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Here is an essay on ‘Lithosphere’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essay on ‘Lithosphere’ especially written for school and college students.
आज से लगभग 400 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी की उत्पत्ति मानी गई है । तब से आज तक इसमें अनेक परिवर्तन होते गए हैं । पृथ्वी का लगभग 29 प्रतिशत भाग स्थलमंडल द्वारा तथा 71 प्रतिशत भाग जलमण्डल द्वारा घिरा हुआ है । ये दोनों वायु के आवरण से घिरे हुए हैं ।
इस प्रकार हमारी पृथ्वी पर तीन प्रमुख मण्डल हैं:
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(i) स्थलमण्डल,
(ii) जलमण्डल, एवं
(iii) वायुमण्डल ।
स्थलमण्डल पृथ्वी का सबसे महत्वपूर्ण भाग है । जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं वह सभी जगह एक समान नहीं हैं । यहाँ पर बड़े-बड़े ऊँचे पर्वत शिखर, बड़ी-बड़ी नदियाँ और घाटियाँ पाई जाती हैं । कहीं-कहीं विशाल पठार और विस्तृत मैदान पाये जाते हैं । पृथ्वी की सबसे बाहरी परत, जिस पर मानव आदि रहते हैं, को स्थलमण्डल कहते हैं । पृथ्वी के धरातल पर परिवर्तन होते रहते हैं ।
धरातल पर दो प्रकार के परिवर्तन होते दिखाई देते हैं:
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(1) आकस्मिक परिवर्तन
(2) धीमी गति वाले परिवर्तन ।
उपरोक्त दोनों प्रकार के परिवर्तन आन्तरिक एवं बाह्य प्राकृतिक शक्तियों तथा प्रक्रियाओं द्वारा होते हैं । आन्तरिक शक्तियों में ज्वालामुखी एवं भूकम्प प्रमुख हैं तो बाह्य शक्तियों में, बहता जल, पवन, हिमानी और समुद्री लहरें ये धीमी गति से धरातल में परिवर्तन करती रहती हैं ।
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पृथ्वी की संरचना:
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का रहस्य मानव के लिये सदैव से कौतुहल का विषय रहा है । भू-गर्भ के संबंध में हमारा ज्ञान आज भी सीमित है । इधर वैज्ञानिकों ने खदानों की खुदाई, ज्वालामुखी उद्भेदन, भूकम्प तरंगों के आधार पर भूगर्भ की संरचना के संबंध में जानने के प्रयास किए हैं । पृथ्वी की संरचना के बारे में कई वैज्ञानिकों तथा विद्वान भूगोलवेत्ताओं ने अपने तर्क, कल्पना एवं विचारधाराएं प्रस्तुत की हैं ।
वैज्ञानिकों के मतानुसार पृथ्वी की संरचना को 3 भागों में बाँट सकते हैं:
(1) भू-पर्पटी या बाहरी परत
(2) मैंटल
(3) नीफे या क्रोड ।
पृथ्वी की सबसे बाहरी व ऊपरी पर्त को भू-पर्पटी या स्थलमण्डल कहते हैं । इसी पर प्राणी जगत निवास करता है । महाद्वीप महासागरों के पेंदे स्थलमण्डल के ही अंग हैं । यह मण्डल हल्की जलज शैलों से बना हुआ है । इसकी मोटाई लगभग 10 से 70 कि॰मी॰ है । महाद्वीपों की रचना इसी से हुई है । स्थलमण्डल की ऊपरी परत को सियाल (Sial) भी कहते हैं ।
इसमें सिलिका तथा एल्युमिनियम दो धातुओं की प्रधानता होती है । इसका औसत घनत्व 2.7 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है । सियाल के नीचे की परत को सीमा (Sima) कहते हैं । इसमें सिलिका और मैग्नीशियम धातुओं की प्रधानता है । भू-पर्पटी (बाहरी परत) के नीचे मैंटल है ।
