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Read this article to learn about the primary occupation of people depending upon their geographical distribution in Hindi language.
मानव अपनी विविध आवश्यकताओं को पूर्ण करके अपना जीवन संपन्न बनाने का प्रयास करता रहता है । इसके लिए वह तरह-तरह के कार्य करता है । इन कार्यों को व्यवसाय कहते हैं । हमने सातवीं कक्षा में मानवीय व्यवसायों की प्राथमिक जानकारी प्राप्त की है । इसमें और अगले प्रकरण में हम उन व्यवसायों की अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे ।
प्राथमिक व्यवसाय:
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प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित व्यवसायों को प्राथमिक व्यवसाय कहते हैं । शिकार, खाद्यान्न संकलन, वन उत्पादन संकलन, पशु पालन, मत्स्य व्यवसाय, खेती, खदान कार्य आदि प्राथमिक व्यवसाय हैं । बढ़ती जनसंख्या की माँगे पूरी की जा सकें और मानव शक्ति के स्थान पर यंत्रों का उपयोग किया जा सकें जैसी बातों के लिए प्राथमिक व्यवसायों में यांत्रिकीकरण का प्रारंभ हुआ है ।
प्राथमिक व्यवसायों के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधन, उन्हें प्राभावित करनेवाले घटकों तथा इन व्यवसायों पर प्राकृतिक आपदाओं के होनेवाले प्राभाव की जानकारी निम्न तालिका में दी गई है:
कृषि:
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मानव के जीवनयापन की दृष्टि से इस व्यवसाय का असाधारण महत्व है । इस व्यवसाय द्वारा संपूर्ण मानव जाति के भोजन की आवश्यकता पूरी होती है । इसके अलावा यह व्यवसाय अन्य उद्योगों को कच्चे माल की आपूर्ति करता है ।
अत: कृषि व्यवसाय का स्वरूप सर्वव्याप्त है । भूमि का आकार, कृषि पद्धति, फसलें, कृषि का उद्देश्य आदि की दृष्टि से कृषि के अनेक प्रकार हैं ।
हम उनमें से नीचे दिए गए प्रकारों की जानकारी प्राप्त करेंगे (आकृति १३.२ देखो):
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(i) गहन कृषि
(ii) विस्तृत कृषि
(iii) सिंचित कृषि
(i) गहन कृषि:
जिस प्रदेश में जनसंख्या घनी होती है परंतु कृषि योग्य भूमि का आभाव होता है । वहाँ छोटे आकार की भूमि में अधिकाधिक उत्पादन लेने का प्रयत्न किया जाता है । ऐसी कृषि को गहन कृषि कहते हैं । उत्पादन वृद्धि के लिए संकरित बीज, रासायनिक अर्वरक, कीटनाशक, सिंचाई सुविधाएँ आदि का अधिकाधिक उपयाग किया जाता है ।
कृषि का छोटा आकार, सीमित यांत्रिकीकरण, मानव तथा पशु शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग, मात्र जीवन निर्वाह के लिए विविध फसलों का उत्पादन लेने की आवश्यकता आदि गहन कृषि की विशेषताएँ हैं । भारत के साथ-साथ अनेक दक्षिण एशियाई देशों में इस प्रकर की कृषि की जाती है ।
(ii) विस्तृत कृषि:
जिस प्रदेश में जनसंख्या विरल होती है और एक ही मालिक के पास हजारों हेक्टर की कृषि भूमि होती है; वहाँ विस्तृत कृषि की जाती है । यह कृषि भूमि विस्तृत निचले मैदानों में होती है । फलत: विविध कामों के लिए कृषि यंत्रों का उपयोग किया जाता है । इसमें गेहूं और मकई का उत्पादन विशेष रूप से लिया जाता है । अधिकांश उत्पादन मंडियों में विक्री के लिए भेजा जाता है । अत: इस कृषि को व्यापारिक खाद्यान्न कृषि भी कहते है
