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Read this article in Hindi to learn about:- 1. पारिस्थितिकी तन्त्र का अर्थ (Meaning of Ecosystem) 2. पारिस्थितिकी तन्त्र की विशेषताएं (Properties of Ecosystem) 3. प्रकार (Types).
पारिस्थितिकी तन्त्र का अर्थ (Meaning of Ecosystem):
कहीं पर कोई सनी जीव अकेले नहीं रहता, समस्त जीव साथ रहते हुए एक-दूसरे को हमेशा प्रभावित करते है । किसी समुदाय के जीव परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करने के अतिरिक्त अपने बाहरी वातावरण से भी सम्बन्धित होते है । समस्त जीव समुदाय का जैविक पर्यावरण व भौतिक पर्यावरण का एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है ।
दोनों एक-दूसरे को प्रत्यक्ष एंव अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते है । हरे पेड़-पौधे, घास, प्रकाश ९९। की सहायता से पर्यावरण के सरल तत्वों को लेकर अपने भोजन का निर्माण करते हैं । कुछ जीवों का जीवन इन पेड़ पौधों पर निर्भर करता है, जबकि कुछ शाकाहारी जीव माँसाहारी जीवों को जीवन प्रदान करते है ।
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इन जीवों का मृत शरीर मिट्टी में अपघटित होकर उसको उत्पादकता प्रदान करता है, जो पौधों को जीवन प्रदान करने में सहायता देता है । इस प्रकार एक परस्पर निर्भरता का चक्र बन जाता है, जिसे जैव-भू-रसायनिक (Bio-Geo-Chemical Cycling) कहते हैं । जीवों के ऐसे समुदाय को उनके पर्यावरण सहित, सामृहिक रूप से एक इकाई माना गया है. जिसे पारिस्थितिकी तन्त्र (Eco-System) कहा जाता है । इसका अर्थ ‘प्रकृति’ के अर्थ से मिलता-जुलता है ।
इकोसिस्टम शब्द की विचारधारा सर्वप्रथम हिप्पोक्रेट्स एवं अरस्तु ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत की । इन विद्वानों ने पारिस्थितिकी या इकोलोजी शब्द का प्रयोग किये बिना ऐसे वर्णन प्रस्तुत किये । 1869 में सर्वप्रथम हैकल (Hackel) ने इकोलोजी शब्द का प्रयोग किया । इकोलोजी शब्द वैसे OIKOLOGY से बना है, जिसका अर्थ है जीव का वास या प्रस्थान ।
अत: पारिस्थितिकी तन्त्र (Eco-System) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ए॰जी॰ टेन्सले (A.G. Tansley) ने 1935 में किया । टेन्सले के अनुसार ‘पारिस्थितिकी तन्त्र भौतिक तन्त्रों का एक विशेष प्रकार होता है, इसकी रचना जैविक तथा अजैविक संघटकों से होती है । यह अपेक्षाकृत स्थिर समस्थिति में होता है ।
वास्तव में पारिस्थितिक तन्त्र के दो प्रमुख भाग होते हैं- एक तो जीवीय (Biome) पौधों व पशुओं का किसी विशेष स्थान पर समूह तथा दूसरे उनका निवास क्षेत्र (Habitat) अर्थात् भौतिक पर्यावरण । आर॰एल॰ लिंडेयमन (1942) के अनुसार पारिस्थितिकी शब्द का प्रयोग किसी भी परिमाण वाली स्थान-समय इकाई के अन्तर्गत भौतिक-रसायनिक-जैविक क्रियाओं प्रक्रियाओं से निर्मित तन्त्र के लिए किया जाता है ।
कोई भी पारिस्थितिकी तन्त्र जैवीय समुदाय एवं पर्यावरण के पारस्परिक कार्यकलापों के कारण एक निश्चित जैवीय मण्डल में स्वचालित होता है । पर्यावरण की इस प्राथमिक इकाई को पारिस्थितिकी तन्त्र कहते हैं । फासबर्ग के अनुसार (1963)- पारिस्थितिकी तन्त्र एक कार्यशील एवं अन्तर्क्रिया तन्त्र होता है, जिसका संघटन एक या अधिक जीवों तथा उनके प्रभावी पर्यावरण-भौतिक एवं जैविक दोनों से होता है ।
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ओडीम के अनुसार- ”किसी भी समुदाय के जीवित जीव तथा उनके अजीवित पर्यावरण (अजैविक पर्यावरण) परस्पर एक-दूसरे से अविभाज्य रूप से सम्बन्धित हैं, तथा यह दोनों एक-दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करते हैं । इस प्रक्रिया में ऊर्जा प्रवाह और खनिज पदार्थ चक्र को पूरा करने के लिए निरन्तर रचनात्मक और कार्यात्मक पारस्परिक अनुक्रियायें होती रहती है ।