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इसकी गहराई 70 से 2900 किलोमीटर है । इसमें ओलिवाइन और पाइरॉक्सिन खनिजों की प्रधानता है । इसका औसत घनत्व 2.9 से 4.7 है । इसके नीचे पृथ्वी का क्रोड है जिसे ‘नीफे’ (Nife) कहते हैं । इसे धात्विक क्रोड भी कहते हैं । इसमें फेरियम तथा निकिल की प्रधानता होती है । इसका भार एवं धनत्व सर्वाधिक है । इसका औसत घनत्व 13.0 है ।
यह भाग 2900 कि॰मी॰ गहराई से 6400 कि॰मी॰ अर्थात पृथ्वी के भीतरी केन्द्र तक फैला हुआ है । गहराई के साथ पृथ्वी के आन्तरिक भाग का तापमान बढ़ता जाता है । पृथ्वी के अंदर प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1॰ सेल्सियस तापमान बढ जाता है । पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापमान की अधिकता के बावजूद आन्तरिक शैलें तथा धातुएँ पिघलती नहीं ठोस रहती हैं इसका मुख्य कारण उन पर बाहरी परतों का दबाव बना रहना है ।
शैल या चट्टान:
धरातल की रचना करने वाले सभी पदार्थ शैल कहलाते हैं । अर्थात जिन पदार्थों से भूपृष्ठ का निर्माण हुआ है, उन्हें शैल या चट्टान कहते हैं । इनमें ग्रेनाइट की तरह कठोर तथा मिट्टी की तरह मुलायम सभी प्रकार के तत्व सम्मिलित हैं । ये शैलें एक या अनेक खनिजों के मिश्रण से बनी हैं ।
निर्माण के आधार पर शैलों के तीन प्रकार हैं:
(1) आग्नेय शैल
(2) अवसादी शैल
(3) कायान्तरित शैल ।
1. आग्नेय शैलें:
ये शैलें भूपृष्ठ की प्रारंभिक शैलें हैं । इन्हें प्राथमिक शैलें भी कहते हैं । ये शैलें पृथ्वी के आन्तरिक भाग में पिघले पदार्थों के ठण्डे होने से बनी हैं । भूपृष्ठ के नीचे अति गर्म पिघला पदार्थ भू-पर्पटी में अथवा उसके ऊपर ठण्डा होकर कठोर हो जाता है, उसे आग्नेय शैल कहते हैं ।
यही गर्म पिघला पदार्थ भूपर्पटी के नीचे धीरे-धीरे ठण्डा होता है तो उससे ग्रेनाइट नामक आग्नेय शैल का निर्माण होता है । ग्रेनाइट का उपयोग इमारती पत्थर के रूप में होता है । कभी-कभी गर्म पिघला पदार्थ किसी छिद्र या दरार से बाहर निकलकर भूपृष्ठ पर फैलता है तो वह बहुत जल्दी ठण्डा होकर कठोर हो जाता है । इस प्रकार बनी आग्नेय शैल को बेसाल्ट कहते हैं । यह शैल गहरे काले रंग की, कठोर तथा भारी होती है । सड़क बनाने में इसका उपयोग किया जाता है ।
2. अवसादी शैलें:
जल वायु एवं हिम द्वारा बहाकर लाये गये कंकड, पत्थरों के छोटे-छोटे कण, जीवाश्म आदि भू- भाग या समुद्रतल में परतों के रूप में जमा होते जाते हैं । इस प्रकार जमे हुए पदार्थ को ‘अवसाद’ कहा जाता है । यही अवसाद की परतें गर्मी तथा दबाव के कारण कठोर हो जाती है तो उन्हें अवसादी या परतदार शैल कहा जाता है ।
इसके निर्माण में जल की प्रमुख भूमिका होने से इसे जलज चट्टान भी कहते हैं । बलुआ पत्थर, चुने का पत्थर, चिकनी मिट्टी, कोयला आदि इसके उदाहरण हैं । इनमें जीव जन्तुओं और वनस्पतियों के अवशेष भी पाये जाते हैं । पृथ्वी के ऊपरी धरातल का लगभग 80 प्रतिशत भाग चट्टानों से ढ़का है ।
3. कायान्तरित शैलें:
