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Read this article in Hindi to learn about the ecological classification of fresh water organisms.
1. उत्पादक समुदाय (Auto-Tropshor Producers):
जल में पाये जाने वाले पौधे ही इस वर्ग में आते हैं, जो सूर्य में अपना भोजन स्वयं बनाते हैं ।
यह इस प्रकार है:
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(अ) जल निमग्न पौधे (Submerged Plants),
(ब) जल सतह पर तैरने वाले पौधे (Floating Plants),
(स) उभयचर पौधे (Amphibious Plants),
(द) फाइटोप्लेंकटन (Phytoplankton) अर्थात् सूक्ष्मदर्शी पौधें ।
2. उपभोक्ता (Macro-Consumer of Decomposer):
यह तीन प्रकार के होते हैं:
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(अ) प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता- तैरने वाले अति सूक्ष्म जन्तु (लावा व कीट) तली में रहने वाले जन्तु (पौधें, सीपी आदि) ।
(ब) द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ता- मछली, मेंढक तथा अन्य कीट ।
(स) तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता- छोटी मछली को खाने वाली अन्य मछलियां तथा सर्प ।
3. अपघटक (Micro-Consumer of Decomposer):
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ये पारिस्थितिकी तन्त्र के सूक्ष्म जीव हैं, जैसे कवक, जीवाणु के मृत व क्षय होते हुए उत्पादनकर्त्ता के शरीर को सडा-गलाकर मिट्टी में मिला देते हैं । जल की गहराई का पादप समुदाय पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।
झीलों के मीठे पानी व समुद्र के खारे पानी में गहराई के आधार पर पादप समुदाय कई कटिबन्धों (Zones) में बाँटा जा सकता है:
झीलों का पादप समुदाय:
(i) उथले किनारों पर पाये जाने वाले पादप जड़ वाले होते हैं । यह सौर्य ऊर्जा प्राप्त करके पादप प्रकाश समुदाय कटिबन्धों (Zones) में बाँटा जा सकता है ।
(ii) यह उपरोक्त कटिबन्ध के नीचे पाये जाने के कारण Sub-Lithora Zone के पादप कहलाते हैं । प्लैंक्टन, नेकलोन, न्यूस्टन पादप इसके अन्तर्गत आते हैं ।
(iii) गहरे जल में पाये जाने पादपों के समुदाय को Profoundal Zone कहते हैं । यहाँ प्रकाश संश्लेषण नहीं होता है । यह अपघटक का कार्य करता है ।
स्थलीय तन्त्र:
स्थलों पर भौतिक तत्वों की अत्यधिक विभिन्नता ने पादप के जीव-जन्तुओं के समुदायों में विभिन्नताओं को जन्म दिया है । तापमान, आर्द्रता, वायु भार व हवाएँ, मिट्टियों की बनावट व उत्पादक शक्ति पादप समुदाय की विभिन्नता पर प्रभाव डालती है । वर्षा, तापमान तथा धरातल की विभिन्नता का इन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है । पूरे विश्व को पादप व जीव-जन्तुओं की विभिन्नताओं के आधार पर कई क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है ।
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जिनमें प्रमुख क्षेत्र इस प्रकार हैं:
1. टुण्ड्रा (Tundra Biome)
2. वन बायोम (Forest Biome)- उत्तरी कोणधारी, मध्यकोणधारी शीतोष्ण पतझड़ व उष्णाद्र वनस्पति ।