इन्हीं अनुक्रियाओं के सम्पूर्ण तन्त्र को पारिस्थितिकी तन्त्र कहते ।” फ्यूरले एवं न्यूए ने (1983) में बताया है कि पारिस्थितिकी तन्त्र आपस में एक-दूसरे से अपने पर्यावरण से सम्बद्ध जीवों की समाकलित एकता या सम्मेल होते हैं ।
पारिस्थितिकी तन्त्र की विशेषताएं (Properties of Ecosystem):
i. पारिस्थितिकी तन्त्र किसी स्थान विशेष के समस्त जीवधारियों एवं उसके भौतिक पर्यावरण के सकल योग का प्रतिनिधित्व करता है ।
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ii. प्रत्येक तन्त्र धरातल पर अपना एक निश्चित क्षेत्र रखता है ।
iii. प्रत्येक तन्त्र के तीन संघटक (Components) होते हैं- ऊर्जा, जैविक (Biome) और अजैविक (Abiotic) अर्थात् भौतिक पर्यावरण ।
iv. पारिस्थितिकी तन्त्र को निश्चित समय के संदर्भ में देखा जाता है ।
v. तीनों संघटकों के मध्य अन्तर्क्रियाएँ होती हैं, साथ ही साथ विभिन्न जीवों के मध्य भी पारस्परिक क्रियाएँ होती हैं ।
vi. पारिस्थितिकी तन्त्र को गतिशील रखने वाली सबसे महत्वपूर्ण ऊर्जा, सौर्यिक ऊर्जा (Solar Energy) होती है। यद्यपि यह तन्त्र अन्य विभिन्न प्रकार की ऊर्जा द्वारा भी संचालित होता है ।
vii. यह तन्त्र प्रमुखतया प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित होता है।
viii. इसके संघटक परस्पर संगठित होते हैं ।
ix. यह तन्त्र एक कार्यशील इकाई, है । जिसके अन्तर्गत जैविक संघटक (पौधे, सूक्ष्म जीव व मानव सहित सभी जन्तु) तथा भौतिक या अजैविक संघटक (ऊर्जा प्रवाह, जलीय चक्र खनिज चक्र, अवसाद चक्र, जैव-भू-रसायनिक चक्र) परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित तथा आबद्ध होते है ।
x. पारिस्थितिकी तन्त्र अपने आप में स्थिर समस्थिति में रहता है, बशर्ते उसको नियन्त्रित करने वाले कारकों में से कोई एक कारक में कमी या अधिकता न हो जाए ।
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xi. इस तन्त्र की अपनी निजी उत्पादकता होती है । वास्तव में पारिस्थितिकी तन्त्र की उत्पादकता उसमें ऊर्जा की मात्रा की सुलभता पर निर्भर करती है । उत्पादकता का तात्पर्य किसी क्षेत्र में प्रति समय इकाई में जैविक पदार्थों की वृद्धि दर से होता है ।
xii. जैविक संघटकों या अजैविक संघटकों के भीतर किसी भी एक संघटक की कमी या अधिकता पूरे तन्त्र को प्रभावित करती है ।
xiii. पारिस्थितिकी तन्त्र क्षेत्रीय विस्तार की दृष्टि से भिन्नता वाला होता है इसके संघटक सूक्ष्म आकार से लेकर वृहद आकार वाले होते हैं । एक लघु कीड़ा भी उसका घटक है, तो विशाल हाथी भी ।
xiv. इस तन्त्र के विभिन्न संघटकों को अनेक स्तरों पर कई वर्गों में रखा जा सकता है ।
xv. यह एक एकल संकल्पना (Monistic Concept) है, क्योंकि भौतिक पर्यावरण तथा जैविक पर्यावरण एक ही ढाँचे में साथ-साथ होते हैं । अत: इनमें आपसी अन्तर्क्रियाओं के प्रारूप का अध्ययन आसान हो जाता है ।
xvi. इनके एक ही प्रकार के पर्यावरण में परस्पर ऐसे सम्बन्ध होते है, जिनको आसानी से देखा नहीं जा सकता । यह सम्बन्ध सुसंगठित व्यवस्था के रूप में होते है ।
xvii. यह जीवों और उनके पर्यावरण के बीच पदार्थों के निरन्तर आदान-प्रदान से सम्बन्धित रहता है ।
वर्तमान समय में पारिस्थितिकी तन्त्र शब्द की अवधारणा का व्यापक विकास हुआ है । इसके लिए जियोबायोसिनोसिस या बायोजियोसिनोसिस शब्दों के प्रयोग भी किये जाते हैं । यह तन्त्र गतिशीलता के सिद्धान्त पर आधारित है । यह घटक को गति प्रदान करता है ।
एक ओर जीव, पदार्थों को ग्रहण कर अपनी शरीर रचना में वृद्धि करते हैं तथा कार्बनिक पदार्थ बनाते हैं तो दूसरी ओर प्रकृति में कार्बनिक पदार्थ का विखण्डन भी होता है । इस सम्पूर्ण क्रिया को पदार्थों का चक्रीकरण कहते हैं । इसके अतिरिक्त समस्त जैविक क्रियाओं के लिए ऊर्जा की भी आवश्यकता होती है । यह ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है । हरे पौधे ऊर्जा को सीधे ग्रहण करते हैं और उसे रसायनिक ऊर्जा में बदलकर संचित करते हैं । यह पौधे जीव-जन्तुओं के लिए ऊर्जा के स्रोत के रूप में काम करते हैं ।