जब आग्नेय तथा अवसादी शैलों के रूप रंग और गुण में आन्तरिक ताप तथा दबाव के कारण पूर्ण रूप से परिवर्तन हो जाता है तो उन्हें कायान्तरित या परिवर्तित शैलें कहा जाता है । चूने के पत्थर से संगमरमर, बलुआ पत्थर से क्वार्टजाइट, चिकनी मिट्टी से स्लेट तथा कोयले से ग्रेफाइट और हीरा बनते हैं । ये शैलें अधिक कठोर तथा रवेदार होती हैं ।
स्थ्लाकृतियों के प्रकार:
पृथ्वी पर विभिल प्रकार की स्थलाकृतियाँ पाई जाती हैं । पृथ्वी का धरातल सब जगह एक समान नहीं है । स्थलाकृतियों के आकार तथा बनावट में भिन्नता पाई जाती है । समय-समय पर इनमें परिवर्तन भी होते रहते हैं ।
निर्माण प्रक्रिया तथा विशिष्ट लक्षणों के आधार पर स्थलाकृतियों को तीन मुख्य वर्गों में रखा जाता है:
(1) पर्वत,
(2) पठार,
(3) मैदान ।
(1) पर्वत:
धरातल का वह भाग जो अपने आसपास के भाग से अत्यधिक ऊंचा हो अर्थात् समुद्रतल से 1000 मीटर या इससे अधिक ऊंचा हो ‘पर्वत’ कहलाता है । पर्वत का शीर्ष भाग कम चौड़ा चोटीनुमा तथा इसका ढाल तीव्र होता है । पृथ्वी के सम्पूर्ण स्थलीय भाग के लगभग 20 प्रतिशत भाग पर पर्वतों का विस्तार पाया जाता है ।
पर्वतों के कई प्रकार होते हैं, जैसे ब्लॉक पर्वत, ज्वालामुखी पर्वत, वलित पर्वत आदि । पर्वतों से हमें कई लाभ होते हैं । ये नदियों के उद्गम स्थल होते हैं । जलवायु पर प्रभाव डालते हैं तथा इनसे खनिज पदार्थ भी प्राप्त होते हैं ।
(2) पठार:
धरातल का वह भाग जो ऊंचा, विस्तृत एवं ऊपर से मेज की भांति सपाट हो तथा जो समुद्र तल से 600 मीटर या इससे अधिक ऊंचा हो ‘पठार’ कहलाता है । पठार भी कई प्रकार के होते हैं । जैसे पर्वतीय पठार, महाद्वीपीय पठार, तटीय पठार आदि । पठारों से हमें खनिज पदार्थ प्राप्त होते हैं । कई पठार बहुत उपजाऊ होते हैं ।
(3) मैदान:
धरातल का समतल, चौरस, कम ऊंचाई वाला भाग मैदान कहलाता है । इनकी ऊंचाई समुद्रतल से अधिकतम 350 मीटर होती है । मैदान भी कई प्रकार के होते हैं । मैदान मानव निवास के लिए सबसे उपयुक्त स्थल है । क्योंकि मैदान ही उसकी भोजन, वस्त्र, मकान और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं इसलिए विश्व की लगभग सभी सभ्यताओं का जन्म मैदानी भू-भाग में हुआ है । मैदानों को ‘सभ्यता का पालना’ कहा जाता है । पृथ्वी के ये सबसे विकसित भाग हैं ।
भू-संचलन की क्रियाएँ:
पृथ्वी का धरातल सर्वत्र एक समान नहीं है । कहीं पर समतल मैदान हैं तो कहीं पर्वत या पठार । इनकी रचना परिवर्तनकारी शक्तियों द्वारा होती हैं । पृथ्वी के आन्तरिक तथा बाह्य भाग में कार्यरत शक्तियाँ लगातार धरातल में परिवर्तन करती रहती हैं । इन्हें ही भू-संचलन की क्रियाएं कहा जाता है । आन्तरिक अर्थात् भूगर्भिक शक्तियों से दो प्रकार की गतियाँ उत्पन्न होती हैं क्षैतिज तथा लम्बवत् ।
इन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है:
(1) दीर्घकालिक या मंद भू-संचलन,
(2) आकस्मिक या तीव्र भू-संचलन ।
(1) दीर्घकालिक भू-संचलन:
यह अत्यंत मंदगति से होता है । इसमें महाद्वीपीय एवं पर्वत निर्माणकारी भू-संचलन गतियाँ सम्मिलित हैं । महाद्वीपीय निर्माणकारी भू-संचलन विशाल भाग पर देखा जाता है । ये गतियाँ लम्बवत् दिशा में कार्यरत होती हैं । जिससे भू-पटल के ऊपर उठने तथा नीचे धंसने की क्रियाएं होती हैं । इससे पृथ्वी पर महाद्वीप पठार तथा मैदानों की रचना होती है ।