3. घास के मैदानी बायोम (Grassland Biome)
4. भूमध्य सागरीय बायोम (Mediterranean Biome)
5. मरूस्थलीय बायोम (Desert Biome)- उष्ण मरूस्थलीय एवं शीतोष्ण मरूस्थलीय बायोम ।
परिस्थितिकी तन्त्र अन्य कई बातों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है ।
ऊर्जा के सत्रों तथा स्तर पर उनको चार वर्गों में रखा जा सकता हैं:
(i) स्वतन्त्र प्राकृतिक सौर ऊर्जा प्रेरित पारिस्थितिकी तन्त्र:
यह पूर्णतया सूर्य प्रकाश पर अपनी उत्पत्ति के लिए निर्भर करते हैं ।
(ii) स्वतन्त्र प्राकृतिक अनुपूरित ऊर्जा सम्पन्न सौर ऊर्जा प्रेरित पारिस्थितिकी तन्त्र:
इस तरह की व्यवस्था में सौर्यिक ऊर्जा के अलावा अन्य प्राकृतिक स्रोतों से भा ऊर्जा प्राप्त कर सकते हैं । वायु, धरातलीय जल, ज्वार आदि पूरक ऊर्जा के रूप में काम करते हैं ।
(iii) मानव अनुपूरित ऊर्जा सम्पन्न सौर ऊर्जा प्रेरित पारिस्थितिकी तन्त्र:
इस तरह की व्यवस्था में सौर्यिक ऊर्जा के अलावा मानव के विविध कार्य पूरक ऊर्जा के रूप में काम करते है । मनुष्य कृषि तथा उससे सम्बन्धित अनेक कार्य करता है । वह कृषि यन्त्रों रासायनिक उर्वरकों कीटनाशी व रोगनाशी रसायनों, सिंचाई आदि द्वारा पौधों के उत्पादन में अपनी ऊर्जा का प्रयोग करता है ।
(iv) ईंधन प्रेरित पारिस्थितिकी तन्त्र:
इस तरह के पारिस्थितिक तन्त्र औद्योगिक व नगरीय क्षेत्र होते है, अत: ये प्राकृतिक न होकर मानव जनित पारिस्थितिक तन्त्र होते हैं । इनमें पैट्रोल, गैसें, कोयला से आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है ।
पारिस्थितिकी तन्त्र के विकास की अवस्थाएँ:
पारिस्थितिकी तन्त्र भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में अपना विकास करता है ।
इसकी चार प्रमुख अवस्थाएँ हैं, जो इस प्रकार हैं:
(i) प्रारम्भिक अनुक्रम वाले पारिस्थितिकी तन्त्र- इससे शुद्ध समुदाय उत्पादन अधिक होता है, तथा आहार खिला सरल होती हैं ।
(ii) प्रौढ़ पारिस्थितिकी तन्त्र- इसमें शुद्ध समुदाय उत्पादकता कम होती है, आहार शृंखला जटिल होती है, तथा वह आहार जल का रूप धारण कर लेती है ।
(iii) मिश्रित पारिस्थितिकी तन्त्र- इस तन्त्र का विकास कारण इन उपरोक्त दोनों तन्त्रों के बाद होता है । पर्यावरण में परिवर्तन होने के कारण इन उपरोक्त दोनों तंत्रों की विशेषताएँ एक साथ मिश्रित रूप से विकसित हो जाती है ।
(iv) निष्क्रिय पारिस्थितिकी तन्त्र- यह वास्तव में विनाशक घटक होते हैं, जो हिमकाल के आगमन, ज्वालामुखी उद्वेलन आदि के कारण सम्भव होते हैं ।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि पारिस्थितिकी तन्त्र अनेक पेचीदगियों से भरा हुआ है । इसका कोई ऐसा निश्चित वर्गीकरण करना सम्भव नहीं है, जिसमें एक ही वर्गीकरण द्वारा उसकी सारी विशेषताओं को व्यक्त किया जा सके ।
पर्यावरण में प्राकृतिक एवं मानवीय हस्तक्षेपों में होने वाले परिवर्तनों ने पारिस्थितिकी तन्त्र पर प्रभाव डाला है । इसके संघटकों की परस्पर निर्भरता व अन्तर्सम्बन्धों पर पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है, जिनका गहन विश्लेषण आगे आवश्यक है ।