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Read this article to learn about how wind contributes as a factor of soil erosion in Hindi language.
पवन:
पवन का कार्य मुख्य रूप से मरुस्थलीय और कम वर्षावाले प्रदेशों में होता है ।
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इन प्रदेशों की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
(i) मरुस्थलीय प्रदेश प्राय: उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के कर्क एवं मकर वृत्तों के आसपास पाए जाते हैं ।
(ii) मरुस्थलीय प्रदेश में वार्षिक वर्षामान की मात्रा २५० मिमी अथवा उससे कम होती है ।
(iii) वर्षामान की अपेक्षा वाष्पीभवन अधिक मात्रा में हाने से यहाँ जल कम मात्रा में उपलब्ध होता है ।
(iv) वर्षा की मात्रा कम होने से वनस्पतियों का आच्छादन विरल रूप में पाया जाता है । अवरोध कम होने से पवन का कार्य प्रभावी होता है ।
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अन्य कारकों के समान पवन भी अपक्षरण, वहन और निक्षेपण के कार्य करता है ।
अपक्षरण:
पवन अपने साथ रेती और पत्थर जैसे पदार्थ बहाकर ले जाता है । जिससे पवन के मार्ग में स्थित चट्टानों के ऊपरवाले और नीचेवाले भागों पर ये पदार्थ टकराने अथवा उनसे घिस जाने से इन भागों का अपक्षरण होता है । पवन की तीव्र गति से रेती के कण ऊपर उड़ते हैं और उनका दूर तक वहन होता है ।
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इन प्रक्रियाओं द्वारा नीचे दिए गए भूरूप तैयार हो जाते हैं :
(i) अपक्षरण खड्ड:
मरुस्थलीय प्रदेश में पवन की गति से रेत ऊपर उड़ती है और इस रेत का दूर तक वहन किया जाता है । उसी स्थान पर गहरा खड्ड तैयार होता है । ऐसे खड्डों को अपक्षरण खड्ड कहते हैं । आकृति ९.११ देखो । इजिप्त देश में कतारा खड्ड ऐसी प्रक्रिया से निर्मित हुआ है । इन खड्डों की गहराई समुद्री सतह के नीचे १३३ मीटर है ।
(ii) भूछत्र चट्टान:
पवन के अपक्षरण कार्य से तैयार होनेवाला भूरूप पवन के मार्ग में आनेवाली ऊँची चट्टानों पर पवन के साथ बहकर आनेवाले रेत के कणों का आघात होता है । भूमि से लगकर बहनेवाले कण बड़े होते हैं परंतु उनकी गति कम होती है ।
मध्यम ऊँचाई पर कणों का आकार छोटा होने पर भी गति अधिक होने से उनका आघात अधिक तीव्र होता है । फलस्वरूप दोनों चट्टानों के बीच के भाग में अपक्षरण अधिक होता है । परिणामस्वरूप इन चट्टानों को छाते जैसा आकार प्राप्त होता है । अत: इसे भूछत्र चट्टान कहते हैं । आकृति ९.१२ देखो ।
पवन से होनेवाले रेत के कणों की वहन प्रक्रिया से भूपृष्ठ पर नरम चट्टानों की छिजन अधिक मात्रा में होती है और उनके बीच में कठोर चट्टानों के भागों की छिजन कम होती है । मृदु चट्टानों के अपक्षरण से वहाँ पर नाले जैसे आकारवाले और कम छिजनवाले कठोर चट्टानों के भाग लंबे ऊँचाई के रूप में दिखाई देते हैं । इस भूरूप को यारदांग कहते हैं । आकृति ९.१३ देखो ।
वहन और निक्षेपण:
पवन के साथ बड़ी मात्रा में रेत का वहन होता हैं । रेत का वहन रेत के आकार के अनुसार होता है । अति सूक्ष्म कणों का वहन हजारों किमी तक भी होता है । उनकी तुलना में बड़े ओर भारी कण कम दूरी तक बहाकर लाए जाते हैं । पवन द्वारा बहाकर लाई गई रेत का निक्षेपण होता है और विविध भूरूप निर्मित हो जाते हैं ।
(i) बालुकागिरि:
पवन की गति में परिवर्तन होने से उसकी वहन क्षमता परिवर्तित होती है । पवन के मार्ग में अवरोध आने पर भी पवन की गति धीमी पड़ जाती है । फलस्वरूप पवन के साथ बहने वाली रेत का निक्षेपण होता है । इस निक्षेपण द्वारा जिन टीलों का निर्माण होता है, उन्हें बालुकागिरि करते हैं ।
बालुकागिरि के आकारानुसार इसके दो प्रमुख भेद होते हैं :
(a) बरखान:
बहते पवन में अवरोध आने अथवा उसकी गति धीमी हो जाने से उसके साथ उड़कर आई रेत किसी स्थान पर संचित होती है । संचित रेत के ढेर को कालांतर में चंद्रकला जैसा आकार प्राप्त होता है । उन्हें बरखान कहते हैं । आकृति ९.१४ देखो ।
टीले की ढलान उस दिशा में धीमी होती है जिस दिशा से पवन बहते हैं तथा उसकी विपरीत दिशा की ढलान तीव्र होती है । पश्चिमी राजस्थान के भारतीय महामरुस्थल में ऐसे टीले देखने को मिलते हैं ।
(b) सैफ टीले:
अरेवियन भाषा में सैफ का अर्थ तलवार होता है । पवन की दिशा में दूर तक होनेवाले रेत के निक्षेपण से लंबे आकार की बालुकागिरियों की निर्मिति होती है । ये टीले कम ऊँचाई वाले होते हैं और वे कुछ किमी तक फैले हुए पाए जाते हैं । आकृति ९.१५ देखो ।
(ii) लोएस मैदान:
पवन अपने साथ रेत के सूक्ष्म कण हजारों किमी तक बहा ले जाते हैं और मरूस्थलीय प्रदेश से बहुत दूर तक उनका निक्षेपण होता है । ऐसी निक्षेपित रेत को लोएस कहते हैं । निक्षेपित होनेवाले ऐसे कणों के कारण कुछ स्थानों पर विस्तृत मैदानों का निर्माण होता है । चीन में लोएस का मैदान गोवी मरुस्थल से बहाकर लाए गए सूक्ष्म कणों के निक्षेपण द्वारा निर्मित हुआ है । इसका क्षेत्रफल लगभग ६.५ लाख वर्ग किमी है ।