विभिन्न जीव एक-दूसरे को ऊर्जा प्रदान करते रहते हैं । उदाहरण के लिए, सूर्य से ऊर्जा हरे पौधों से शाकाहारी और शाकाहारी से विभिन्न स्तर के माँसाहारी जीवों में प्रवाहित होती है । इस तरह इकोसिस्टम एक गतिमान तन्त्र है, जो वस्तुत: समय के साथ-साथ बढ़ता है ।
परिस्थितिकी तन्त्र के प्रकार (Types of Ecosystem):
विश्व में प्रमुख रूप से दो प्रकार के परिस्थितिकी तन्त्र पाये जाते हैं:
(1) जलीय तन्त्र (Aquatic Ecosystem)
(2) स्थलीय तन्त्र (Terrestrial Ecosystem)
(1) जलीय तन्त्र:
जल जीवधारियों के लिए आवश्यक यौगिक है, जो कि समुद्र, झीलों, नदियों तथा तालाबों में मिलता है । जल में लवणता, ताप, लहरें, ज्वारभाटा तथा आक्सीजन आवश्यक पारिस्थितिकीय कारक हैं, जो जलीय जीवन को नियन्त्रित करते हैं ।
इस जलीय तन्त्र को निम्न भागों में विभाजित किया जाता है:
मीठा जल तन्त्र (Sweet Water Ecosystem):
यह दो तरह के स्रोतों से प्राप्त होता है:
(i) स्थिर जल पारिस्थितिकी तन्त्र (Standing Water of Lentic):
झील, तालाब, कुएं, पोखर तथा दलदली क्षेत्र इसमें शामिल हैं ।
(ii) अस्थिर जल तन्त्र (Running Water of Lentic):
नदियाँ, नहरें, जलप्रपात इसमें शामिल है । इन सभी मीठे जल के तन्त्र में परिवर्तन बड़ी शीध्रता से होते हैं । झील, तालाब, पोखर में जब शीघ्रता से मिट्टी का जमाव होने लगता है, तो यह शीघ्र ही दलदली क्षेत्र में बदल जाते हैं, यह फिर शुष्क क्षेत्र बन जाते हैं । नदियों द्वारा भारी कटाव व उसका किसी स्थान पर इस अवसाद को जमा करना भी पारिस्थितिकी तन्त्र में परिवर्तन ला देता है ।
जहाँ पहले कम गहरे समुद्र थें वह नदियों के अवसाद द्वारा मैदानों में परिवर्तित हो गये है । किसी भी पारिस्थितिकी तन्त्र में पाये जाने वाले पौधों एवं जीव-जन्तु वहाँ तापमान, सूर्यप्रकाश की उपलब्धता, जल का गँदलापन, धाराएँ, गैसों की उपलब्धता, खनिज लवण इत्यादि पर निर्भर करती है ।
(a) तापमान (Temperature):
जलीय तन्त्र में तापमान का विशेष महत्व होता है । वायु की अपेक्षा जल में तापमान की विभिन्नता कम देखने को मिलती है। इसका कारण जल का देर से गर्म होना व देर से ठण्डा होना है । अत: इसमें रहने वाले पौधे एवं जीव-जन्तु स्टैनोथर्मल (Steno-Thermal) होते है ।
(b) सूर्यप्रकाश (Sun Light):
जल में सूर्य प्रकाश की पहुँच जीवों की उपस्थिति पर प्रभाव डालती है । तालाबों, झीलों, दलदलों के जल में मिट्टी कणों की उपस्थिति प्रकाश के रोधक के रूप में काम करती है । यह कण जल की ऊपरी सतह से लेकर निचली सतह पर पाये जाने वाले पादपों (Plants of Vegetation or Plantatem) में प्रकाश संश्लेषण क्रिया (Photosynthesis) में बाधा डालते हैं । जो पादप जितनी प्रकाश क्रिया की आवश्यकता रखते है वह ही अपना अस्तित्व रख पाते हैं।
(c) जल का गंदलापन (Turbidity):
जल में संचालन गति से जल के अन्दर पाये जाने वाले लवण एवं गैसों का उचित वितरण होता हैं, जिससे जीव-जन्तुओं को अपने परिस्थितिकी तन्त्र में समायोजित होने में लाभ मिलता है ।
(d) गैसों का केन्दीकरण (Concentration of Gases):
जल में गैसों की उपस्थिति पादपों के लिए साँस के रूप में काम करती है । आक्सीजन मृदु जल के अन्दर पाये जाने वाले पादपों द्वारा प्राप्त होती है और इसका ह्रास जीव-जन्तुओं के साँस लेने एवं उनके मृत शरीर के सड़ने एवं गलने (Decomposition) में होता है । इसके अलावा जल में कार्बन-डाई-आक्साइड मीथेन, अमोनिया, हाइड़ोजन-सल्फाइड आदि की उपस्थिति का जीव-जन्तुओं पर प्रभाव पड़ता है ।