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आधुनिक तकनीकी का अधिकतम उपयोग, मानव श्रमशक्ति का न्यूनतम प्रयोग, बड़े अनुपात में पूँजी, एक ही प्रकार की बड़े पैमाने पर तथा विस्तृत क्षेत्र में उत्पादित फसल; इस कृषि की विशेषताएँ हैं । भारत में विस्तृत कृषि नहीं पाई जाती परंतु अमेरीका, रूस जैसे देशों में इस प्रकार की कृषि की जाती है ।
(iii) सिंचित कृषि:
यह कृषि एशिया अथवा अफ्रीका के देशों में पाई जाती है परंतु इसका आरंभ यूरोपीय उपनिवेशियों ने किया है । उन्हें आवश्यक चाय, काफी, कोको जैसे पेय और उद्योग धंधों के लिए आवश्यक रबड़ आदि कच्चा माल अधिकारपूर्वक तथा निश्चित रूप से प्राप्त हो; इसलिए कंपनियों की स्थापना कर इस प्रकार की कृषि का प्रारंभ किया गया था ।
इस कृषि प्रकार में रबड़, चाय, काफी, फल, नारियल जैसी एक ही प्रकार की फसलें अनेक वर्षों तक विस्तृत भूमि में ली जाती हैं । यह कृषि वैज्ञानिक पद्धति से तथा व्यापारिक सिद्धांतों पर की जाती है ।
कृषि का विस्तृत आकार, कुशल तथा अकुशल श्रमिक, बड़े पैमाने पर पूँजी की आवश्यकता आदि इस कृषि की विशेषताएँ हैं । अधिकांशत: सिंचित कृषि में लगाई गई वनस्पतियों से अनेक वर्षों तक उत्पादन लिए जाते हैं ।
भारत में असम, केरल, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश में सिंचिन कृषि की जाती है ।
पशु पालन:
प्राणियों का उपयोग माल ढोने के लिए, कृषि तथा अन्य कामों के लिए किया जाता है । इसी भाँति पशुओं से दूध, अंडे, चमड़ा आदि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । इसलिए गायें, बैल, भैंसें, घोड़े, मुर्गियाँ, वराह आदि पशुओं को पाला जाता है ।
पशु पालन पूरक व्यवसाय:
यह व्यवसाय कृषि व्यवसाय का पूरक व्यवसाय है क्योंकि:
(i) कृषि कार्य के लिए आवश्यक प्राणिज ऊर्जा इससे प्राप्त होती है ।
(ii) किसानों की आर्थिक आवश्यकताएँ कुछ सीमा तक पूरी हो जाती हैं ।
(iii) कृषि के लिए उपयुक्त उर्वरक प्राणियों से प्राप्त होता। है ।
(iv) पशुओं कं लिए आवश्यक घास तथा चारे की आवश्यकता कृषि उत्पादनों से पूरी हाती है ।
नगरीय क्षेत्रों के लोगों की दूध तथा दुग्धोत्पादनों की आवश्यकता पूरी करने के लिए महाराष्ट्र के चालीसगाँव, वारणा नगर, मुंबई तथा गुजरात के आणद में बड़े पैमाने पर सहकारी सिद्धांत पर पशु पालन तथा दुग्ध व्यवसाय शुरू हुआ । इसी से कालांतर में भारत में ‘दूध बाढ़’ योजना द्वारा दूध उत्पादन को बढ़ावा मिला है ।
पशु पालन – प्रमुख व्यवसाय:
भारत में पशु पालन कुछ जनजातियों का मुख्य व्यवसाय है । उदा., महाराष्ट्र के गड़रिए, कर्नाटक के तोड़ा, जम्मू-कश्मीर के बक्करवाल और सौराष्ट्र के गोपाल । संसार में उत्तर अमरीका में प्रेअरी, दक्षिण अमेरीका में पंपाज, दक्षिण अफ्रीका में वेल्ड, आस्ट्रेलिया में डाउंस जैसे समशीतोष्ण घास के चरागाह प्रदेशों में व्यापारिक सिद्धांत पर पशु पालन किया जाता है । आकृति १३.३ देखो । इससे दूध, दुग्धजन्य पदार्थ, मांस का विपुल उत्पादन होता है और राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है ।
मत्स्य व्यवसाय (मच्छीमारी):
बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि और पशु पालन के साथ-साथ मत्स्य व्यवसाय (मच्छीमारी) का भी महत्व प्राप्त हुआ है । मछलियों से मानव को भोजन, तेल, खाद, औषधियाँ, आदि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं । आजकल विज्ञान और प्रौद्योगिकी द्वारा इस व्यवसाय में बहुत बड़ा सुधार आया है ।
यांत्रिक जलयान, नायलान के जाल अपलब्ध होने से मत्स्य उत्पादन में वृद्धि हुई है । उपग्रह की सहायता से मत्स्य क्षेत्रों की खोज, द्रुत गति यात्रा सुविधाएँ, शीतगृह, खतरे की पूर्वसूचना तथा मत्स्य उत्पादों पर प्रक्रिया करना आदि में सुधार होने के कारण यह व्यवसाय बड़े अनुपात में विकसित हुआ है ।
मत्स्य व्यवसाय के दो प्रकार – खारे जल में मछली पकड़ना और अलवण जल में मछली पकड़ना । खारे पानी का मत्स्य व्यवसाय तटीय प्रदेशों में तथा खुले सागर में किया जाता है । यह मत्स्य व्यवसाय व्यापारिक सिद्धांत पर किया जाता है । स्थानीय बाजारों के लिए तथा निर्यात करने के लिए बड़ी मात्रा में मछलियाँ पकड़ी जाती हैं । भारत में सागरीय मत्स्य व्यवसाय में महाराष्ट्र राज्य अग्रसर है ।
नदी, तालाब, झीलें आदि अगहों पर अलवण जल का मत्स्य व्यवसाय चलती है । भारत में इस प्रकार के मत्स्य व्यवसाय में पश्चिम बंगाल राज्य अग्रसर है । साधारणत: यह मत्स्य व्यवसाय स्थानीय प्रकार का होता है । आजकल मत्स्य बीजों द्वारा मछलियों का कृत्रिम पद्धति से संवर्धन किया जाता है । इसे मत्स्य कृषि कहते हैं ।
खदान कार्य:
यह व्यवसाय खनिज संसाधनों पर निर्भर है । भूगर्भ में विविध प्रकार के धात्विक – अधात्विक खनिज पाए जाते हैं परंतु उनका वितरण समान नहीं होता है । विशेष स्थानों पर बिशिष्ट खनिज केंद्रित होते हैं । जहाँ ऐसे खनिज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं; वहाँ खदान कार्य व्यवसाय शुरू करना लाभदायी होता है । अत: इस व्यवसाय को स्थानबद्ध व्यवसाय कहते हैं । उदा., झारखंड, गोआ राज्यों में लौह खनिज के विपुल भंडार हैं । फलस्वरूप वहाँ खदान कार्य व्यवसाय केंद्रित हुआ है ।
खदान कार्य व्यवसाय के लिए खनिजों की उपलब्धता के अलावा श्रमिक, पूँजी, यातायात व्यवस्था आदि की आवश्यकता होती है । यांत्रिकीकरण के कारण अब यह व्यवसाय अधिक विकसित होने लगा है । खदान कार्य में ड्रिलर, क्रशर, क्रेन आदि यंत्रों का उपयोग किया जाता है । खदानों में श्रमिकों को छोड़ने के लिए उत्पादकों (लिफ्ट) का उपयोग किया जाता है ।
आजकल खदानों में गहराई तक बिजली की आपूर्ति तथा वायुवीजन की व्यवस्था होने से दुर्घटनाओं की प्रखरता कम हुई है । फिर भी छतों का ढहना, खदानों में भूजल का घुसना जैसी दुर्धटनाएँ होती हैं । इसलिए इस व्यवसाय को दुर्घटनाप्रवण व्यवसाय माना जाता है ।
खदान कार्य व्यवसाय के पर्यावरणीय कुप्रभाव:
खदानों में से खनिज बाहर निकालते समय यंत्रों की आवाजें ध्वनि प्रदूषण को बढ़ाती हैं । खदान कार्य के समय बड़ी मात्रा में मिट्टी और धूल परिवेश की हवा में घुल-मिल जाती है । इससे वायु प्रदूषण होता है । खदानों का खनिज भंडार खत्म हो जाने पर वहाँ के श्रमिक स्थलांतरण करते हैं । खदानों का परिसर उजड़ जाता है । ऐसे प्रदेश का पुनः उपयोग नहीं किया जा सकता । उदा., कर्नाटक राज्य में कोलार की सोने की खदानें ।