द्रमा की व्युत्पत्ति और विकास के बारे में हमारी समझ में सुधार करना तथा लैंडर एवं रोवर का उपयोग करते हुए चन्द्रमा के चट्टानों का अध्ययन (सुदूर और प्रत्यक्ष विश्लेषण) करना है । यह अंतरिक्ष मिशन 2017 में भेजा जाएगा ।
Essay # 4. कृत्रिम उपग्रह (Artificial Satellite):
विभिन्न देशों ने अनेक कृत्रिम उपग्रह भी स्थापित किए हैं, जो पृथ्वी की परिभ्रमण दिशा से साम्यता स्थापित करने के लिए पूर्व की ओर प्रक्षेपित किए जाते हैं । सामान्यतः दूर-संवेदी उपग्रह ध्रुवीय सूर्य समतुल्य कक्षा (Polar Sun-Synchronous Orbit) में 600-1100 किमी. की दूरी पर स्थापित किए जाते हैं ।
इन उपग्रहों का परिभ्रमण काल 24 घंटे का होता है । ये भूमध्यरेखा को एक निश्चित स्थानीय समय पर ही पार करते हैं, जो सामान्यतः प्रातः 9 से 10 बजे होता है ।
सुदूर-संवेदी उपग्रहों के द्वारा पृथ्वी के एक परिभ्रमण में सुदूर-संवेदन किया जाने वाला क्षेत्र, स्वाथ कहलाता है । विभिन्न उपग्रहों में यह प्रायः 10 से 100 किमी. चौड़ी धरातलीय पट्टी होती है ।
चूँकि पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूर्णन करती है, अतः ये उपग्रह पृथ्वी की परिक्रमा के क्रम में क्रमशः पश्चिम के भाग को बिना कवर किए आगे बढ़ जाते हैं । इसी कारण पूरी पृथ्वी को कवर करने हेतु कई सुदूर-संवेदी उपग्रहों की आवश्यकता पड़ती है ।
दूर-संचार उपग्रह भू-स्थैतिक कक्षा (Geo-Stationary Orbit) में 36,000 किमी. की ऊँचाई पर स्थापित किए जाते हैं । पृथ्वी के घूर्णन काल से मेल खाने के कारण ये स्थिर से प्रतीत होते हैं । इसी कारण इन्हें भू-स्थैतिक उपग्रह भी कहा जाता है । समस्त पृथ्वी को एक साथ कवर करने के लिए न्यूनतम तीन भू-स्थैतिक उपग्रहों की आवश्यकता पड़ती है ।
Essay # 5. उल्काश्म व उल्कापिंड (Bolide and Meteorites):
ये अंतरिक्ष में तीव्र गति से घूमते हुए अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्मांडीय कण हैं । धूल व गैस निर्मित ये पिंड जब वायुमंडल में प्रवेश करते हैं तो पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण के कारण तेजी से पृथ्वी की ओर आते हैं तथा वायुमंडलीय घर्षण से चमकने लगते हैं । इन्हें ‘टूटता हुआ तारा’ (Shooting Star) कहा जाता है ।
प्रायः ये पृथ्वी पर पहुँचने से पूर्व ही जलकर राख हो जाते हैं, जिन्हें ‘उल्काश्म’ (Meteors) कहते हैं । परंतु, कुछ पिंड वायुमंडल के घर्षण से पूर्णतः जल नहीं पाते और चट्टानों के रूप में पृथ्वी पर आ गिरते हैं, जिन्हें उल्कापिंड कहा जाता है ।
Essay # 6. पुच्छल तारे या धूमकेतु (Comets):
ये आकाशीय धूल, बर्फ और हिमानी गैसों के पिंड हैं, जो सूर्य से दूर ठंडे व अंधेरे क्षेत्र में रहते हैं । सूर्य के चारों ओर ये लंबी किन्तु अनियमित या असमकेन्द्रित (Eccentric) कक्षा में घूमते हैं ।
अपनी कक्षा में घूमते हुए कई वर्षों के पश्चात् जब ये सूर्य के समीप से गुजरते हैं तो गर्म होकर इनसे गैसों की फुहारें निकलती हैं, जो एक लंबी चमकीली पूँछ के समान प्रतीत होती हैं । कभी-कभी ये पूँछ लाखों किमी. लंबी होती है ।
सामान्य अवस्था में पुच्छल तारा (कॉमेट) बिना पूँछ का होता है । पुच्छल तारा के शीर्ष को ‘कोमा’ कहते हैं । लांग पीरियड कॉमेट 70 से 90 वर्षों के अंतराल पर दिखाई पड़ता है । हेली पुच्छलतारा भी इन्हीं में से एक है ।
यह 76 वर्षों के अंतराल के बाद दिखाई पड़ता है । अंतिम बार यह 1986 ई. में देखा गया था । खगोलशास्त्रियों के अनुसार सौरमंडल में लगभग 1 लाख धूमकेतु विचरण कर रहे हैं ।
Essay # 7. क्षुद्र ग्रह या अवान्तर ग्रह (Asteroids):
क्षुद्रग्रह मंगल और बृहस्पति ग्रह के मध्य क्षेत्र में सूर्य की परिक्रमा करने वाले छोटे से लेकर सैकड़ों किमी. आकार के पिंड हैं । इनकी अनुमानित संख्या 40,000 है । इनकी उत्पत्ति ग्रहों के विस्फोट के फलस्वरूप टूटे हुए खंडों से हुई है, यद्यपि इस सम्बंध में कुछ अन्य मत भी दिए गए हैं ।
जापान के हायाबूसा अंतरिक्ष यान ने हाल ही में ‘इटोकावा’ नामक क्षुद्रग्रह की मिट्टी के नमूने को पृथ्वी तक भेजने में सफलता हासिल की है ।
पृथ्वी से क्षुद्र ग्रहों की संभावित टक्कर को रोकने के लिए ‘नासा’ ने अक्टूबर, 2015 में एस्टेराएड रिडायरेक्शन मिशन की शुरूआत की । इस मिशन के अंतर्गत रोबोट से युक्त एक ऐसे अंतरिक्ष यान का निर्माण किया जाएगा, जो पृथ्वी की ओर आने वाले क्षुद्रग्रहों की दिशा को परिवर्तित करने में सक्षम होंगे ।
नासा ने 12 अप्रैल, 2015 को अंतरिक्ष में स्थित एक क्षुद्रग्रह-316201 का नाम ‘मलाला युसुफजई’ के नाम पर रखा है ।