इसके विपरीत पर्वत निर्माणकारी संचलन में क्षैतिज शक्ति कार्यरत होती है । इससे धरातल में तनाव या दबाव उत्पन्न होता है और शैलों के मुड़ने या टूटने की क्रियाएं होती रहती हैं । इनका प्रभाव सीमित क्षेत्रों में होता है । पर्वतों का निर्माण इसी क्रिया से होता है ।
पर्वत का निर्माण दो रूपों में होता है:
(a) वलन तथा
(b) भ्रंशन
(a) वलन:
पृथ्वी के अन्दर क्षैतिज भू-संचलन द्वारा शैलों में लहरनुमा (आडे-तिरछे) मोड़ पड जाते हैं । इस तरह के मोडों को ‘वलन’ कहते हैं । इसमें शैल स्तरों के कुछ भाग मुड़कर ऊपर उठ जाते हैं तो कुछ नीचे की ओर धँस जाते हैं ।
(b) भ्रंशन:
क्षैतिज भू-संचलन से उत्पन्न दबाव तथा तनाव के कारण शैलों के टूटकर अलग होने की प्रक्रिया को भ्रंशन कहते हैं । इसमें भू-पृष्ठ का कुछ भाग ऊपर उठ जाता है तथा कुछ भाग नीचे की ओर धँस जाता है । भ्रंश घाटी या खण्ड पर्वत इसके प्रमुख उदाहरण हैं ।
(2) आकस्मिक भू-संचलन:
कभी-कभी अन्तर्जात बलों के कारण भूपटल पर अकस्मात धरातलीय परिवर्तन के साथ-साथ विनाशकारी घटनाएं भी हो जाती हैं । ये घटनाएं आकस्मिक भू-संचलन कहलाती हैं ।
ये प्रक्रियाएं दो प्रकार की हैं:
(a) ज्वालामुखी
(b) भूकम्प
(a) ज्वालामुखी:
पृथ्वी तल पर होने वाली आकस्मिक प्राकृतिक घटनाओं में ज्वालामुखी प्रमुख है । ज्वालामुखी भूपटल पर एक गोल छिद्र या दरार वाला खुला भाग होता है । इससे होकर पृथ्वी के अत्यंत तप्त भूगर्भ से गैसें, तरल लावा, ऊष्ण जल, चट्टानों के टुकड़े, राख, धुआं निकलता है ।
जिस छिद्र से उपरोक्त पदार्थ निकलते हैं उसे ‘ज्वालामुख’ या ‘क्रेटर’ कहते हैं और सारी प्रक्रिया को ज्वालामुखी कहा जाता है । पृथ्वी का आंतरिक भाग गर्म है । इस गर्मी के तीन कारण बताए जाते हैं ।
(1) पृथ्वी के बनने के समय से ही आंतरिक भाग गर्म है ।
(2) पृथ्वी के अंदर रेडियोधर्मी खनिज पदार्थों के टूटते रहने के कारण गर्मी बढ़ती रहती है ।
(3) पृथ्वी की बाहरी परतों के दबाव के कारण भी आंतरिक भाग गर्म है ।
वैज्ञानिकों के अनुसार भू-पर्पटी अनेक टुकड़ों में विभाजित है । इन टुकड़ों को प्लेट कहते हैं । आंतरिक गर्मी के कारण ये प्लेटें खिसकती रहती हैं । पृथ्वी पर ज्वालामुखी एवं भूकम्प होने का कारण इन प्लेटों का खिसकना है ।
प्लेटों के खिसकने से भू-पटल कमजोर हो जाता है और पृथ्वी के अंदर से मैग्मा, चट्टानों के टुकड़े, राख आदि पदार्थ ऊपर आ जाते हैं । इन्हें हम ज्वालामुखी के उद्गार कहते हैं ।
ज्वालामुखी के प्रकार:
ज्वालामुखी का उद्भेदन नियमित रूप से नहीं होता । कभी होता है, कभी नहीं होता । इसलिए इसे तीन भागों में विभाजित किया जाता है ।
1. सक्रिय ज्वालामुखी:
जिन ज्वालामुखियों से एक बार उद्भेदन होने के बाद निरन्तर समय-समय पर उद्भेदन होते रहते हैं, उन्हें सक्रिय ज्वालामुखी कहते हैं । इटली के एटना तथा स्ट्राम्बोली ज्वालामुखी इसके उदाहरण हैं ।
2. अर्द्धसक्रिय या प्रसुप्त ज्वालामुखी:
ये वे ज्वालामुखी हैं जिनसे कई बार उद्भेदन के बाद उद्भेदन की समस्त क्रियाएं कुछ समय के लिये बन्द हो जाती हैं । किन्तु अकस्मात पुन: उद्भेदन हो जाता है । इन्हें ‘अर्द्धसक्रिय’ या ‘प्रसुप्त ज्वालामुखी’ कहते हैं । इटली का विसूवियस ज्वालामुखी इसका उदाहरण है ।
3. विसुप्त या शान्त ज्वालामुखी:
जिन ज्वालामुखियों में एक बार उद्भेदन होने के बाद लम्बे समय तक उद्भेदन नहीं होता तथा पुन: उद्भेदन की संभावना भी नहीं होती, ऐसे ज्वालामुखी विसुप्त या शान्त ज्वालामुखी कहलाते हैं । अफ्रीका का किलीमंजारों पर्वत इसका उदाहरण है । सर्वाधिक ज्वालामुखी प्रशान्त महासागर के चारों ओर तटीय भागों तथा महाद्वीपीय क्षेत्रों में पाये जाते हैं । इसलिए इस पेटी को ‘अग्निवलय’ कहा जाता है ।
ज्वालामुखी का मानव जीवन पर प्रभाव:
ज्वालामुखी से विभिन्न स्थलाकृतियों की रचना होती है जैसे मैदान पठार पर्वत आदि । इनसे हमें बहुमूल्य खनिज पदार्थों की प्राप्ति होती है । ज्वालामुखी से निकला लावा चारों ओर फैलकर कालान्तर में उपजाऊ मिट्टी का निर्माण करता है ।
शांत ज्वालामुखी के मुख में वर्षा का जल भरने से झीलों का निर्माण होता है । ज्वालामुखी से कई लाभ के साथ-साथ हानियाँ भी होती हैं । ज्वालामुखी उद्गार से मानव, जीवजन्तु, वनस्पति, कृषि क्षेत्र मानव आवास एवं बड़े-बड़े नगर, गाँव जलकर नष्ट हो जाते हैं अथवा दबकर ध्वस्त हो जाते हैं ।
(b) भूकम्प:
भूकम्प शब्द दो शब्दों से बना है- भू तथा कम्प, जिसका सामान्य अर्थ ‘पृथ्वी का कम्पन’ है । जिस तरह किसी शान्त जल में पत्थर का टुकड़ा फेंकने पर गोलाकार लहरें केंद्र से चारों ओर प्रवाहित होती हैं, उसी तरह भूगर्भ उद्गम केन्द्र (गड़बड़ी वाले स्थान) से भूकम्प लहरें चारों ओर फैलती हैं ।
भूकम्प की उत्पत्ति जिस स्थान पर होती है उसे ‘भूकम्प केन्द्र (फोकस)’ कहते हैं । भूकम्प केन्द्र के ठीक ऊपर जहाँ भूकम्प की लहरों का अनुभव सर्वप्रथम किया जाता है उसे ‘भूकम्प अधिकेन्द्र’ कहते हैं ।
भूकम्प आने के कारण:
पृथ्वी के अन्दर कभी-कभी अचानक हलचल होती है तो भूकम्प आते हैं । ज्वालामुखी उद्भेदन के कारण भी भूकम्प आते हैं । कभी-कभी भूगर्भ के अंदर बनने वाली गैसें एवं जलवाष्प कमजोर भूपटल को तोड़कर ऊपर निकलती है या ऊपर निकलने की कोशिश करती है जिससे भूकम्प आते हैं ।
ज्वालामुखियों के समान ही भूकम्प भी प्रशान्त महासागर के तटीय भागों में अधिक मात्रा में आते हैं । जापान में भूकम्प बहुत आते हैं । भारत में हिमालय का पर्वतीय प्रदेश भूकम्प का मुख्य क्षेत्र है ।
भूकम्प से हमें कई लाभ होते हैं:
1. इससे कभी-कभी उपजाऊ भूमि उभर आती है ।
2. नवीन भू-आकारों का निर्माण होता है ।
3. इनसे बहुमूल्य खनिज पदार्थ धरातल पर आ जाते हैं ।
4. इनसे नीचे हो जाने वाले भू-भाग पर झीलों का निर्माण होता है ।
भूकम्प से कई हानियाँ होती हैं:
1. इससे जन-धन की हानि होती है । मनुष्य, पशु मर जाते हैं । इमारत गिर जाती है । रेलें, सड़कें टूट जाती हैं, कारखाने नष्ट हो जाते हैं ।
2. नदियों के मार्ग अवरूद्ध होने से भयंकर बाढ़ आ जाती है । समुद्र में बहुत ऊंची विनाशकारी लहरें उठती हैं ।
3. भूखण्डों में दरारें पड़ जाती हैं तथा कुछ भाग नीचे धँस जाता है ।